1964 में जब फूड कॉरपोरेशन एक्ट लागू हुआ, तब लाल बहादुर शास्त्री की सरकार में खाद्य और कृषि मंत्री सी. सुब्रमण्यम ने मशहूर शिक्षाविद टी.ए. पाई को इस नई संस्था की जिम्मेदारी सौंपी. इसकी अधिकृत पूंजी 100 करोड़ रुपये और इक्विटी 4 करोड़ रुपये थी. मुख्यालय मद्रास (जो अब चेन्नई है) में बना और पहला ज़िला कार्यालय तंजावुर में खोला गया. उस वक्त भारत का सालाना अनाज उत्पादन सिर्फ 62 मिलियन टन था. गरीबी का स्तर बहुत ऊंचा था — वी.एम. दांडेकर और एन. राठ के अनुसार 44 फीसदी और प्रणब बर्धन के अनुसार 54 फीसदी लोग गरीब थे.
वर्तमान समय में भारत का सालाना खाद्यान्न उत्पादन 332 मिलियन टन तक पहुंच गया है. नीति आयोग के अनुसार, पिछले दस वर्षों में गरीबी में सबसे तेज़ गिरावट देखी गई — 29.17 फीसदी से घटकर 11.28 फीसदी तक. भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) अब नई दिल्ली के एक शानदार कॉरपोरेट ऑफिस में काम कर रहा है और इसकी पहुंच बढ़कर 25 रीजनल ऑफिस और 170 जिला ऑफिसों तक फैल गई है.
हाल ही में एफसीआई को 10,157 करोड़ रुपये की नई इक्विटी मिली है, जिससे यह उम्मीद की जा रही है कि वह प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (PMGKAY) को लागू करने में मुख्य भूमिका निभाएगा — कम से कम दिसंबर 2028 तक, और संभव है कि उससे आगे भी. इसके दोनों मुख्य उद्देश्य — किसानों को उचित मूल्य दिलाना, पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के लिए अनाज उपलब्ध कराना — अब भारत की राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था का अहम हिस्सा बन चुके हैं.
उपलब्धियां और चुनौतियां
छह दशक पहले जब भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की स्थापना हुई थी, तब यह भारत को खाद्य आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ाने में सबसे आगे था. हरित क्रांति के दौरान, एफसीआई ने चावल और गेहूं की खरीद बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई, ताकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) को मजबूती मिल सके. इसके लिए एफसीआई की काफी सराहना भी हुई.
लेकिन 1970 के दशक के मध्य तक स्थिति बदलने लगी — उत्पादन मांग से ज़्यादा हो गया. गोदाम और ट्रांसपोर्ट व्यवस्था इतनी मजबूत नहीं थी कि बढ़ते अनाज को सही तरीके से संभाल सके. कई बार रेलवे स्टेशनों पर खुले में रखा अनाज चूहों की भेंट चढ़ गया.
नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड (NDDB) ने जहां समय के साथ तकनीक को अपनाया और अपने कामकाज को राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखा, वहीं एफसीआई इसमें असफल रहा. धीरे-धीरे एफसीआई को एक ऐसी बड़ी संस्था कहा जाने लगा जिसकी अब कोई खास ज़रूरत नहीं रह गई थी, लेकिन इसे सुधारना भी आसान नहीं था — खासकर 1990 के दशक की कमजोर गठबंधन सरकारों के दौर में.
1991 में जब आर्थिक उदारीकरण आया, तब भारतीय बाज़ार खुला और कई एफएमसीजी (FMCG) कंपनियों ने मध्यम वर्ग के लिए पैकेज्ड आटा और चावल बेचने की संभावना देखी. इसके चार साल बाद, 1995 में, विश्व व्यापार संगठन (WTO) के सदस्य देशों ने एफसीआई पर अनुचित सब्सिडी देने का आरोप लगाते हुए इसके खिलाफ अभियान शुरू कर दिया.
हालांकि, भारत का WTO के साथ कृषि समझौता (Agreement on Agriculture) यह अनुमति देता था कि चावल और गेहूं जैसे आवश्यक खाद्य पदार्थों को ‘ब्लू बॉक्स’ में रखा जा सकता है, जिसमें कुछ सरकारी सहायता वैध मानी जाती है.
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विकेंद्रीकृत खरीद प्रणाली
1996-97 तक आते-आते एफसीआई (इस “विशालकाय” संस्था) का एकाधिकार खत्म कर दिया गया और राज्य सरकारों को भी खाद्यान्न की खरीद की अनुमति दी गई. इसे विकेंद्रीकृत खरीद योजना (DCP) कहा गया. इससे न केवल ट्रांसपोर्ट का खर्च कम हुआ, बल्कि अब राज्यों को खरीदी की गुणवत्ता और किसानों की पहचान की सीधी जिम्मेदारी भी दी गई. हालांकि, अगर किसी राज्य को अपने हिस्से से ज़्यादा चावल या गेहूं चाहिए होता, तो एफसीआई अपने केंद्रीय भंडार से उसकी भरपाई करता था. ज्यादातर राज्यों को गेहूं की आपूर्ति पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश से होती थी.

