चीन ने भारतीय सीमा पर 1959 की अपनी दावा रेखा को मजबूत करने के लिए 2020 में जो उपक्रम किए और उनके फलस्वरूप हुए टकराव में दोनों देशों ने सीमा पर सेनाओं का जो भारी जमावड़ा किया उसके बाद मैंने दो लेख लिखे थे. इन लेखों में अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी की मदद से आक्रामक कार्रवाई कर रही चीनी सेना ‘पीपुल्स लिबरेशन आर्मी’ (पीएलए) को रोकने में भारतीय सेना की कमजोरियों को रेखांकित किया था. पिछले चार सालों में इस काबिलियत खासकर ड्रोनों में काफी प्रगति हुई है.
शायद ही कोई ऐसा दिन बीतता होगा जब सेनाओं में तरह-तरह के ड्रोनों को शामिल किए जाने की खबर न आती हो. अडाणी, टाटा, रिलायंस कॉर्पोरेट समूहों समेत बड़ी संख्या में छोटे-मझोले उपक्रम और स्टार्ट-अप तक सेना के लिए ड्रोन बनाने की होड़ में शामिल हो गए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि भारत 2030 तक ड्रोन उत्पादन के मामले में ग्लोबल हब बन सकता है. कुछ अनुमानों के अनुसार, 2,000 से लेकर 2,500 ड्रोन सेना में शामिल किए जा चुके हैं और काफी और लाइन में हैं. ड्रोन उनके कल-पुर्जों के उत्पादन और रखरखाव के करारों के मदों में करीब 3,000 से लेकर 3,500 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं. यह सब सेनाओं को दिए गए आपात तथा विशेष वित्तीय अधिकारों के तहत किया गया है.
तो क्या हमारी सेना ने कम-से-कम मानव रहित हवाई वाहन (यूएवी) के मामले में पीएलए की बराबरी कर ली है? संख्या के मामले में अंतर को तो कम कर ही लिया गया है, लेकिन सेना की ताकत बढ़ाने की व्यवस्था के लिहाज़ से हम अभी उससे मीलों पीछे हैं.
आत्मनिर्भरता और ड्रोन
रक्षा मंत्रालय और सेनाओं ने सभी तरह के यूएवी को आयात की नकारात्मक सूची में शामिल करके अच्छा ही किया है. इसका अर्थ यह हुआ कि यूएवी का उत्पादन देश के अंदर ही ‘मेक इन इंडिया’ पहल के तहत किया जाएगा. वैसे, ‘एमक्यू-9बी सी/स्काइ गार्डियन’ जैसे यूएवी को इस सूची से अलग रखा जाएगा. लेकिन, भारतीय ड्रोन उद्योग जल्दी ही इस सीमा को भी पार कर लेगा. अडाणी डिफेंस सिस्टम्स थलसेना और नौसेना से ठेके हासिल करने के बाद मल्टी पे-लोड वाले मझोली ऊंचाई पर उड़ने वाले ‘हर्मीस 900’, या ‘दृष्टि-10’ यूएवी का उत्पादन कर रही है और मजा यह कि यह कंपनी इन्हें इज़रायल को वापस निर्यात कर रही है.
सेनाओं ने ज़रूरतों की फेहरिस्त जारी कर दी है. इसने निजी उद्योगों को सक्रिय कर दिया है और वे विदेशी पार्टनरों को बुलाने में तेज़ी भी दिखा रहे हैं. ‘डीआरडीओ’ अपनी टेक्नोलॉजी हस्तांतरित करके निजी क्षेत्र के साथ सहयोग कर रहा है. रक्षा मंत्रालय की पहल ‘इनोवेशन फॉर डिफेंस एक्सिलेंस’ (आइडेक्स) के लाभ भी हासिल होने लगे हैं.
अनुसंधान एवं विकास (आरएंडडी) के मामले में सरकारी और निजी क्षेत्र के निवेश के बिना विश्व स्तरीय ड्रोनों का उत्पादन नहीं किया जा सकता. केंद्र सरकार इनोवेशन फॉर डिफेंस एक्सिलेंस, प्रतिरक्षा अधिग्रहण नीति की ‘मेक’ प्रक्रिया, और आर्मी डिज़ाइन ब्यूरो जैसी व्यवस्थाओं का ‘आर एंड डी’ फंड के लिए इस्तेमाल कर सकती है. हर एक प्रोजेक्ट के लिए सेना को अपने मिशन की स्पष्ट घोषणा करनी चाहिए.
