प्यू की हालिया सर्वे रिपोर्ट में धर्म के नाम पर भेदभाव को लेकर मुसलमानों के जो विचार सामने आए हैं वे इसके सबसे विवादास्पद निष्कर्षों के रूप में उभरे हैं. टिप्पणीकारों का एक वर्ग कहता है कि इस सर्वे में हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता के प्रचलित रूप और मुस्लिम मानस पर उसके असर को अच्छी तरह प्रस्तुत किया गया है. प्यू रिपोर्ट को मुस्लिम व्यक्तियों के अनुभवजनित विवरणों के बरक्स रखकर यह निराशावादी निष्कर्ष निकाला गया है कि भारत में मुसलमानों के लिए अब कुछ नहीं बचा रह गया है.
धार्मिक भेदभाव के बारे में कुछ अनुभवजनित विश्लेषण के साथ सर्वे की रिपोर्ट के निष्कर्षों के बीच तुलना बेहद भ्रामक है. सर्वे के निष्कर्ष मुस्लिम वजूद की एक बड़ी तस्वीर पेश करते हैं, जबकि कुछ अनुभव पर आधारित विश्लेषण सांप्रदायिकता से मुसलमानों की रोज-रोज की जटिल मुठभेड़ से हमारा परिचय कराती हैं. दोनों जायज हैं. इसलिए, धार्मिक भेदभाव के व्यक्ति केंद्रित प्रकरणों को लेकर जो मुस्लिम सोच है उसके व्यापक विश्लेषण को पढ़ना जरूरी है.
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निष्कर्ष क्या हैं
इस बात को रेखांकित करना महत्वपूर्ण है कि प्यू रिपोर्ट मुस्लिम धारणाओं का विस्तृत और विविध विवरण प्रस्तुत करती है. यह बताती है कि 24 फीसदी मुसलमानों की यही धारणा है कि भारत में उनके साथ बहुत भेदभाव किया जाता है.
जाहिर है, यह आंकड़ा सामान्य सोच को झटका देता है. मुस्लिम विरोधी विमर्श के, जिसे मीडिया का एक तबका प्रसारित करता है, समर्थन से चलने वाली आक्रामक हिंदुत्ववादी राजनीति के चलते हिंसा के कई मामले हो चुके हैं. वास्तव में, गऊपूजा के नाम पर बेकसूर मुसलमानों की लिंचिंग (घेरकर मार डालना) सामान्य बात मान ली गई है. भारतीय सार्वजनिक जीवन का कोई भी उत्सुक प्रेक्षक इस आंकड़े पर संदेह कर सकता है.
वैसे, यह रिपोर्ट इस निष्कर्ष को अंतिम जवाब के रूप में नहीं प्रस्तुत करती. इसमें मुसलमानों की इस कुल प्रतिक्रिया को क्षेत्रीय विविधता के मुताबिक प्रस्तुत करती है. यह क्षेत्रवार आकलन एक अलग ही तस्वीर पेश करता है.
उत्तर भारत के 35 फीसदी मुसलमानों का कहना है कि उन्हें पिछले एक साल में धर्म के आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ा है. उत्तर-पूर्व में भी इसी तरह की प्रतिक्रिया मिलती है. उस क्षेत्र के 31 फीसदी मुसलमानों ने कहा कि उनके साथ काफी भेदभाव किया जाता है.
देश के मध्य और पश्चिमी भागों में उनकी प्रतिक्रिया अप्रत्याशित है. इन क्षेत्रों को अतीत में काफी सांप्रदायिक हिंसा झेलनी पड़ी है और पिछले कुछ वर्षों में तो हालात और खराब हुए हैं. फिर भी इन राज्यों में मुसलमानों की इतनी तल्ख प्रतिक्रिया नहीं मिली. इसकी वजह क्या है?
धार्मिक भेदभाव के चार पहलू
मेरा मानना है कि रिपोर्ट के इन निष्कर्षों से आज देश में धर्म के नाम पर भेदभाव के चार पहलू उभरते हैं.
पहला यह कि मुस्लिम विरोधी हिंदुत्ववादी राजनीति उत्तर भारत केंद्रित मामला है. हालांकि इस राजनीति के अलग-अलग रूप देश के दूसरे हिस्सों में भी देखे जा सकते हैं. बाबरी मस्जिद विवाद, शाह बानो प्रकरण, लव जिहाद, गोरक्षा के उग्र आंदोलन उत्तर के हिंसक हिंदुत्ववाद को संदर्भगत विशेषता प्रदान करते हैं.
शायद इसी वजह से उत्तर भारत के मुसलमानों का बड़ा हिस्सा यह महसूस करता है कि उनके साथ धर्म के आधार पर काफी भेदभाव किया जाता है. पत्रकार मोहम्मद अली का हाल में प्रकाशित एक निबंध इस निष्कर्ष की पुष्टि करता है. यह पूरब और उत्तर-पूर्व के मामले में भी सच हो सकता है. ऐसा लगता है कि असम और पश्चिम बंगाल में भाजपा के उत्कर्ष और उत्तर-पूर्व में सीएए के खिलाफ आंदोलन ने भी मुस्लिम सोच को प्रभावित किया है.