अंत्योदय – सबसे गरीब व्यक्ति का उत्थान
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली पहली एनडीए सरकार के समय, सरकार ने सबसे गरीब 1 करोड़ परिवारों की पहचान की जो गरीबी रेखा के नीचे (BPL) थे. इन परिवारों को हर महीने 35 किलो चावल और गेहूं बेहद कम दामों पर दिया गया — चावल 3 रुपये प्रति किलो, गेहूं 2 रुपये प्रति किलो. बाद में इस योजना का दो बार विस्तार किया गया — जून 2003 और अगस्त 2004 में और हर बार 50 लाख BPL परिवार और जोड़े गए. इस समय यह समझ बनी कि अंत्योदय परिवारों को सबसे सस्ते दाम पर अनाज मिलेगा, BPL परिवारों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) का 50% देकर अनाज मिलेगा और APL (गरीबी रेखा से ऊपर वाले) को MSP का 90% देना होगा.
एनएफएसए 2013 और संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य
संयुक्त राष्ट्र ने सतत विकास लक्ष्य (SDGs) की घोषणा दो साल बाद की, लेकिन उससे पहले ही भारत ने 10 सितंबर 2013 को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) लागू कर दिया. इस कानून का उद्देश्य था कि गांवों की 75% और शहरों की 50% आबादी को लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (TPDS) के तहत सब्सिडी वाला अनाज मिले. यह कानून मनरेगा (MGNREGA) के साथ मिलकर दो बड़ी समस्याओं — भूख खत्म करने (Zero Hunger) और गरीबी मिटाने (Zero Poverty) को हल करने की दिशा में एक अहम कदम माना गया.
हालांकि, इस राजनीतिक वादे के साथ-साथ, एफसीआई के कामकाज में खामियों को लेकर भी आवाज़ें उठने लगी थीं. 2014 में जब एनडीए सरकार सत्ता में आई, तो उसने एफसीआई और पीडीएस के कामकाज की समीक्षा के लिए शांता कुमार की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति बनाई. समिति ने सुझाव दिया कि गेहूं, धान और चावल की सारी खरीद राज्य सरकारों को सौंप दी जाए, खासकर उन राज्यों को जिन्हें इसमें पहले से अनुभव है, जैसे — आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, मध्य प्रदेश, ओडिशा और पंजाब. एफसीआई को अपनी ऊर्जा उन राज्यों और क्षेत्रों में लगानी चाहिए, जहां किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से काफी कम दाम मिल रहे हैं, जैसे — पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम.
समिति ने यह भी सुझाव दिया कि किसानों को निगोशिएबल वेयरहाउस रिसीट सिस्टम के ज़रिए उनकी उपज का 80% मूल्य एमएसपी पर एडवांस में दिया जाए. इसके साथ ही, समिति ने वेयरहाउसिंग, लॉजिस्टिक्स और भंडारण में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा देने की सिफारिश की ताकि यह व्यवस्था बाज़ार-आधारित अर्थव्यवस्था के अनुकूल बन सके. समिति ने यह भी कहा कि मोटे अनाज (मिलेट्स), दालें और तिलहन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को व्यापार नीति से जोड़ना चाहिए ताकि ऐसा न हो कि आयातित वस्तुओं की कीमत एमएसपी से कम हो जाए. इसके अलावा समिति ने सुझाव दिया कि महंगाई के अनुसार तय की गई कैश ट्रांसफर (नकद स्थानांतरण) की व्यवस्था शुरू की जाए. इसी के तहत सितंबर 2015 से केंद्र सरकार ने चंडीगढ़, पुडुचेरी और दादरा एवं नगर हवेली के शहरी क्षेत्रों में कैश ट्रांसफर के पायलट प्रोजेक्ट शुरू किए, ताकि खाद्य सब्सिडी सीधे लोगों को दी जा सके. हालांकि इन प्रयोगों को लेकर मिलाजुला रिस्पॉन्स मिला.
2020 में 15वें वित्त आयोग ने सुझाव दिया कि सब्सिडी का बोझ कम करने के लिए सस्ती दर पर दिए जाने वाले अनाज (CIP) की कीमतें थोड़ी बढ़ाई जाएं. उसने यह भी बताया कि लोगों के खाने में अब धीरे-धीरे अनाज (खासकर गेहूं और चावल) की हिस्सेदारी घट रही है.
फिर आया कोविड-19 का दौर. इस संकट में एफसीआई के पास मौजूद अनाज का भंडार देश के लिए एक बड़ी राहत साबित हुआ. नौकरियों के नुकसान और प्रवासी मजदूरों की घर वापसी जैसी मुश्किलों के बीच, सरकार ने अप्रैल 2020 से दिसंबर 2022 तक गरीबों को फ्री में राशन दिया — यह योजना थी प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (PMGKAY). इसके बाद इस योजना को पहले एक साल और फिर जनवरी 2024 से अगले पांच साल तक के लिए बढ़ा दिया गया. अब केंद्र सरकार ने एफसीआई और राज्य एजेंसियों को यह जिम्मेदारी दी है कि वे दिसंबर 2028 तक लगभग 82 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज उपलब्ध कराएं. इस योजना की शुरुआती लागत पांच साल में करीब 12 लाख करोड़ रुपये मानी गई थी, लेकिन आने वाले समय में नई जनगणना के आंकड़े और बढ़े हुए एमएसपी की वजह से यह खर्च और बढ़ सकता है.