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जनरल स्टाफ क्वालिटेटिव रिक्वायरमेंट
अब तक मुख्यतः सामान्य मकसद वाले ड्रोन सेना के इस्तेमाल में लिए गए हैं, जो सेना की वेपन सिस्टम जितनी मजबूत/भरोसेमंद नहीं हैं. सेना के ड्रोन सभी मौसम में दिन और रात में भी काम करने वाले होने चाहिए जो अपेक्षित ऊंचाई तक उड़ान भर सकें और उनमें जवाबी कार्रवाई करने वाली इलेक्ट्रोनिक व्यवस्था हो और उनका ‘लो सिग्नेचर’ हो यानी उनकी पहचान मुश्किल हो.
‘जनरल स्टाफ क्वालिटेटिव रिक्वायर्मेंट (जीएसक्यूआर) वो आधार है जिसके मुताबिक, ड्रोन काम करते हैं. वज़न, रेंज, उड़ान भरने का तरीका, उड़ान की ऊंचाई की सीमा और मजबूती के अलावा ड्रोन का ‘पे-लोड’ (वजन ढोने की क्षमता) भी महत्व रखता है. ड्रोन पर लगे कैमरे से उसकी तस्वीरों की स्पष्टता, रेंज, दिन/रात/ थर्मल पहचान की क्षमता तय होती है. टैंकों और दूसरे बख्तरबंद वाहनों के लिए उच्च विस्फोटक क्षमता वाले टैंक-रोधी वारहेड (High Explosive Anti Tank) की ज़रूरत होती है. खरीदे गए 20 फीसदी ड्रोन हथियारबंद होते हैं, लेकिन मेरे हिसाब से किसी पर ‘High Explosive Anti Tank’ वारहेड नहीं लगा है.
सेना द्वारा खरीदे गए 95 फीसदी ड्रोनों में जवाबी कार्रवाई करने वाली इलेक्ट्रोनिक किट नहीं लगी है. ये ड्रोन आधुनिक युद्ध में डट नहीं पाएंगे या नाकाम कर दिए जाएंगे. इस समस्या का हम एलएसी के आसपास सामना कर रहे हैं. ज़रूरत इस बात की है कि सेना विभिन्न तरह के ड्रोनों के लिए ‘जीएसक्यूआर’ का मोटामोटी निर्धारण करे ताकि कमांड क्षेत्र की ज़रूरत और कम लागत वाली खोज के मुताबिक, लचीला रुख अपना सके.
तेज़ी से खरीद
फिलहाल सभी सामरिक ड्रोन आर्मी कमांडरों के विशेष वित्तीय अधिकारों और वाइस चीफ चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ (वीसीओएएस) के आपात वित्तीय अधिकारों के तहत खरीदे जा रहे हैं. शीघ्र अधिग्रहण के लिए यह तेज़ प्रक्रिया उपयुक्त है और इसका लाभ उठाया गया है, लेकिन इसके चलते मानकों में गिरावट, कीमत में अंतर, भंडार में वृद्धि, रखरखाव के महंगे करार, रातोरात उगी कंपनियों द्वारा शोषण आदि के मामले होते हैं.
लंबी रेंज वाले सामरिक और रणनीतिक उपयोग के हथियारबंद या बिना हथियार वाले ड्रोनों की केंद्रीय खरीद ‘डिफेंस प्रोक्योरमेंट’ या ‘वीसीओएएस’ के आपात अधिकारों के तहत करना उपयुक्त होगा. युद्ध में नये प्रयोग के लिए कम रेंज वाले ड्रोन और किट्स की खरीद आर्मी कमांडरों के विशेष वित्तीय अधिकारों के तहत जारी रखी जा सकती है. गुणवत्ता और मजबूती से समझौता करते हुए सबसे नीची बोली लगाने वाले को चुनने की सरकारी नीति की समीक्षा होनी चाहिए.
संगठन
सेना में रणनीतिक या ऑपरेशन के मकसद पूरे करने वाले हेरोन, हर्मीस और नये एमक्यू-9बी स्काई गार्डियन ड्रोन का उपयोग आर्मी एविएशन कोर कर रहा है. भारतीय वायुसेना और नौसेना में पूरी संभावना है कि विशेषज्ञ संगठन और कर्मी हैं जो मिशनों के रणनीतिक तथा ऑपरेशन संबंधी ज़रूरतों के हिसाब से ड्रोनों का प्रयोग कर रहे हैं. सामरिक उपयोग दोहरी भूमिका निभाने वाले सैनिक करते हैं. यह कामचलाऊ व्यवस्था ज़्यादातर मजबूरी में लागू की जाती है जब जारी ऑपरेशन के दौरान टेक्नोलॉजी की कमी की तुरंत भरपाई की कोशिश की जाती है.
