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Tuesday, 5 November, 2024
होममत-विमतचीन और पाकिस्तान की फौजों की तरह भारतीय सेना का राजनीतिकरण तो नहीं हुआ है मगर उसके बीज डाल दिए गए हैं

चीन और पाकिस्तान की फौजों की तरह भारतीय सेना का राजनीतिकरण तो नहीं हुआ है मगर उसके बीज डाल दिए गए हैं

जरूरत इस बात की है कि मोदी सरकार और भारतीय सेना आत्मनिरीक्षण करें और इस चलन को रोकें ताकि फिर कोई संकट न पैदा हो

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भारतीय सेना निर्वाचित केंद्र सरकार के निर्देश पर संविधान के मुताबिक काम करती है और माना जाता है कि वह शासक दल की विचारधारा और राजनीतिक फैसलों से अछूती रहेगी. इसलिए पूर्वी सेना कमांडर लेफ़्टिनेंट जनरल अनिल चौहान ने हाल में जो राजनीतिक बयान दिया वह एक असामान्य बात ही मानी जाएगी.

ले.जन. चौहान ने कोलकाता में एक सार्वजनिक मंच पर यह बयान दिया— ‘मौजूदा (नरेंद्र मोदी) सरकार वे तमाम कड़े फैसले करना चाहती है, जो लंबे समय से अटके पड़े हैं… नागरिकता संशोधन विधेयक दो उत्तर-पूर्वी राज्यों की आपत्ति के बावजूद पारित किया गया. अब इसके बाद यह अपेक्षा की जा सकती है कि वामपंथी उग्रवाद के मामले में कुछ कड़े फैसले किए जाएंगे.’

उसी दिन उनके कमांड में सेना नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में हो रहे आंदोलन से निबटने में असम और त्रिपुरा के प्रशासनों की मदद कर रही थी. कानून-व्यवस्था को संभालने के लिए सेना को बुलाना किसी भी लोकतन्त्र के लिए एक खतरनाक चलन है. ले.जन. चौहान ने उपरोक्त बयान देकर सेना की निष्पक्षता को संदेहास्पद बना दिया है, जिसे भारतीय सेना आज़ादी के बाद के 72 वर्षों से बड़े जतन से बनाए रखा था. गनीमत है कि कुछ फ्लैग मार्च करवाने के अलावा सेना का कोई और उपयोग नहीं किया गया.

लेकिन यह कोई एक घटना नहीं है. ऐसा लगता है कि 2019 एक ऐसा साल रहा है जिसमें भारतीय सेना का बालाकोट से लेकर कश्मीर और सीएए तक राजनीतिक वजहों से इस्तेमाल किया गया.

केंद्र में सेना

पिछले करीब साढ़े पांच साल में भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में बहुसंख्यकवादी और उग्र राष्ट्रवादी तेवर अपनाया है और इस क्रम में सेना को भी शामिल किया है और उसे देवतातुल्य बना दिया है. सारे आलोचकों, सुधारवादियों, विरोधियों, और एक बड़ी आबादी को बाहरी दुश्मन—पाकिस्तान—की पहचान से जोड़ दिया गया है. मोदी सरकार और इसके अंतिम विकल्प, सेना के बीच का अंतर धुंधला हो गया है, खासकर राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर जवाबदेही के मामले में.

हमने इस सरकार को नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पाकिस्तान के खिलाफ आक्रामक सैन्य रणनीति अपनाते देखा है— सर्जिकल स्ट्राइक और हवाई हमलों के रूप में. इसी तरह की आक्रामक रणनीति अलगाववाद के मामले में भी अपनाई गई है, खासकर जम्मू-कश्मीर में. अनुच्छेद 370 को 5 अगस्त को रद्द किया गया और अब भूतपूर्व हो चुके उस राज्य का विशेष दर्जा खत्म कर दिया गया. इसके बाद से वहां अनिश्चित काल के लिए सुरक्षा के नाम पर तालाबंदी जैसी कर दी गई है.


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अतीत में, 2016 के जन आंदोलन में और आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों का निहत्थे लोगों द्वारा विरोध के मामलों में देखा गया कि सेना आतंकवादियों और नागरिकों में कोई भेद नहीं कर रही थी. चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ (‘सीओएएस’) जनता के साथ सहानुभूति रखते हुए कार्रवाई करने की सेना की पुरानी नीति छोडने का खुला समर्थन करते हुए देखे गए.

2019 में, बालाकोट हवाई हमले और उसके अगले दिन हुई हवाई झड़पों के बाद, भाजपा ने लोकसभा चुनाव के मद्देनजर राष्ट्रीय सुरक्षा को मुद्दा बनाते हुए जो चुनाव अभियान चलाया उसमें सेना को केंद्र में रखा. इस अभियान ने सेना से सेवानिवृत्त 150 अधिकारियों को मजबूर कर दिया कि वे सेना के राजनीतिकरण के विरोध में राष्ट्रपति को अर्जी भेजें.

