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Saturday, 21 December, 2024
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भारत को मरुस्थल घटाने हैं तो महान प्रधानमंत्रियों को इसपर अपने मासूम विचार छोड़ने पड़ेंगे

प्रधानमंत्री मोदी ने सैकड़ों तालाबों को पुनर्जीवित करने का प्रण दोहराया है. लेकिन क्या इसकी शुरुआत दिल्ली से की जा सकती है.

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सबसे पहले एक कहानी– 50 के दशक में हिमालय के पानी को राजस्थान के मरुस्थल तक लाने की योजना बनी. कमाल की इंजीनियरिंग थी और राजस्थान नहर (इंदिरा गांधी की मौत के बाद इस नहर का नाम इंदिरा गांधी नहर कर दिया गया) का निर्माण तेज़ी से हो रहा था. तब तालाब के रूप में पानी को सहेजने की समझ रखने वाले अनुभवी लोगों ने सरकार से कहा कि गोचर भूमि (पालतू पशुओं का सार्वजनिक चारागाह) को अलग रखा जाए क्योंकि गोचर भूमि बंजर भूमि नहीं होती, साथ ही पशु और खेत को अलग करके नहीं देखा जा सकता. उन्होंने यह भी कहा कि नहर के रास्ते में यह भी देखा जाना चाहिए कि ज़मीन पानी को सोख क्यों नहीं रही.

लेकिन जैसा कि होता है, अनुभव पर यकीन डिग्री का अपमान है. गोचर भूमि को खत्म कर उसके ऊपर ही इस विशाल नहर का निर्माण किया गया. वर्तमान में हालात यह हैं कि नहर के किनारे कई जगह खेती पनप नहीं पा रही. और पेड़ जले हुए साफ नज़र आते हैं (रावतसर हनुमानगढ़, सूरतगढ़). हुआ ये कि जिन जगहों से नहर निकाली गई उनमें कई स्थानों पर ज़मीन के नीचे जिप्सम की चट्टाने थी जिससे पानी नीचे की ओर रिस नहीं पाया और जिप्सम के साथ रसायनिक क्रिया कर आसपास की ज़मीन और वनस्पति को पूरी तरह जला दिया. यह बताने का उद्देश्य इंदिरा गांधी नहर की आलोचना करना कतई नहीं है, इसमें कोई शक नहीं कि नहर ने राजस्थान के सुदूर क्षेत्रों का जीवन बदला है. लेकिन उस समय के महान प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यदि स्थानीय लोगों के सलाह पर ध्यान दे दिया होता तो हमें बंजर भूमि की नई परिभाषाएं नहीं तय करनी पड़ती. उसके बाद इंदिरा गांधी ने भी इस नहर से निकली फीडर नहरों के निर्माण में यही गलतियां दोहराई. नतीजतन राजस्थान में गोचर भूमि नाममात्र की रह गई. और राजस्थान का पशु टॉनिक मानी जाने वाली सिवान घास भी खत्म हो गई.

बहरहाल अब वर्तमान की बात करते हैं. तालियों की गड़गड़ाहट के बीच शीर्ष नेतृत्व ने यह घोषणा कर दी है कि देश में खेती का रकबा 2.1 करोड़ हेक्टेयर से बढ़ाकर 2.6 करोड़ हेक्टेयर किया जाएगा.


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सहज सवाल है, कैसे?

जवाब है – पहले उस ज़मीन को खोदा जाएगा, चूंकि वह बंजर है इसलिए ज़्यादा खोदना पड़ेगा, शायद कार्बन लेयर से भी नीचे, फिर भूमिगत जल से उसे हराभरा किया जाएगा. वैसे कितना भी गहरा खोद लें पानी मिलने की संभावना क्षीण है क्योंकि ज़मीन के नीचे पानी होता तो यह जगह बंजर ही क्यों होती. ज़्यादा संभावना वाला उपाय यह है कि किसी नदी से नहर लाकर इस बंजर भूमि को उपजाऊ बनाए जाए. लेकिन नदी, नहर हो या कुंआ पानी अकेले सफर नहीं करता. उसके साथ एक पूरा पर्यावरणीय चक्र होता है और उसकी अपनी एक संस्कृति होती है. जलवायु परिवर्तन, जैव विविधिता और भू-क्षरण जैसी विकराल समस्याओं को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक बहते पानी की संस्कृति (WATER WISDOM) समझ न आए.

अब तक सरकारें गंगा की संस्कृति को ही नहीं समझ सकीं तो किसी नहर की संस्कृति को क्या समझेंगी. गंगा एक उथली हुई नदी है और पूर्वी यूपी से लेकर बिहार, झारखंड, बंगाल तक तेज़ी से ज़मीन को काट रही है. यानी ज़मीन लगातार नदी का हिस्सा बन रही है, इसका कारण है फरक्का और उसके जैसे दूसरे बैराज और तटबंध. बैराज के कारण गाद आगे नहीं बढ़ पाती और थम जाती है जिससे नदी की गहराई कम होती है और पानी किनारों की तरफ भागता है और खेतों को लील लेता है. विडंबना देखिए जो गाद अब तक खेतों में नई जान फूंक देती थी वही गाद अब कटाव का कारण बन रही है. सरकारें जानती हैं कि बैराज से कटान बढ़ता है लेकिन मानती नहीं. नितिन गडकरी 11 नए बैराजों की योजना के साथ तैयार बैठे हैं. यह भी एक सच्चाई है कि बैराज तालाब या झील की तरह नहीं होते यानी उनके तट पर प्राकृतिक रूप से जंगल नहीं बनता. अन्यथा क्या कारण है कि जिस देश में कभी 30 हजार से ज्यादा बाघ टहलते थे वहां अब तीन हजार बाघों के लिए भी जगह कम होने का रोना रोया जा रहा है.

बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने की कोशिश ठीक है लेकिन एक नज़र उन कारणों पर भी डाली जानी चाहिए जिनकी वजह से उपजाऊ भूमि बंजर होती जा रही है. सरदार सरोवर के बैक वाटर वाले हिस्से ने कितनी ही उपजाऊ ज़मीन को लील लिया और जहां–जहां नहरें टूटी हैं वहां की ज़मीन लगातार दलदली होती जा रही है. बांध, बैक वाटर, नहर और दलदल यह एक लंबी चेन है जो देश के तकरीबन हर इलाके में देखी जा सकती है.


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भूमि को बंजर बनाने में तकरीबन हर प्रधानमंत्री ने अपना योगदान दिया है. राजीव गांधी ने देश का परिचय यूकेलिप्टस से कराया. वन महोत्सव के नाम पर लाखों–करोड़ों यूकेलिप्टस रोपे गए. इन पेड़ों ने इतना पानी सोखा कि आसपास की भूमि को बंजर ही बना दिया. जब तक इसकी गंभीरता समझ आई अधिकांश भारत भूमि यूकेलिप्टस से लहलहा रही थी. इसी तरह सभी प्रधानमंत्रियों ने गन्ने की खेती को हतोत्साहित करने के बजाय उसे वोटों के लिए बढ़ावा ही दिया. गन्ना वास्तव में दलदली इलाके में होने वाली फसल है. जिसमें पानी बहुत ज़्यादा लगता है. लेकिन महाराष्ट्र सहित जिन राज्यों में गन्ना सर्वाधिक उगाया जाता है वहां भूमिगत जल समाप्त हो चुका है. यहां तक कि उन बांधों में पानी नहीं जिन्हें सिर्फ गन्ना सींचने के लिए बनाया गया है.

60 के दशक में बिजली–पानी मंत्री केएल राव ने यह जानने के लिए कई समितियों का गठन किया कि गंगा–कावेरी को जोड़ा जा सकता है या नहीं. समितियों ने सीधे और तकनीकी भाषा में सिफारिश दी कि यह नहीं किया जाना चाहिए. लेकिन इसके चार दशक बाद उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नदी जोड़ो परियोजना पेश की. उन्हें लगा जब सरकारें सड़क बना कर उन्हें आपस में जोड़ सकती हैं तो नदी को क्यों नहीं. केन-बेतवा लिंक परियोजना नदी जोड़ने का पहला आधिकारिक उदाहरण है लेकिन इसका परिणाम जानने के लिए आपको इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं. बानगी देखिए– नर्मदा का पानी उज्जैन की क्षिप्रा तक पहुंचाने के लिए खान नदी का सहारा लिया गया. सिंहस्थ के दौरान पानी क्षिप्रा तक पहुंच भी गया लेकिन पानी पहुंचाने का खर्च इतना ज़्यादा था कि योजना ही बैठ गई. इसके पर्यावरणीय नुकसान का तो आकलन कराने से ही सरकार ने इंकार कर दिया.

कुछ ऐसा ही हाल चुनावी उदाहरण बनी साबरमती का है. जब चीन के राष्ट्रपति आते हैं या प्लेन को पानी में लैंड कराना होता है तब कच्छ की ओर जा रहा नर्मदा का पानी रोककर साबरमती में डाला जाता है. और साबरमती लबालब हो जाती है. इसके अलावा पुनर्जीवित की गई साबरमती को कोई दूसरा उपयोग नहीं है.

जिस ग्रेटर नोएडा में ज़मीन के डेज़र्टिफिकेशन की घोषणा की गई वह शहर ही खारे पानी की समस्या से जूझ रहा है और ग्राउंड वाटर की स्थिति चिंताजनक है. इस तथ्य को तो भूल ही जाइए कि मात्र आठ–दस साल पहले तक यहां शानदार खेती हुआ करती थी.


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प्रधानमंत्री मोदी ने सैकड़ों तालाबों को पुनर्जीवित करने का प्रण दोहराया है. लेकिन क्या इसकी शुरुआत दिल्ली से की जा सकती है. क्योंकि दिल्ली की ज़मीन तेज़ी से बंजर हो रही है. पड़ोसी राज्य हरियाणा अरावली को नंगा कर रहा है जिससे धूल और रेत भरी आंधियां दिल्ली में दस्तक दे रही हैं. यही कारण है कि दिल्ली में बारिश भी कम हो रही है और मिट्टी की नमी गायब हो रही है. मरुस्थलीकरण की चुनौती सीएससी यानी सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के आंकड़े से साफ नज़र आती है– पिछले साल सिर्फ अप्रैल और मई में करीब 50 धूल भरी आंधियां चलीं जिसमें तकरीबन 500 लोगों की जाने गई.

मेधा पाटकर की बिगड़ती हालत और सरदार सरोवर के विस्थापितों का बंजर होती ज़मीन से संबंध सत्ता समझने को तैयार नहीं. उनसे बात करने में शायद शर्म आती है या ईगो आड़े आता है, तो अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब ‘ का अध्ययन करना चाहिए ताकि समझ आ सके कि भारत भूमि में बंजर की जगह क्यों नहीं थी. अनुपम मिश्र अब हमारे बीच नहीं हैं आपके ईगो को भी कोई खतरा नहीं है.

(अभय मिश्रा लेखक और पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)

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