एनडीए की बिहार में जीत अद्भुत थी. आप कितना भी सोचें, दुखी हों, परेशान हों — सच यही है: लोकसभा में मिली करारी हार को इतनी मज़बूत राज्य जीतों में बदल देना कमाल है. इसके लिए सिर्फ मशीनरी नहीं, बल्कि महारत चाहिए और इसमें आपको बीजेपी को—सटीक कहें तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह को श्रेय देना पड़ेगा. यह जोड़ी अबाध है.
महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली और अब बिहार — हर जगह जीत इतनी सहजता के साथ पाई है कि विपक्ष अपनी मौजूदगी साबित करने में भी हांफ रहा है. कई जगह तो हाल ये है कि विधानसभाओं में विपक्ष बस नाम का है, असर का नहीं. भाजपा की रणनीति इतनी सटीक और गहरी है कि आलोचना भी खुद के अंदर सिमटने लगती है.
कल सुबह मुझे एक कॉल आया. भारी झुंझलाहट भरी आवाज़ में लगभग कराहते पूछा: आखिर विपक्ष ने बिहार चुनावों का बहिष्कार क्यों नहीं किया? बिना तैयारी, बिना रणनीति, बिना कहानी के तूफ़ान में कूदने का क्या मतलब था?
विपक्ष का गहरा संकट
यह कटु व चौंकाने वाली सोच है. पर ऐसे ख्याल, ऐसी भावना फैल रही है। अब कहानी यह नहीं पूछती—‘बीजेपी इतनी भारी जीत कैसे ले आती है?’ इसके बजाय एक ठंडी झुंझलाहट अब विपक्ष की तरफ घूम रही है: वे इतने हैरान करने लायक, बार-बार और अजीब तरह से नाकाम क्यों हैं? जो सवाल पहले बीजेपी की रणनीति पर उठते थे, अब विपक्ष की बेवकूफियों पर उठ रहे हैं—कि वे बार-बार होने वाली हार को पहले से क्यों नहीं देख पाए?
यही वह मोड़ है जहां देश का मूड डगमगाने लगा है. यह सिर्फ डर नहीं है. यह पूरी तरह हार मानने वाली भावना भी नहीं है. यह उससे ज़्यादा खतरनाक है: ऐसा लगने लगा है कि मैच टॉस से पहले ही खत्म है. अगर संस्थाएं फेल होंगी, तो नागरिक भी लड़खड़ाएंगे और फिर ढल जाएंगे. गुस्सा छह घंटे ट्रेंड करेगा और रात के खाने तक गायब हो जाएगा, क्योंकि बीजेपी—चाहे कोई उनकी तारीफ करे या नफरत, उसने चुनावी जीत को इतना आसान दिखा दिया है.
और मेहनत दुर्भाग्य से वही चीज़ है जो विपक्ष ने करना बंद कर दी है. ये सिर्फ नंबरों का मामला नहीं है. यह विचारधारा का भी मामला नहीं है. यह सत्ता की ‘फिज़िक्स’ है, जिसे बीजेपी जड़ तक समझती है. वे चुनाव लड़ते नहीं, वे चुनाव ‘तैयार’ करते हैं. वे मौसमों के लिए नहीं, युगों के लिए तैयारी करते हैं और यही सवाल इस पल को डार्क बना देता है: लोकतंत्र का क्या होता है जब जीत ही एकमात्र भाषा बन जाए और विपक्ष बोलना ही भूल जाए?
पिछले 11 साल में विपक्ष समझ नहीं पाया कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह चुनावों से प्यार करते हैं. मोदी को चुनाव इसलिए पसंद हैं क्योंकि वे उन्हें छवि, नारे और अजेयता की ढाल देते हैं. शाह को चुनाव अलग तरह से पसंद हैं—शांत, ठंडे दिमाग से. उनके लिए चुनाव प्रदर्शन नहीं हैं, ढांचा हैं. अगर मोदी मिथक हैं, तो शाह गणित हैं—तेज़, साफ और खतरनाक सटीक. दूसरी तरफ, विपक्ष चुनाव ऐसे लड़ता है जैसे मौसम हों, आते-जाते, अस्थायी. सरल भाषा में कहें, बीजेपी की 24×7 राजनीतिक मशीनरी के सामने विपक्ष एक ‘पॉप-अप शॉप’ है.
बिहार को ही देख लें. तेजस्वी यादव ने 2024 लोकसभा चुनाव के दौरान खूब शोर मचाया. जिलों में घूमे, यादव-मुस्लिम बेस को सक्रिय करने की कोशिश की और कुछ समय के लिए खुद को युवा, तेज़तर्रार विपक्ष का चेहरा दिखाया, लेकिन नतीजे आते ही और वोट-टू-सीट कन्वर्ज़न गिरते ही सारा जोश खत्म हो गया. तेजस्वी भी.