अधिकतम उपयोग और नियंत्रण के लिए देर-सवेर, विशेषज्ञता हासिल कर चुकी सब-यूनिटों और यूनिटों के गठन की ज़रूरत पड़ेगी. पिछले दो साल से लड़ रहे यूक्रेन ने दोहरी भूमिका वाले सैनिकों के साथ ड्रोनों का भरपूर और सफल इस्तेमाल किया है और अब उसने सभी स्तर पर ड्रोनों का उपयोग करने वाले स्पेशलिस्ट कोर का गठन किया है. इनमें करीबी युद्ध में इस्तेमाल होने वाले बहुत कम रेंज वाले ड्रोन शामिल नहीं हैं. अधिकतर आधुनिक सेनाओं में यूनिट के स्तर पर, संयुक्त आर्म्स ब्रिगेड, डिवीजन या एकीकृत बैटल ग्रुप के स्तर पर ड्रोन सब-यूनिट हैं जो विशेष रेंज वाले ड्रोनों का संचालन करती हैं. दोहरी भूमिका वाले सैनिक काफी कम रेंज वाले युद्धक ड्रोनों का लगभग वेपन सिस्टम की तरह इस्तेमाल करते हैं.
कमांड और कंट्रोल
सेना की यूनिटें सभी सामरिक ड्रोनों का फिलहाल अपनी ज़रूरत के हिसाब से एकल रूप में इस्तेमाल कर रही हैं. स्थिति के बारे में सजगता और सूचना का प्रवाह स्टाफ के कई चरणों वाले चैनलों के जरिए होता है. ‘आर्मी इन्फोर्मेशन ऐंड डिसीजन सपोर्ट सिस्टम’ (एआइडीएसएस) की सख्त ज़रूरत है जिसके साथ सब-सिस्टम्स के लिए विभिन्न स्तर पर इंटरफेस लागू किया जाए जो ऑपरेशन और मैनेजमेंट के स्तर की इन्फोर्मेशन सिस्टम्स का एकीकरण करे. फिलहाल इस तरह का सिस्टम बनाने काम प्रगति पर है. ‘एआइडीएसएस’ के बिना ड्रोनों की पूरी क्षमता का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. आदर्श स्थिति तो यह होगी कि ड्रोनों के सामरिक उपयोग के लिए अलग सब-सिस्टम तैयार किया जाए.
स्वायत्त और तेज़ ड्रोन जब ज्यादा संख्या में सक्रिय हो जाएंगे तब दुश्मन की इकाइयों की तस्वीर, ध्वनि, इलेक्ट्रोनिक तथा थर्मल पहचानों को जमा करने की ज़रूरत पड़ेगी. सेना को भी अपनी मशीनों को सुधारने के वास्ते एआई एल्गोरिद्म तैयार करने के लिए संभावित युद्धक्षेत्र के भौगोलिक तथा मौसम संबंधी डेटा की ज़रूरत पड़ेगी. इसके लिए अत्याधुनिक कंप्यूटर चाहिए, लेकिन इस मोर्चे पर अब तक कोई काम नहीं हुआ है.
विभिन्न स्तरों पर ड्रोन के इस्तेमाल में काफी दोहराव हुए हैं. करीबी लड़ाई, सामरिक तथा ऑपरेशन या रणनीतिक स्तर के ड्रोनों के ऑपरेशन की सीमाएं स्पष्ट होनी चाहिए. आपस में ही टक्कर से बचने के लिए ‘दोस्त, कि दुश्मन’ की पहचान वाली ‘आईएफएफ’ सिस्टम का ड्रोनों, हेलिकॉप्टर और विमानों के लिहाज़ से मानकीकरण किया जाना चाहिए.
ऑपरेशन की अवधारणा
ड्रोनों के प्रयोग के बारे में फिलहाल जो अस्पष्टता है वह ड्रोनों की क्षमता और उनसे लाभ लेने के तरीकों के बारे में अधूरी जानकारी की वजह से है. ड्रोन अब तक के हिसाब से युद्धक्षेत्र पर शयाद सबसे बहुपयोगी ‘फोर्स मल्टीप्लायर’ है. वह 24 घंटे टोह लेने, लक्ष्य तय करने और सटीक निशाना लगाने की सुविधा उपलब्ध कराता है.