दूसरे, यह क्षेत्रीय अंतर हमारे सार्वजनिक जीवन के एक गंभीर तथ्य को उजागर करता है. मुस्लिम विरोधी विमर्श को अब सामान्य मान लिया गया है. हमें यह याद रखना चाहिए कि महामारी के दौर में भी बेकसूर मुसलमानों की लिंचिंग या मस्जिदों और दूसरे मुस्लिम धर्मस्थलों पर निरंतर जारी हमले बहुआयामी मुस्लिम विरोधी विमर्श के हिंसक नतीजे हैं. यह विमर्श हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन गया है.
मुसलमानों पर सार्वजनिक तौर पर सांप्रदायिक फब्तियां कसना और सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ जहर उगलना अब असामान्य या अनुचित नहीं माना जाता. मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलने को जिस तरह व्यापक रूप से सामान्य बात माना जाने लगा है उसने भी मुस्लिम सोच और धारणाओं को प्रभावित किया है.
यह मध्य और पश्चिमी भारत में धार्मिक भेदभाव के सवाल पर मुसलमानों की प्रतिक्रिया की वजह का खुलासा करता है. ऐसा लगता है कि खासकर इन क्षेत्रों के मुसलमान अब ‘कटुवा’, ‘मुल्ला/मुल्ली’, ‘मियां’, ‘जिहादी’, ‘पाकिस्तानी’ जैसे संप्रदायिक कटाक्षों को ‘धार्मिक भेदभाव’ के रूप में नहीं लेते.
तीसरे, धार्मिक भेदभाव के विभिन्न पहलुओं के प्रति मुसलमानों की प्रतिक्रिया हिंसक हिंदू मौलिकतावाद की विफलता की ओर भी इशारा करती है. लिंचिंग और पॉप्युलर मीडिया (व्हाट्सएप, फेसबुक, ट्वीटर, यूट्यूब आदि) के जरिए इन घटनाओं के व्यापक प्रसार के पीछे दो भावनाएं काम करती हैं.
इसका एक मकसद तो हिंदुत्व के नाम पर मुस्लिम विरोधी ‘योद्धाओं’ (लंपट तत्वों) के समुदाय को एकजुट करना होता है, इसके अलावा इसका बड़ा मकसद मुसलमानों के मन में दहशत और खौफ पैदा करना होता है. प्यू का सर्वे बताता है कि हिंसक हिंदुत्ववादी राजनीति मुस्लिम मानस में खौफ पैदा करने में अभी सफल नहीं हो पाई है.
इस तरह हम धार्मिक भेदभाव के चौथे पहलू पर आते हैं. ऐसा लगता है कि गरीब, हाशिये पर पड़े, बेरोजगार मुसलमानों ने कबूल कर लिया है कि मुस्लिम विरोधी हिंदुत्ववाद भारतीय सार्वजनिक जीवन की एक प्रमुख रवायत बन गई है. इस एहसास ने उन्हें अपना वजूद बचाने की विभिन्न रणनीतियां बनाने को प्रोत्साहित किया है.
उनके पास अपने ‘मानवाधिकार’ जैसी चीज की रक्षा के लिए न्यू यॉर्क, वाशिंगटन, लंदन, विएना या बर्लिन में शरण लेने की कोई गुंजाइश नहीं है. न ही वे एक प्रताड़ित समुदाय की लांछित पहचान के साथ जी सकते हैं. इसलिए वे अपनी मुस्लिम पहचान को छोड़े बिना अपने आसपास के माहौल में ही जीने को मजबूर हैं.
‘दिप्रिंट’ की रिपोर्टर फातिमा खान ने मुस्लिम आकांक्षाओं पर जो पठनीय रिपोर्ट लिखी है वह भी इस तथ्य की पुष्टि करती है. व्यापक फील्डवर्क के आधार पर उनका कहना है कि देश के विभिन्न हिस्सों के मुसलमानों में राजनीतिक व्यवस्था के साथ रचनात्मक तालमेल बनाकर चलने की प्रबल भावना मौजूद है.
प्यू सर्वे के निष्कर्ष मुसलमानों के इस संकल्प की पुष्टि करते हैं.
(प्यू सर्वे भारत में समकालीन धार्मिक जीवन की विस्तृत और गहरी पड़ताल करता है. यह रिपोर्ट भारत के 29,999 वयस्कों (जिनमें 22,975 ने खुद को हिंदू बताया, 3,336 ने खुद को मुसलमान, 1,782 ने सिख, 1,011 ने ईसाई, 719 ने बौद्ध, 109 ने जैन और 67 ने खुद को दूसरे धर्म या किसी भी धर्म से न जुड़ा हुआ बताया) से बातचीत के आधार पर तैयार की गई है. पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले इस सर्वे के लिए लोगों से आमने-सामने बातचीत नवंबर 2019 से मार्च 2020 के बीच की गई. प्रश्नावली पहले अंग्रेजी में तैयार की गई और फिर उसका 16 भाषाओं में अनुवाद किया गया जिसकी जांच क्षेत्रीय बोलियों के जानकार पेशेवर भाषाविदों ने स्वतंत्र रूप से की. पूरी रिपोर्ट के लिए यहां क्लिक करें).
(यह लेख भारत में समकालीन धार्मिक जीवन के ताजा प्यू सर्वे पर प्रकाशित लेखों की सीरीज़ की एक कड़ी है. सभी लेख यहां पढ़ें)
(हिलाल अहमद सीएसडीएस में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वह इस अध्ययन के एक्सपर्ट एडवाइजर में एक थे. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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