बाद के महीनों में उनकी सार्वजनिक मौजूदगी कम हो गई. राजनीति की चर्चा मोबिलाइज़ेशन से ज़्यादा परिवार के झगड़ों, भाइयों की तकरार, और पार्टी में ढीलेपन पर घूमने लगी. वह न युवाओं के नेता बन पाए, न नीतीश कुमार का विकल्प. उनकी गैर-मौजूदगी ने आरेजडी का ढांचा कमजोर कर दिया, गैर-यादव ओबीसी तक पहुंच टूट गई और विपक्ष की ज़मीन खाली हो गई.
फिर, 2025 विधानसभा चुनाव से ठीक पहले, वे अचानक फिर प्रकट हुए—जैसे किसी नाटक का हिस्सा—खुद को विपक्ष का सीएम चेहरा घोषित करते हुए, राघोपुर लौटते हुए, रैलियां बढ़ाते हुए, नए वादे करते हुए, लेकिन यह जागना देर से हुआ. नुकसान हो चुका था. बीजेपी-नेतृत्व वाला गठबंधन पहले ही मजबूती से खड़ा था.
और यही विपक्ष का बड़ा संकट है: वे बीजेपी के खिलाफ कम और अपने अंदर ज़्यादा नाटक करते हैं. मोदी के बड़े राजनीतिक तमाशे का जवाब देने के बजाय, वे अपना ही तमाशा बना लेते हैं. प्रेस कॉन्फ्रेंस आपसी झगड़ों की डायरी बन जाती हैं, अहंकार विचारधारा से ऊंची आवाज़ में टकराता है, उनकी एकमात्र लगातार चलने वाली कहानी— फ्लॉप होने लगती. वे सरकार का विरोध कम करते हैं और एक-दूसरे का ज़्यादा. जिस समय में मजबूती और एकता चाहिए, वे कोरियोग्राफी देते हैं.
कल्पना की कमी
सो बीजेपी सत्ता में है और विपक्ष बिखर रहा है. उनके पास नेता बहुत हैं, लेकिन नेतृत्व कोई नहीं. सिंहासन के दावेदार ढेरों, लेकिन ऐसा कोई नहीं जो प्रेस कॉन्फ्रेंस से लंबी सोच रख सके. अंत में, वे सरकार के विपक्ष नहीं, बल्कि विपक्ष के विपक्ष बन जाते हैं. दर्शक थककर नाटक खत्म होने से पहले ही घर चले जाते हैं.
इसलिए यह पल सिर्फ बीजेपी ने क्या किया इस पर नहीं, बल्कि विपक्ष ने क्या होने दिया उस पर है. 2014 ने मोदी में भरोसा दिया. 2024 ने एक पल के लिए विपक्ष में भी उम्मीद जगाई—एक अजीब-सी दोहरी उम्मीद, लेकिन डेढ़ साल में वह एहसास भी कमज़ोर पड़ गया. शायद इसी वजह से इस बार बीजेपी की जीत ‘अद्भुत’ लगती है क्योंकि किसी ने रास्ते में खड़ा होने की कोशिश ही नहीं की. कोई मुकाबले की कहानी नहीं थी, कोई दूसरी कल्पना नहीं थी, कोई दूसरा सपना नहीं था.
तो हां, अब मुझे यह लिखने में दिलचस्पी नहीं कि बीजेपी सत्ता में कैसे बनी रहती है—वह कहानी तो इतनी कुशल है कि अब अनुमानित लगने लगी है. असली कहानी है कि विपक्ष क्यों लगातार हार रहा है क्योंकि लोकतंत्र तब नहीं मरता जब एक पक्ष बहुत ताकतवर हो जाए—बल्कि तब जब दूसरा पक्ष कोशिश करना ही छोड़ दे.
आज भारत अधिनायकवाद के ‘अतिरिक्त’ से ज़्यादा, कल्पना की कमी से जूझ रहा है. सत्ता ने विपक्ष को चुप नहीं कराया, विपक्ष ने खुद अपनी आवाज़ छोड़ दी और यदि आज, बीजेपी समय वक्त लिख रही है, तो सिर्फ इसलिए क्योंकि विपक्ष ने लिखना ही बंद कर दिया है. और आज भाजपा लिख रही.
(श्रुति व्यास नई दिल्ली स्थित पत्रकार हैं. वे राजनीति, अंतरराष्ट्रीय मामलों और करेंट अफेयर्स पर लिखती हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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