ड्रोनों का इस्तेमाल सभी ऑपरेशनों में किया जा सकता है चाहे वह सामरिक पहल हो या निगरानी/टोह लेने का मामला हो, या हथियारों की संयुक्त फायरिंग की योजना या युद्ध. मिशन की जिम्मेदारियां साफ-साफ सौंपी जानी चाहिए. इस मामले में पूर्वी लद्दाख में चीनी सेना के जमावड़े और घुसपैठ का पता लागने में विफलता को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है. 14वीं कोर के पास हेरोन ड्रोन थे, जो एलएसी के पार 100 किमी तक नज़र रख सकते थे. सड़कें, पीएलए के फील्ड अभ्यास के इलाके, जमावड़े के संभावित इलाके और घुसपैठ के संभावित स्थानों की पूरी जानकारी थी, लेकिन मिशन की जिम्मेवारी शायद इन इलाकों पर टोही नजर रखने के बदले मूल निगरानी करने की दी गई.
इसके अलावा, जम्मू-कश्मीर में सभी सामरिक कार्रवाई/ सड़कों पर आवाजाही और ऑपरेशनों पर ड्रोन से नज़र क्यों नहीं रखी जाती? सैनिकों और काफिलों पर हमले क्यों होते हैं जबकि ड्रोन पर आधारित थर्मल सेंसर जंगलों में छिपे आतंकवादियों तक का पता लगा सकते हैं?
निगरानी रखने में सक्षम स्वॉर्म ड्रोनों के इस्तेमाल के बारे में सेना को विचार करना चाहिए. उनका इस्तेमाल धोखा देने, दुश्मन के रडारों या निगरानी यंत्रों पर बोझ डालने और बेहद महंगी इंटरसेप्शन मिसाइलों को दागने पर मजबूर करने में किया जा सकता है. सामान्य ड्रोनों को क्रूज़ मिसाइल की पहचान पैदा करने के लिए इलेक्ट्रोनिक तरीके से प्रोग्राम किया जा सकता है. ड्रोनों के मामले में आकाश ही सीमा है. आर्मी ट्रेनिंग कमांड ऐसी निर्देशिका जारी करनी चाहिए जिसमें विभिन्न स्तरों पर ड्रोनों के इस्तेमाल के बारे में निर्देश हों.
ड्रोन का जवाब
ड्रोन का जवाब देने की क्षमता बनाने पर विचार करने की ज़रूरत है. सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर, दोनों तरह से मार करने की देसी क्षमता तो हमारे पास है, लेकिन संख्या बेहद कम है. इलेक्ट्रोनिक युद्ध की यूनिटें फिलहाल जिम्मेदार हैं और वे इलेक्ट्रोनिक जवाब देने के उपायों का इस्तेमाल करती हैं.
ड्रोनों के खतरे के मद्देनजर बड़ी संख्या में ड्रोन विरोधी ठोस सिस्टम की ज़रूरत है, जो अग्रिम मोर्चों पर तैनात यूनिटों तक फैली हो. बहुस्तरीय कवच तैयार करने के लिए एक ग्रिड सिस्टम की ज़रूरत है. हार्ड और सॉफ्ट मारक क्षमता वाले इंटरसेप्टर ‘फाइटर ड्रोनों’ की अवधारणा पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है. कीमती वेपन सिस्टम्स और साजोसामान की सुरक्षा के लिए ड्रोन विरोधी क्षमता हासिल करने की भी जरूरत है.
इसमें कोई संदेह नहीं रहना चाहिए निकट भविष्य में युद्धक्षेत्रों में ड्रोनों का इस हद तक वर्चस्व रहेगा कि महंगे वेपन सिस्टम भी खतरे में पड़ जाएंगे. सेना ने इस टेक्नोलॉजी को अपना कर अच्छा किया है. लेकिन ड्रोनों को सैन्य ऑपरेशनों और इंतज़ामों के सभी पहलुओं में स्पष्ट अवधारणा, व्यावहारिक संगठन और प्रभावी कमांड तथा कंट्रोल के साथ शामिल किया जाना चाहिए.
(लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर) ने भारतीय सेना में 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और मध्य कमान के जीओसी इन सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य रहे. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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