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राजनीतिक फैसला
अशोक गुलाटी, जो आईसीआरआईईआर (ICRIER) में कृषि मामलों के वरिष्ठ प्रोफेसर हैं, उनका मानना है कि असली समस्या एफसीआई में नहीं बल्कि नीतियों के ढांचे में है. वे सवाल उठाते हैं कि जब देश में अब थाली इंडेक्स (यानी अनाज + प्रोटीन) की बात हो रही है, तब भी 67% से ज़्यादा आबादी को सिर्फ अनाज देने की क्या तुक है? उनके पास खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) दोनों को लेकर सुझाव हैं.
खरीद (procurement) के मामले में गुलाटी का सुझाव है कि: खरीद को सिर्फ PDS की ज़रूरतों तक सीमित किया जाए और MSP (न्यूनतम समर्थन मूल्य) सिर्फ उन्हीं फसलों के लिए मिले जो स्थानीय मौसम और मिट्टी (agroclimatic zone) के अनुसार उपयुक्त हों. राज्यसभा में 17 दिसंबर 2024 को दिए एक लिखित उत्तर में सरकार ने बताया कि उसके पास 367 लाख मीट्रिक टन (LMT) अनाज का भंडार है, जबकि ज़रूरत सिर्फ 210.40 LMT की है. पंजाब के संगरूर ज़िले का उदाहरण देते हुए — जहां 2000 से 2019 के बीच भूजल स्तर 25 मीटर से भी ज्यादा गिर गया — गुलाटी का सुझाव है कि इस ज़िले में एमएसपी सिर्फ मोटे अनाज और दालों पर दी जाए. इससे पानी, बिजली और खाद पर मिलने वाली करीब 10,000 रुपये प्रति एकड़ की सब्सिडी बचेगी, जिसे केंद्र और राज्य सरकार आपस में बराबर बांट सकते हैं.
इसी तरह, अशोक गुलाटी ने सुझाव दिया कि 5 लाख राशन दुकानों को मल्टी-कमोडिटी न्यूट्रिशन हब (यानी कई चीज़ों से भरे पोषण केंद्र) में बदला जाए और हर परिवार को सालाना करीब 8,000 रुपये की खाद्य सब्सिडी दी जाए, जिससे वे ज्यादा पोषणयुक्त और विविध आहार खरीद सकें. इससे PDS के ज़रिए उठाए गए अनाज और NSSO के आंकड़ों में दर्ज असली खाने की खपत के बीच जो अंतर है, वह भी कम हो जाएगा.
इस बीच, एफसीआई ने अपनी खरीद प्रक्रिया में बड़े बदलाव लाने शुरू कर दिए हैं. अब एफसीआई ने कुछ नई तकनीकों को अपनाया है, जैसे: AI-आधारित ऑटोमैटिक ग्रेन एनालाइज़र (AGA) – जो इंसानी दखल को कम करके खरीद प्रक्रिया को ज्यादा पारदर्शी बनाता है. मिक्स्ड इंडिकेटर मेथड (MIM) – इसका इस्तेमाल उस कस्टम-मिल्ड कच्चे चावल की उम्र तय करने में होता है जो केंद्र के भंडार में लिया जाना है. इसके अलावा: साइलो भंडारण, कंटेनरों में अनाज की ढुलाई और रेल रैक पर हाई-सिक्योरिटी केबल सील जैसे उपायों ने ट्रांसपोर्ट के दौरान होने वाले नुकसान में 96% तक की कमी ला दी है.
तो अब आखिरी निष्कर्ष क्या है? एफसीआई के पास तकनीक, जनशक्ति और वित्तीय ताकत है जिससे वह सरकार की नीतियों को लागू कर सकता है. वह संकट के समय खुद को मजबूत और सक्षम साबित कर चुका है और जब भी ज़रूरत पड़ी है, अतिरिक्त जिम्मेदारी लेने को तैयार रहा है. अगर सरकार का आदेश यह हो कि नई पीडीएस व्यवस्था के लिए — जिसमें सिर्फ अनाज नहीं बल्कि सभी तरह की कृषि उपज शामिल हो — एफसीआई को मुख्य खरीद एजेंसी बनाया जाए, तो एफसीआई वह जिम्मेदारी भी उठाने में सक्षम है.
(यह लेख लाल बहादुर शास्त्री और उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं पर आधारित सीरीज़ का तीसरा हिस्सा है)
(संजीव चोपड़ा एक पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स साहित्य महोत्सव के निदेशक हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक भी रहे हैं. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev है. यह लेख लेखक के निजी विचार हैं.)
स्पष्टीकरण: लेखक लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल (एलबीएस म्यूज़ियम) के ट्रस्टी भी हैं.
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