लहर में बहते सेना अधिकारी

इस साल कुछ आला सेना अधिकारियों को राजनीतिक किस्म के बयान देते भी सुना गया. यह चलन 2017 से ही शुरू हो गया था. इन लोगों ने बाहरी और आंतरिक खतरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया और अलगाववाद विरोधी कार्रवाइयों को तब बढ़ावा दिया, जब चुनाव होने वाले था या जब मोदी सरकार को राजनीतिक समस्या का सामना करना पड़ा.

भारतीय वायुसेना (‘आइएएफ’) के बड़े अधिकारियों ने राफेल जेट विमानों के लिए फ्रांस की दासाल्ट कंपनी से मोदी सरकार के हुए सौदे का खुल कर समर्थन किया, जो कि उनका काम नहीं था. उनका काम विमान का मूल्यांकन करना, उसके तकनीकी तथा हथियारों के पैकेज और दीर्घकालिक रखरखाव एवं आधुनिकीकरण की शर्तों का का आकलन करना भर था. लेकिन उन्होंने जो किया वह उस सौदे के वित्तीय और ऑफसेट करार का समर्थन था, जो कि राजनीतिक रंग लिये था. इसने सेना की निष्पक्षता को लेकर गंभीर संदेह पैदा कर दिया.

क्या सेना का राजनीतिकरण हो गया है?

राजनीतिकरण का मतलब यह है कि सेना किसी राजनीतिक दल की विचारधारा को अपना कर उसका एक औज़ार बन गई है. उदाहरण के लिए चीन की सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (‘पीएलए’) का नाम लिया जा सकता है जिसका राजनीतिकरण हो चुका है. राजनीतिकरण का दूसरा रूप वह है जिसमें सेना देश की राजनीति पर हावी हो जाती है. इसका उदाहरण पाकिस्तान है, जहां सरकार पर सेना का कब्जा है.

भारत के लिए राहत की बात यह है कि इक्कदुक्का गड़बड़ियों और सेवा शर्तों के उल्लंघन को छोड़ भारतीय सेना की पारंपरिक अराजनीतिक नैतिकता अभी भी स्थिर है, बावजूद इसके कि राजनीतिक माहौल बदल गया है और कुछ बड़े अधिकारी अनैतिक किस्म के बयान दे रहे हैं. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि सेना और इसकी कार्रवाइयों का चुनावी फायदा उठाने के लिए राजनीतिक दोहन किया गया है.

यह कोई नई बात नहीं है कि अवसरवादी बड़े सेना अधिकारी राजनीतिक सत्तातंत्र से नज़दीकियां बनाते रहे हैं. यह चलन हम 1950 और 1960 के दशकों में देख चुके हैं और इसकी कीमत 1962 में चुका चुके हैं. इसके बाद सेना और सरकार ने सुधार के कदम उठाए. बहकने वाले अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की गई. एअर मार्शल मंजीत सिंह सेखों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री को पत्र लिखा कि वे उन्हें पश्चिमी एअर कमांड के एअर अफसर इन चीफ बनने में मदद करें, क्योंकि इसके बाद वे आसानी से अगला वायुसेना प्रमुख बन सकते थे. उन्हें 19 मार्च 2002 को इस्तीफा देने पर मजबूर किया गया. कई दूसरों को चेतावनी दी गई.


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बड़े अधिकारी अपना हित आगे बढ़ाने के लिए राजनीतिक नेताओं की मदद लेने के लालच से बाज आएं, इसके लिए अधिकतर सरकारों ने सर्विस चीफ और आर्मी कमांडर की नियुक्तियों में वरिष्ठता के सिद्धांत का ही पालन किया है. लेकिन जनरल बिपिन रावत को दो आर्मी कमांडरों के ऊपर लाकर सेनाध्यक्ष के पद पर बिठाने में सरकार ने इस सिद्धान्त को भुला दिया और यही काम नौसेना प्रमुख एडमिरल करमबीर सिंह की नियुक्ति के मामले में किया. बेशक सरकार का विशेषाधिकार है कि वह योग्यता को तरजीह दे, मगर पारदर्शी प्रक्रिया के बिना और हमारी राजनीतिक संस्कृति तथा पिछले अनुभवों के मद्देनजर यह चलन एक राजनीतिक पदानुक्रम को स्थापित करता है.

यही नहीं, राजनीतिक किस्म के बयानों के लिए दोषी बड़े अधिकारियों को सावधान करने की जगह उनकी प्रशंसा की गई और उनका बचाव किया गया. वैसे, व्यापक राजनीतिक दोहन के बावजूद भारतीय सेना का सचमुच राजनीतिकरण नहीं हुआ है लेकिन अपना स्वार्थ साधने में लगी अनैतिक जमात इसी को अंजाम दे सकती है. जरूरत इस बात की है कि मोदी सरकार और फौज आत्मनिरीक्षण करें और इस चलन को रोकें ताकि फिर कोई संकट न पैदा हो.

(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिट.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिबुनल के सदस्य रहे. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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