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Sunday, 5 May, 2024
होमदेशअर्थजगतबड़े संकट में बदलने को तैयार छोटी समस्याओं से घिरे भारत और दुनिया के लिए चीन भी है एक बड़ी चुनौती

बड़े संकट में बदलने को तैयार छोटी समस्याओं से घिरे भारत और दुनिया के लिए चीन भी है एक बड़ी चुनौती

चीनी अर्थव्यवस्था भारतीय अर्थव्यवस्था से 5.7 गुना बड़ी हो गई है जबकि 2010 में वह 3.5 गुना ही बड़ी थी. वह दिन दूर नहीं जब वह अमेरिकी अर्थव्यवस्था से भी बड़ी हो जाएगी.

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भारतीय अर्थव्यवस्था 2014 में चीनी अर्थव्यवस्था के मुक़ाबले तेजी से बढ़ने लगी थी और अगले तीन साल तक उसने यह गति बरकरार रखी. 2018 में भविष्यवाणी की गई थी कि 2020 तक इस रैंकिंग में कोई बदलाव नहीं होगा. लेकिन समय ने करवट बदली, चीन जल्दी ही आगे निकलने लगा और दोनों के बीच फासला बढ़ता गया.

अनुमान है कि इस साल उसकी अर्थव्यवस्था में 2 प्रतिशत की वृद्धि होगी, जबकि भारत तेज मंदी का सामना कर रहा है. डॉलर के मुक़ाबले रुपये और युआन की कीमतों में तुलनात्मक अंतरों का हिसाब लगाते हुए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश (आइएमएफ) ने कहा है कि 2010-20 के दशक में चीनी अर्थव्यवस्था में 146 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था इसकी एक तिहाई यानी 52 प्रतिशत ही वृद्धि कर पाई.

इसके बावजूद, भारत की कहानी बहुत बुरी भी नहीं है. उसने चीन को छोड़ ट्रिलियन डॉलर मूल्य वाली हरेक अर्थव्यवस्था के मुक़ाबले तेज वृद्धि दर्ज की है. इस समूह के 13 दूसरे देशों में से सात देशों की अर्थव्यवस्थाओं ने इस दशक में गिरावट ही दर्ज की. अमेरिका की 39 प्रतिशत की वृद्धि दर ही इस दशक में बाकी सभी देशों के मुक़ाबले सबसे अच्छी रही.

इसलिए, आर्थिक वृद्धि के लिहाज से देखें तो तमाम दुस्साहसों, सुस्ती, और अब मंदी के बावजूद भारत के लिए बीता दशक काफी अच्छा रहा. दूसरी ओर, यह भी मार्के की बात है कि इसके मुक़ाबले कुछ छोटी अर्थव्यवस्थाओं ने कहीं बेहतर प्रदर्शन किया. इस दशक में बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था ने चीनी अर्थव्यवस्था के मुक़ाबले कहीं तेज वृद्धि दर हासिल की, जबकि वियतनाम की वृद्धि दर उसकी वृद्धि दर के बराबर रही.


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अब भविष्य क्या है? शायद मार्क्स ने ही कहा था कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाएं वृद्धि करती रहती हैं लेकिन समय-समय पर वे संकट में भी घिरती रहती हैं. अब जबकि भारत और पूरी दुनिया कोरोना महामारी के बाद उबरने के लिए संघर्ष कर रही है, तब वास्तविकता यह है कि उन्हें ऐसी छोटी-छोटी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, जो बड़े संकट में बदल सकती हैं. नौ साल पहले ’99 परसेंट’ ने जो ‘ऑकुपाई वाल स्ट्रीट’ आंदोलन शुरू किया था उसके बाद भी असमानता जिस तरह बढ़ रही है उसके कारण कौन-सी ज्वालामुखी कब फट पड़ेगी यह कोई नहीं बता सकता.

