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बुधवार, 4 जून, 2025
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ऑपरेशन सिंदूर के बाद तमाम देशों में प्रतिनिधिमंडल भेजना भारतीय दूतावासों की खामी दर्शाता है

दो दिशाओं में सुधार जरूरी हैं— भारतीय दूतावासों के ढांचे का विउपनिवेशीकरण और उनके निष्क्रिय नेतृत्व को सक्रिय बनाना.

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पाकिस्तान के साथ संघर्ष विराम के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने आतंकवाद रोधी मुहिम के लिए व्यापक समर्थन जुटाने के वास्ते तमाम देशों में प्रतिनिधिमंडल भेजने का जो फैसला किया वह काफी ध्यान आकर्षित कर रहा है. ये प्रतिनिधिमंडल जैसे-जैसे विभिन्न देशों में पहुंच रहे हैं, सवाल यह उठाया जा रहा है कि क्या इस तरह का कदम उठाना वाकई ज़रूरी था?

मेरा मानना है कि सरकार को प्रतिनिधिमंडलों को भेजने का फैसला इसलिए करना पड़ा कि दूसरे देशों में भारत के जो दूतावास हैं वह भारत के राष्ट्रीय हितों को बढ़चढ़कर आगे नहीं बढ़ा रहे हैं.

सरकारें अपने महत्वपूर्ण एवं विशेष संदेशों को दूसरे देशों तक पहुंचाने के लिए आमतौर पर अपने विदेश मंत्री या वरिष्ठ अधिकारियों को भेजा करती हैं, लेकिन सर्वदलीय संसदीय प्रतिनिधिमंडलों को भेजना कूटनीति के दायरे में एक दुर्लभ कदम है. मुझे हाल फिलहाल में ऐसा कोई उदाहरण याद नहीं आता कि किसी देश ने ऐसा कोई कदम उठाया हो. आतंकवाद के मसले पर भारत का नज़रिया प्रस्तुत करने के लिए ऐसे प्रतिनिधिमंडलों की ज़रूरत पड़ी, इससे यह ज़ाहिर होता है कि दूसरे देशों में भारतीय दूतावास अपना यह काम प्रभावी ढंग से नहीं कर पा रहे हैं.

इसके लिए आपस में जुड़े दो कारणों को जिम्मेदार माना जा सकता है. एक तो यह है कि तमाम सरकारों ने विदेश में भारतीय दूतावासों में जरूरी सुधार नहीं किए. दूसरा यह कि भारतीय दूतावासों के अधिकारियों को अपने देश में शायद ही कोई प्रशंसा मिलती है. यह उनके कामकाज को प्रभावित करता है.

नतीजतन, सरकार को सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने जैसे कदम उठाने पड़े, लेकिन दीर्घकालिक समाधान भारतीय दूतावासों का ढांचागत सुधार है.

भारतीय दूतावासों के ढांचे का विउपनिवेशीकरण

राष्ट्रमंडल वाले देशों में भारतीय दूतावास को उच्चायोग कहा जाता है और बाकी देशों में दूतावास कहा जाता है. उनकी मुख्य ज़िम्मेदारी है : भारत सरकार के संदेश इन देशों की सरकार तक पहुंचाना.

इन दूतावासों की कार्यकुशलता बढ़ाना बहुत ज़रूरी है, लेकिन दुर्भाग्य से तमाम सरकारों ने इस पर ध्यान नहीं दिया. दो दिशाओं में सुधार ज़रूरी हैं — भारतीय दूतावासों के ढांचे का विउपनिवेशीकरण और उनके निष्क्रिय नेतृत्व को सक्रिय बनाना.

पहले, भारतीय दूतावासों के ढांचे को लें. उदाहरण के लिए लंदन में भारतीय उच्चायोग अभी भी औपनिवेशिक स्वरूप में गठित नज़र आता है. फिलहाल उसके छह अधिकारियों को मिनिस्टर कहा जाता है — मिनिस्टर (काउंसेलर), मिनिस्टर (ऑडिट), मिनिस्टर (इकोनोमिक), मिनिस्टर (को-ऑर्डिनेशन), मिनिस्टर (नेहरू सेंटर). दिलचस्प बात यह है कि ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, या कनाडा में भारतीय उच्चायोग मिनिस्टर पदनाम का इस्तेमाल नहीं करते. केवल भारत, श्रीलंका, और बांग्लादेश के लंदन स्थित उच्चायोगों में इस पदनाम का प्रयोग किया जाता है.

