क्या भारत को पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलना चाहिए? इससे भी अहम सवाल यह है कि जब वर्ल्ड चैंपियनशिप ऑफ लीजेंड्स टूर्नामेंट में कई पूर्व भारतीय क्रिकेटरों ने पाकिस्तान के खिलाफ मैच का बहिष्कार किया, तो क्या हमें आगामी एशिया कप में हिस्सा लेना चाहिए, जहां भारत का पाकिस्तान से तीन बार सामना हो सकता है?
ये मुद्दा राजनीतिक बहस का होना चाहिए, क्योंकि दशकों से इसे ऐसा ही माना गया है. लेकिन असल में यह एक आर्थिक मसला है. टूर्नामेंट के आयोजकों को इससे करोड़ों की कमाई होनी है और वे नहीं चाहेंगे कि भारत टूर्नामेंट से हट जाए, क्योंकि इससे उनके मुनाफे को बड़ा झटका लगेगा. यही हाल टीवी चैनलों का है, जिन्होंने टूर्नामेंट प्रसारण के लिए करोड़ों खर्च किए हैं. वे नहीं चाहेंगे कि भारत के हटने से उनका निवेश डूब जाए.
पैसे की आवाज़ राजनीति से भी ज़्यादा तेज़ होती है. इसलिए तरह-तरह के बेवकूफी भरे बहाने दिए जा रहे हैं ताकि उस उदाहरण को पलटा जा सके जो सिर्फ एक हफ्ता पहले तय किया गया, जब शिखर धवन, हरभजन सिंह और इरफ़ान-यूसुफ पठान जैसे पूर्व खिलाड़ियों ने पाकिस्तान के खिलाफ मैच खेलने से इनकार कर दिया था. अब कहा जा रहा है कि अगर भारत एशिया कप में नहीं खेलता, तो ये पाकिस्तान को वॉकओवर देने जैसा होगा, जो कि ‘बहुत बुरा’ होगा. (सच में?)
फिर ये भी तर्क दिया जा रहा है कि भारत की 2036 ओलंपिक्स की मेज़बानी की इच्छा के चलते हमें राजनीतिक कारणों से टूर्नामेंट का बहिष्कार नहीं करना चाहिए. जबकि:
a) एशिया कप का ओलंपिक्स से कोई लेना-देना नहीं है और ये ओलंपिक समिति द्वारा आयोजित नहीं होता;
b) इससे पहले भी हम कई बार पाकिस्तान के साथ खेल बहिष्कार कर चुके हैं;
c) दुनिया भर में कई देशों का इतिहास रहा है कि उन्होंने राजनीतिक कारणों से दूसरों के साथ खेल नहीं खेले.
जब इंग्लैंड ने रंगभेद के दौरान दक्षिण अफ्रीका के साथ खेलने से इनकार किया, तो उसे किसी ने बाहर नहीं निकाला. जब अमेरिका ने अफगानिस्तान पर सोवियत हमले के विरोध में मास्को ओलंपिक्स का बहिष्कार किया, तब भी उसे किसी ने राष्ट्रों की बिरादरी से नहीं निकाला.
ये सब लालची लोगों और उनके चमचों द्वारा गढ़े गए घटिया, झूठे बहाने हैं.
भारत ने खेल बहिष्कार की मिसाल दी
इन झूठों को समझने के लिए हमें बस कुछ बुनियादी तथ्यों को याद करना होगा.
खेल बहिष्कार का उदाहरण पहले से मौजूद है. दशकों तक भारत — और फिर पूरी सभ्य दुनिया — ने दक्षिण अफ्रीका के साथ खेलना बंद किया क्योंकि वो रंगभेद का समर्थन करता था. उस समय भी कुछ लोग (अक्सर गोरे पुरुष) इस निर्णय के खिलाफ थे और वही झूठे तर्क दे रहे थे जो आज लालची लोग दे रहे हैं: कि खेल को राजनीति से दूर रखना चाहिए.
मतलब यह कि राजनीति, सेना और व्यापार में हम ऐसे देशों का बहिष्कार करें, लेकिन जब क्रिकेट की बात हो, तो वे सब ‘जॉली गुड चैप्स’ बन जाते हैं जिनसे खेलना जरूरी हो जाता है क्योंकि “खेल को राजनीति से दूर रखना चाहिए.” है ना?
जैसे कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय सहयोगी देश ये कहते: ‘हम नाजियों को हराकर मानवता को बचाएंगे—लेकिन चलो इनके साथ एक-दो खेल भी खेल लेते हैं. आखिर खेल ही तो है.’
अगर आप खेल प्रतिबंधों के सिद्धांत को मानते हैं — और भारत इस बहिष्कार नीति को अपनाने वाला पहला देश था — तो आपको बस यह पूछना है: क्या रंगभेदी दौर के दक्षिण अफ्रीका और आज के पाकिस्तान में कोई फर्क है?
इसका जवाब मुझे देने की ज़रूरत भी नहीं. पिछले कई दिनों से गृहमंत्री अमित शाह और मोदी सरकार के कई नेता संसद में इसका जवाब दे रहे हैं.
