आप चाहें तो उन्हें ‘वोट कटवा’ कह सकते हैं, लेकिन बिहार विधानसभा चुनावों में हालिया कामयाबी के बाद असदुद्दीन ओवैसी ने अपने कट्टर आलोचकों को भी अपनी पार्टी के बारे में फिर से सोचने को मजबूर कर दिया है. ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लेमीन या एआईएमआईएम ने बिहार में पांच सीटें जीतीं और कुल नतीजों पर उनके प्रभाव के बारे में एक्सपर्ट्स की राय बंटी हुई है.
आंकड़ों से पता चलता है कि एक सीट को छोड़कर एआईएमआईएम को किसी भी सीट पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और महागठबंधन के बीच हार के अंदर से अधिक वोट नहीं मिले, जिसकी वजह से ओवैसी की पार्टी को मिले वोटों का एनडीए की जीत पर कोई असर नहीं पड़ा. लेकिन ओवैसी के विरोधी कहते हैं कि वो ‘बीजेपी की बी टीम’ हैं, क्योंकि एनडीए को सबसे ज़्यादा फायदा वोटिंग के तीसरे दौर में हुआ जहां एआईएमआईएम ने अपने 20 में से अधिकांश उम्मीदवार खड़े किए थे.
बहरहाल, बिहार चुनाव निपट गए हैं और अब सबकी निगाहें पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश पर हैं और एआईएमआईएम ने इन विधान सभा चुनावों में उतरने का फैसला किया है, जो क़्रमश: 2021 और 2022 में होने हैं.
हिंदी बेल्ट में ओवैसी
सच्चाई ये है कि ओवैसी ने भारत की हिंदी बेल्ट की सियासत को एक नया आयाम दिया है. हालांकि दक्षिण में अभी भी ऐसी पार्टियां हैं, जो ख़ासकर मुस्लिम मतदाताओं की नुमाइंदगी करती हैं और उन्हीं के लिए काम करती हैं, लेकिन उत्तर भारतीय पार्टियां बुनियादी रूप से एक दक्षिण-पंथी हिंदुत्व पार्टी-बीजेपी और कई सारी ‘धर्मनिर्पेक्ष’ पार्टियों के बीच में बंटी हैं. चूंकि बीजेपी हमेशा मुस्लिम वोट खो देती है और ‘धर्मनिर्पेक्ष’ पार्टियां उन्हें हासिल कर लेती हैं. इसलिए ज़ाहिर है कि ओवैसी के हिंदी बेल्ट में आने से, मुस्लिम वोट बंट जाते हैं. एक अवधारणा ये भी है कि एआईएमआईएम प्रमुख, चुनावों का ध्रुवीकरण कर देते हैं, जिससे हिंदू वोट संगठित हो जाता है. लेकिन, चूंकि ओवैसी ने बिहार में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी), और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) जैसे सियासी बहुरूपियों के साथ सहयोग किया, जो अतीत में कई बार बीजेपी से सहयोग कर चुके हैं, या उसके प्रति नर्म रहे हैं, इसलिए ओवैसी की मंशा को लेकर शक पैदा होता है- कि उनके प्रयास दलअस्ल ‘धर्मनिर्पेक्ष’ दलों के खिलाफ हैं, 2014 के बाद से जिनका मुख्य एजेंडा बीजेपी को हराना रहा है. पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में जाने का ओवैसी का फैसला, बीजेपी-विरोधी पार्टियों में ख़तरे की इस अवधारणा को बल देता है.
तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), समाजवादी पार्टी (एसपी), बीएसपी और कांग्रेस को, ओवैसी समस्या से निपटने के लिए, नए सिरे से अपनी रणनीति बनानी होगी, जो उनके लिए ‘पीठ में चुभे कांटे’ की जगह, एक ऐसी कंटीली झाड़ी बन गए हैं, जो चुनावों के कुल नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं, भले ही संख्या के मामले में वो हाशिए पर हों, और सीधे तौर पर बीजेपी के पक्ष में न हों.
ओवैसी हमेशा किसी महत्वहीन तीसरे मोर्चे के साथ होते हैं, जो किसी काम का नहीं होता. लेकिन चूंकि वो मुस्लिम वोटों में सेंध मार लेते हैं, इसलिए उन्हें मिले वोट सिर्फ ‘धर्मनिर्पेक्ष’ पार्टियों को कमज़ोर करते हैं. हालांकि ये दलील अपनी जगह सही है, कि चुनावी लोकतंत्र में उनका रोल किसी की मदद करना नहीं है, लेकिन इसका एक परिणाम ये होता है, कि बीजेपी अनिवार्य रूप से सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर आती है, और उसके लिए सहयोगी तलाशना आसान हो जाता है.