लगता है, यह प्रथा औपनिवेशिक शासन के दौरान ‘सेक्रेटरी ऑफ इंडिया’ के पद से चली आ रही है. सेक्रेटरी और डिप्टी सेक्रेटरी के पदों को उच्चायुक्त और उप-उच्चायुक्त के पदों में बदल दिया गया. बाकी पदनाम नहीं बदले गए. मिनिस्टर पदनाम को लेकर उलझन तब पैदा होती है जब केंद्र या किसी राज्य के मंत्री सरकारी दौरे पर लंदन जाते हैं. आमतौर पर भारतीय उच्चायोग के ‘मिनिस्टर’ उनकी अगवानी करते हैं और उनके साथ रहते हैं, लेकिन जिन लोगों को इस नौकरशाही पदक्रम का पता नहीं होता वह काफी उलझन में पड़ते हैं.

दूसरा मसला नेतृत्व शैली का है. भारतीय दूतावासों के नेतृत्व निष्क्रिय नहीं बल्कि सक्रिय हो यह व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए. फिलहाल दूतावास सरकार से निर्देश मिलने के बाद सक्रिय होते हैं और उनकी सक्रियता काफी औपचारिक किस्म की होती है, लेकिन उन्हें भारतीय प्रवासियों और दूसरे भागीदारों के साथ अनौपचारिक मेलजोल रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.

लंदन में रहने के अपने छह वर्षों के अनुभव में मैंने पाया है कि शुद्ध रूप से नौकरशाही नियुक्ति इस तरह के मेलजोल को कम कर देती है. इसलिए सरकार भारतीय दूतावासों के अधिकारियों में विविधता लाए. उनमें प्रोफेसरों, पत्रकारों, लेखकों, और युवा नेताओं को भी शामिल किया जाए.

मैंने पाया है कि लंदन में नेहरू सेंटर के अध्यक्ष पद पर लेखक अमीश त्रिपाठी की नियुक्ति के बाद सामाजिक गतिविधियों में वृद्धि हुई है. यह सेंटर लंदन में भारतीय उच्चायोग की सांस्कृतिक शाखा के रूप में सक्रिय है. यह ब्रिटेन में प्रमुख भारतीय सांस्कृतिक संस्था के रूप में सक्रिय है. साहित्यिक पृष्ठभूमि से आए त्रिपाठी ने अक्तूबर 2023 तक यह पद संभाला, लेकिन किसी नौकरशाही शिष्टाचार में पड़े बिना लोगों से औपचारिक तथा अनौपचारिक रूप से मिलते रहे. इससे नेहरू सेंटर में सांस्कृतिक गतिविधियों और सामाजिक आयोजनों में वृद्धि हुई.

भारतीय दूतावासों में विविध किस्म के पेशेवरों की नियुक्ति दो कारणों से ज़रूरी है. पहला यह कि भारतीय दूतावासों को भारतीय प्रवासियों के साथ मेलजोल बढ़ाना चाहिए, जो विविध क्षेत्रों, विचारधाराओं, जातियों, और पेशों से जुड़े होते हैं. दूतावासों में विविधताओं के इस मेल से उनका दायरा विस्तृत होगा. दूसरे, विविध किस्म के पेशेवरों की नियुक्ति उन्हें विदेश नीति तथा कूटनीति के अनुभव कराएगी, जो कि भावी नेतृत्व के विकास के लिए लाभकारी होगा.

भारतीय दूतावासों में अच्छे काम की तारीफ न किए जाने से अधिकारी लोग सक्रिय नेतृत्व देने से हतोत्साहित होते हैं. उदाहरण के लिए लंदन में वर्तमान भारतीय उच्चायुक्त विक्रम दोरैस्वामी पिछले उच्चायुक्त के मुकाबले कहीं ज्यादा सक्रिय दिखते हैं. वह लोगों से बराबर मिलते रहते हैं और सामुदायिक आयोजनों में सक्रियता से भाग लेते हैं. फिर भी अधिकतर भारतीय उनका नाम नहीं जानते.

इससे तरह, उच्चायोग की सुरक्षा अधिकारी किरण भोसले 2023 में खालिस्तान समर्थकों के प्रदर्शन के दौरान तिरंगे की सुरक्षा करते हुए घायल हो गए थे लेकिन यह खबर मीडिया में कहीं नहीं आई.

यह सब यही बताता है कि भारतीय दूतावासों में काम करने की प्रशंसा में कंजूसी की जाती है. यह भी सक्रिय नेतृत्व को हतोत्साहित करता है.

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि भारतीय दूतावासों को औपनिवेशिकता से मुक्त करना, उनमें विविध पेशों के लोगों की नियुक्ति करना, और अधिकारियों को उनके काम के लिए प्रशंसित करना उन्हें उन भूमिकाओं को पूरा करने में सक्षम बनाएगा जिनके लिए उनका गठन किया गया है.

(अरविंद कुमार ब्रिटेन के यूनिवर्सिटी ऑफ हर्टफोर्डशायर में राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंध के विजिटिंग लेक्चरर हैं. उनका एक्स हैंडल @arvind_kumar__ है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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