एक सवाल जो हमारे पेशे में आने के इच्छुक लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं, वो है— ‘स्टैंड-अप कॉमेडियन बनने के लिए क्या कुछ चाहिए?’ जवाब है: हाज़िरजवाबी, कदमों में रफ्तार और स्पीड डायल पर मौजूद वकील. एग्रीकल्चर (कृषि) की भूमि भारत आज एग्रो-कल्चर (हिंसा की संस्कृति) का देश बन गया है, जहां असंतोष का इजहार आमतौर पर संपत्ति को नुकसान पहुंचाकर या किसी को पीटकर किया जाता है.
राजनीति से प्रेरित एजेंडों, निगरानी दस्तों, स्वयंभू पहरुओं के इस असहनशील दौर में जब विवेक की ही कोई जगह नहीं हो, तो हास्य की तो बात ही छोड़ दें. ऐसा कोई भी विषय नहीं है जिस पर आप मजाक कर सकें, ऐसा कोई भी चुटकुला नहीं जिससे किसी न किसी की भावनाओं को ठेस न पहुंचे, जिसके पास इंटरनेटयुक्त डिवाइस और खाली समय हो. मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा? आइए आजमा कर देखते हैं.
कॉमेडियन: एक बार एक हाथी और चींटी…
ट्रोल: मोटेपन का मज़ाक उड़ाने की तुमने हिम्मत कैसे की?
कॉमेडियन: नॉक! नॉक!
ट्रोल: कहां गई तुम्हारी संवेदनाएं, लाखों बेघर लोग छतों और दरवाज़ों के बिना दिन गुज़ार रहे हैं और तुम्हें दरवाज़े पर नॉक करने वाले चुटकुलों की पड़ी है.
हम ऐसे वक्त में हैं जब स्टेज पर किसी कॉमेडियन को अस्थमा का दौरा पड़ जाए तो उसे ‘गंदी सेक्सी आवाज़ें निकालने’ के लिए लताड़ लगाई जा सकती है.
निश्चय ही, ऐसे चुटकुले भी सुनाए जाते हैं जो मुझे पसंद नहीं. ऐसा चुटकुला भी जिसमें आंखें घुमाते हुए ‘किल मी’ कहना पड़ता है. पर ‘मी’ को मारो, कॉमेडियन को नहीं. एक रूपक का उपयोग मैंने बंद ही कर दिया है क्योंकि मौजूदा माहौल में उसे अक्षरश: लिए जाने की संभावना है.
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ट्रोंबियों का दोषपूर्ण एलगोरिद्म
मुझे लगता है कि इन ट्रोंबियों (ट्रोल-ज़ोम्बी) के मुख्य प्रोसेसर में कुछ ऐसे कीवर्ड डाल दिए गए हैं जिनपर कि उनको नज़र रखनी है और वे किसी दोषपूर्ण एल्गोरिद्म की तरह बस उन पर ध्यान देते हैं, किसी संदर्भ में जाए बगैर. वास्तव में ब्रेनवॉश किए गए हमारी संस्कृति के इन ‘संरक्षकों’ को बाहर रखने के लिए कैप्चा जैसी कोई व्यवस्था होनी चाहिए. ‘क्या आप एक हास्यहीन व्यक्ति हैं? यदि नहीं, तो चित्र में उन सभी चीजों पर क्लिक करें जिन्हें आप अप्रिय नहीं पाते’. ये स्टार्टअप लायक आइडिया है!
उनमें से कुछ कार के भीतर बैठकर अपने फोन के कैमरों के सामने अपना गुस्सा उगलते हैं क्योंकि शायद अपने परिजनों को अपनी अ-संस्कारी बातें नहीं सुना सकते. कई अन्य नकली डीपी या बिना डीपी के, और संदिग्ध रूप से बहुत कम फॉलोअर्स के साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर हैं.