मार्क्स ने एक और जो भविष्यवाणी की थी उपभोग में गिरावट से पैदा होने वाले संकट की, वह भी सच होती दिख रही है क्योंकि कामगारों को कम हिस्सा मिल रहा है, बेरोजगारी बढ़ रही है, कम वेतन पर काम कर रहे कामगारों के लिए रोजगार को लेकर

अनिश्चितता बढ़ गई है, और ऊपर के ‘एक परसेंट’ वाले मजे कर रहे हैं. क्या लोकतंत्र इन सवालों के जवाब दे सकता है? हमें डोनाल्ड ट्रंप को उदाहरण के रूप में देखना चाहिए, जिनके बारे में किसी ने कहा था कि उन्हें उन लोगों का समर्थन हासिल है, जिनके पास जरूरत से ज्यादा धन, और गुस्सा भी है.

न ही कोई यह बता सकता है कि जलवायु परिवर्तन, जिसने आर्थिक वृद्धि के अनुमानों में अब तक गंभीर गंभीर दखल नहीं दिया है, कब अर्थशास्त्रियों के सोच पर इस तरह असर डालेगा कि वे इसे ‘ग्रोथ’ का अहम तत्व बताना शुरू कर देंगे.

अमेरिका के निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन ने असमानता और जलवायु परिवर्तन को अपने मुख्य एजेंडा का हिस्सा बना लिया है. वक़्त आ गया है कि भारत भी ऐसा ही करे. इसका अर्थ यह होगा कि नुकसान का हिसाब लगाने में ‘प्रकृति की पूंजी’ को भी शामिल करने का जो फैसला बहुत पहले ही कर लिया जाना चाहिए था वह अब किया जाएगा. और यह बाकी चीजों के अलावा खनन की गतिविधियों, तथा विरोध प्रदर्शन कर रहे पंजाब व हरियाणा के किसानों द्वारा धान की खेती के अर्थशास्त्र को भी प्रभावित करेगा. बढ़ती असमानता कल्याणकारी नीतियों को और बढ़ावा देगी; शायद न्यूनतम आय की गारंटी भी दी जाएगी, जो ऐसा वित्तीय जाल साबित होगा जिससे निकल पाना असंभव हो सकता है. दोनों मसले व्यापक आर्थिक नीति के मामले में पुनर्विचार की जरूरत की ओर संकेत करते हैं, हालांकि यह भी सच है कि पारंपरिक परिभाषा वाली आर्थिक वृद्धि के बिना दूसरे सभी लक्ष्यों को हासिल करना ज्यादा कठिन होगा.

अंत में, एशिया में उभर रहे शक्ति संतुलन का भी सवाल है. चीनी अर्थव्यवस्था भारतीय अर्थव्यवस्था से 5.7 गुना बड़ी हो गई है जबकि 2010 में वह 3.5 गुना ही बड़ी थी. वह दिन दूर नहीं जब वह अमेरिकी अर्थव्यवस्था से भी बड़ी हो जाएगी. डॉलर की क्रय शक्ति के हिसाब से, अनुसंधान और विकास पर अमीर चीन के खर्चे अब अमेरिका के इन खर्चों की बराबरी कर रहे हैं. भारत के ये खर्चे उनके खर्चों के छोटे-से हिस्से के बराबर हैं, उसके अपने जीडीपी के अनुपात में भी कम ही हैं. इसका नतीजा यह है कि चीन अग्रणी तकनीक के क्षेत्र में अमेरिका को चुनौती देने लगा है.

जहां तक सैन्य शक्ति की बात है, चीन अपने तीसरे विमानवाही पोत का उदघाटन करने जा रहा है. उसकी योजना कुल छह ऐसे पोत बनाने की है. खबर है कि इनमें से दो पोत हिंद महासागर में तैनात किए जाएंगे, जहां भारत इससे कहीं छोटे-छोटे पोत तैनात करेगा. यह कहना मुश्किल है कि शक्ति संतुलन की होड़ सैन्य टकराव में कब तब्दील हो जाएगी, जैसा पहले शक्ति असंतुलन के कारण हो चुका है, या यह सिर्फ एशिया के फिनलैंडीकरण में बदलकर रह जाएगा. आज से दस वर्ष बाद की दुनिया एक अलग ही दुनिया होगी.


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