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ओवैसी की कार्यशैली को समझने के लिए, आप 2019 के महाराष्ट्र विधान सभा के आंकड़ों को देख सकते हैं. एआईएमआएम को 1.34 प्रतिशत वोट मिले, और वंचित बहुजन अघाड़ी (वीबीए) को 4.6 प्रतिशत वोट मिले, और इन दोनों ने मिलकर कम से कम 35 सीटों पर, धर्मनिर्पेक्ष पार्टियों के मुस्लिम और दलित वोटों में सेंध लगा दी. लेकिन एआईएमआईएम और वीबीए को एक भी सीट नहीं मिली. 27 सीटों पर उन्हें एनडीए और कांग्रेस-एनसीपी के जीत के अंदर से ज़्यादा वोट हासिल हुए. मसलन, पुणे कैंटोनमेंट में बीजेपी को 52,160 वोट मिले, जबकि कांग्रेस सिर्फ 5,012 वोटों से हार गई, और उसे केवल 47,148 वोट हासिल हुए. इस सीट पर एआईएमआईएम को 6,041 वोट मिले. अन्य के अलावा, चालीसगांव और अकोला पश्चिम जैसी सीटों पर भी यही कहानी थी. इसलिए उनकी भूमिका को सिर्फ ‘धर्मनिर्पेक्ष’ पार्टियों को कमज़ोर करना बताकर ख़ारिज करना, उनकी सियासत को समझने का एक अज्ञानी नज़रिया होगा. इस बारे में सिर्फ अटकलें लगाई जा सकती हैं, कि इन ‘धर्मनिर्पेक्ष’ पार्टियों को कमज़ोर करने से, जिन्हें वो ‘फर्ज़ी’ या ‘पाखंडी’ कहते हैं, उन्हें क्या हासिल होता है.
बंगाल में, टीएमसी को ओवैसी के बिहार प्रदर्शन दोहराने का ख़तरा
अपने वोट बैंक के संभावित नुक़सान को भांपते हुए, टीएमसी ने पहले ही ओवैसी पर हमले शुरू कर दिए हैं. टीएमसी नेता अनुबृत मंडल ने ओवैसी पर सीधा हमला बोलते हुए, उन्हें ‘बीजेपी का दलाल’ बता दिया. बंगाल गृह मंत्री अमित शाह का मनपसंद मंसूबा है. उसे जीतने से राज्य सभा में बीजेपी की ताक़त अच्छी ख़ासी बढ़ जाएगी और वो विवादास्पद क़ानून पारित करा पाएगी.
राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का बिगुल, सबसे पहले बंगाल में ही फूंका गया था, जिसमें मुसलमानों के प्रति वैमनस्य पैदा करने के लिए, बंगाली मुसलमानों को बांग्लादेशी घुसपैठिए क़रार दे दिया गया. और ऐसा लगता है कि ज़मीन पर ये रणनीति काम कर रही है. बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में काफी ज़मीन कवर की है, जिसकी वजह से ममता ने मोदी-विरोधी हो-हल्ला करना बंद कर दिया है, और अपने कट्टर विरोधी मोदी की तरह, चाय बनाते हुए फोटो खिंचवाने पर उतर आई हैं.
ओवैसी के इस सियासी नक़्शे पर आकर, शाह के भगवा के ऊपर हरा रंग पोतने की कोशिश, मतदाताओं को धार्मिक रूप से और ज़्यादा विभाजित करेगी, और इसीलिए टीएमसी अपने मैदान में ओवैसी के उतरने पर प्रतिक्रिया दे रही है. टीएमसी की दलील है कि ओवैसी, उसके वोट शेयर में सेंध लगाएंगे, लेकिन वो ज़्यादा से ज़्यादा हिंदी और उर्दू बोलने वाले मुसलमानों को बांट पाएंगे, जो सूबे में मुस्लिम मतदाताओं का सिर्फ 6 प्रतिशत हैं. वैसे, मुसलमान पश्चिम बंगाल में कुल मतदाताओं का 30 प्रतिशत हैं- इतना वोट शेयर चुनाव को किसी भी दिशा में ले जा सकता है.
यूपी भी अलग नहीं
उत्तर प्रदेश में भी यही कहानी है. सूबे की 19.3 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है, लेकिन ये मुस्लिम वोट शिया और सुन्नी गुटों में बंटा हुआ है. शिया पारंपरिक रूप से बीजेपी समर्थक रहे हैं, लेकिन वो अल्पसंख्यों के बीच अल्पसंख्यक हैं.
वोटों का अधिकांश हिस्सा मुन्नी मुसलमानों का है, जो पारंपरिक रूप से कांग्रेस, बीएसपी और एसपी को वोट करता आया है. और अब उनके सामने एक नया नेता होगा- असदुद्दीन ओवैसी.
‘प्रोजेक्ट’ राम मंदिर का रास्ता साफ होने के साथ ही, योगी 2.0 अब एक तयशुदा चीज़ लगती है. बल्कि 2017 में सूबे में मुस्लिम नुमाइंदगी तबाह हो गई. बीएसपी ने 99 मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए, जिनमें से केवल पांच जीत पाए. एसपी के 57 मुस्लिम उम्मीदवारों में, सिर्फ 17 को जीत हासिल हुई. और कांग्रेस के 22 मुस्लिम उम्मीदवारों में से, सिर्फ दो जीत पाए. ओवैसी के आने से मुसलमान वोटों में, ‘सेकुलर’ पार्टियों की हिस्सेदारी और घट जाएगी, जिससे उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट बेकार हो जाएगा, जिसे अभी तक स्विंग वोट माना जाता था.
चुनावों में ओवैसी फेक्टर अब एक सच्चाई है. ‘हैदराबाद के मोहल्ले के नेता’ को, अब ‘लगभग किंग-मेकर’ कहा जा रहा है. उसे हल्के में लेना विपक्ष को ही भारी पड़ेगा.
(ऑथर एक राजनीतिक पर्यवेक्षक और लेखिका हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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Madam
Aa gaye apne asali agende par hme to umeed thi ki is se pahle aapka article vaampanth ke dar ko dikhate hue aayega lekin aapne to seedha agenda h pakad liya, gud nd very gud atleast so called secular bhi samjhe ki aap jaise logo ka asali agenda hai kya?