ऐसा लगता है कि बुद्धि और कल्पना दोनों से ही कमज़ोर इन ट्रोंबियों के पास कोई आधिकारिक ट्रोल गाइड है, जिनसे शब्द उठाकर वे लोगों की टाइमलाइन पर डालते हैं. ये बातें पड़ोसी देश में जाने के सुझाव से लेकर, गालियों में आपके वंशवृक्ष का इस्तेमाल करने, तिरंगे में आपकी निष्ठा पर सवाल उठाने और आपकी परवरिश में खामियां— क्योंकि आपने अपने मां-बाप से शायद ‘संस्कार’ नहीं सीखे— गिनाने या आपको उन विषयों की सूची सौंपने से संबंधित होती हैं कि जिनके बारे में वे आपको मजाक ‘करने देंगे’. उनके दैनिक कार्यों की सूची में आपकी टाइमलाइन पर अपनी गाइडबुक से ली गई इन घटिया बातों को लिखना और फिर खुद के ट्वीट को पसंद करना शामिल हैं.
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छुपे असहिष्णु
मैं चाहे कितना भी मानना चाहूं कि हास्यबोध का अभाव सिर्फ ट्रोंबियों की बीमारी है लेकिन संभवतः ये पूरा सच नहीं है. मौजूदा माहौल और गोबर की निरंतर आपूर्ति के कारण निष्क्रिय छुपे असहिष्णु भी खुलकर बाहर आ गए हैं. हाशिए पर खड़े इन लोगों ने हमेशा खुद को बहुत गंभीरता से लिया है लेकिन मौजूदा माहौल के असर में अपने समुदाय के अन्य सदस्यों को धीरे-धीरे बाहर निकलता देख अब वे सामने आए हैं. वे ट्रोंबी प्रायोजित नफरत को अपना समर्थन दे रहे हैं, भारत के सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रम पर किए जाने वाले मजाक से आहत हो रहे हैं. संस्कृति और मूल्यों के क्षरण और अत्यधिक पश्चिमीकरण से दुखी, इन लोगों के जीवनवृत अक्सर उन्हें किसी न किसी पश्चिमी राष्ट्र का निवासी बताते हैं.
निश्चित रूप से, क्या अस्वीकार्य है और क्या अब अस्वीकार्य नहीं रह गया, इससे संबंधित मान्यताएं इतनी तेजी से बदल रही हैं कि वर्षों की कंडीशनिंग के कारण हम लोगों का उतनी तेजी से बदल पाना आसान नहीं है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि कुछ विषयों पर संवेदनशीलता अच्छे के लिए ही है और लंबे समय से उनका इंतजार था. लेकिन, उनमें से कुछ को इतनी गंभीरता से लिया गया कि स्थिति हास्यास्पद हो गई है. कितनी बार हमारे दादा-दादी सबके सामने बिल्कुल अमान्य बातें कहते हैं और असहज होने के बावजूद हम ये दिखावा करते हैं कि वे आपके इर्दगिर्द के कुछेक बुजुर्गों के विचार मात्र हैं? या फिर हमारे माता-पिता की भी ऐसी बातें? बात संदर्भ की है.
सच्चाई चुभती है
ऐसा लगता है कि आहत होना राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय शगल बन गया है. तथ्यों पर आधारित संतुलित राय बनाने में समय खपाने की तुलना में आक्रोशित होना ज़्यादा आसान होता है. हास्य समाज को आईना दिखाने का एक माध्यम माना जाता है लेकिन आज उसे हिंसा का सामना करना पड़ रहा है. मैं समझती हूं ऐसा इसलिए है कि आईने में जो दिख रहा है लोग उसे पसंद नहीं कर रहे, यानि खुद को. मुझे पूरा यकीन है कि हर अच्छे चुटकुले में सच्चाई के कुछ कतरे होते हैं. अगर आपको आहत होना है, तो उस चुटकुले में मौजूद सच्चाई से आहत होइए, न कि चुटकुले से. कंटेंट से ज़्यादा उद्देश्य पर ध्यान दें.
काश, आंतरिक-शांति की तलाश या चेतना की उच्च अवस्था से जुड़ने की कोशिशों के समान ही आहत होने की अवस्था की प्राप्ति के लिए वर्षों तक ध्यान क्रिया करनी पड़ती. तब शायद आहत होने वालों की इतनी संख्या नहीं होती.
(नीति पाल्टा एक कॉमेडियन और पटकथा लेखिका हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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