पृथकतावाद की तरह, पाकिस्तानी आतंक के खिलाफ भी एकजुट हों
पाकिस्तान एक आतंकी देश है; भारत के खिलाफ आतंकवाद को बढ़ावा देता है. पहलगाम नरसंहार साफ तौर पर पाकिस्तानियों द्वारा आयोजित किया गया था. अब यह पूछना भी गुनाह बन गया है कि क्या आतंकवादी पाकिस्तान से आए थे. इसलिए हमने पाकिस्तान में आतंकी कैंप्स पर हमला किया. इसलिए हमने ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया. इसलिए हमारे सशस्त्र बलों ने अपनी जान जोखिम में डाली. हमें पाकिस्तान को इतना कमजोर कर देना चाहिए कि वह फिर कभी किसी भारतीय की जान न ले सके.
इस पर, एशिया कप में भारत की भागीदारी के समर्थक पूछते हैं: ‘जब हम पाकिस्तान को पंगु बना रहे हैं, तो क्या हम उससे क्रिकेट खेलकर करोड़ों नहीं कमा सकते?’
क्या इस सवाल का कोई जवाब देना भी बनता है?
दशकों से भारत दुनिया से पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करने की मांग करता रहा है. जब डॉनल्ड ट्रंप भारत और पाकिस्तान को एक ही स्तर पर रखते हैं, तो हम भड़क जाते हैं और पूछते हैं: ‘आप हमें इन आतंकवादियों के साथ कैसे तुलना कर सकते हैं? आपको पाकिस्तान को डांटना और अलग-थलग करना चाहिए, बराबरी नहीं करनी चाहिए.’
लेकिन अब हम खुद कहते हैं: ‘उन्हें अलग-थलग मत करो क्योंकि हम उनके साथ क्रिकेट खेल रहे हैं! इससे हमें मोटी कमाई होगी!’
नैतिक रूप से, एपरथाइड (जातीय पृथकतावाद) एक पाप था. हम इसे दक्षिण अफ्रीका का आंतरिक मामला मान सकते थे. लेकिन हमने ऐसा नहीं किया — हमने मानवाधिकारों के लिए आवाज़ उठाई.
पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद भी उतना ही बुरा है, नैतिक रूप से। लेकिन हमारे लिए ये और भी बुरा है. एपरथाइड के मामले में, हम एक वैश्विक मुद्दे पर सैद्धांतिक रूप से खड़े थे. यहां हमारे अपने लोग मारे जा रहे हैं. ये कोई कल्पनात्मक नैतिकता नहीं है. ये भारतीयों की जान का सवाल है.
अगर कुछ करना है, तो हमें और भी सख्त रुख अपनाना चाहिए, जैसे हमने दुनिया के मामलों में अपनाया था.
मिठास की बातें छोड़िए
आखिर में, उस एक तर्क को भी खारिज कर दें जो हमेशा तब दिया जाता है जब ‘खेल को राजनीति से अलग रखो’ वाली दलील फेल हो जाती है: ‘हमें पाकिस्तान के साथ खेलना चाहिए क्योंकि लोगों के बीच संपर्क से शांति और समझ बढ़ती है.’
लेकिन क्या सच में ऐसा होता है?
जैसे ही हमने फिर से पाकिस्तान के साथ क्रिकेट संबंध बहाल किए, उन्होंने सबसे पहले कश्मीर में उग्रवाद भड़काने के लिए आतंकवादी भेजे. क्या कोई सबूत है कि क्रिकेट ने दोनों देशों के बीच संबंधों को बेहतर किया है?
इन बहसों में दो बड़े झूठ मत मानिए.
पहला, भारत-पाकिस्तान के मैच वो सौहार्द और सद्भाव के मौके नहीं होते, जैसा कि हमें बार-बार बताया जाता है. ये मैच देशभक्ति और दुश्मनी का प्रदर्शन होते हैं. जब भारत पाकिस्तान से खेलता है, तो शायद ही कोई भारतीय कहता है, ‘पाकिस्तानी तो अच्छे लोग हैं.’ जो सुनाई देता है वो है: ‘इन हरामियों को कुचल दो.’
दूसरा, उस झूठ को मत मानिए कि समस्या सिर्फ पाकिस्तान की सरकार से है, जबकि आम पाकिस्तानी तो क्रिकेट की वजह से भारत से प्यार करते हैं.
जो लोग ऐसा कहते हैं, वे या तो पेशेवर झूठे हैं या उन्होंने कभी किसी पाकिस्तानी से बात नहीं की. ऑपरेशन सिंदूर के दौरान, पाकिस्तानी अपने ही सरकार के साथ खड़े थे, भारतीय सैनिकों की मौत की दुआ कर रहे थे और उनकी मीडिया जब कहती थी कि पाकिस्तान ने भारत को हरा दिया, तो वे जश्न मना रहे थे। वहां कोई जनता से जनता वाला प्यार नहीं था.
हम भले ही ‘अमन की आशा’ जैसी बातें करते रहें, लेकिन पाकिस्तानियों को अब तक अगर किसी ‘अमन’ से प्यार रहा है, तो वो है ज़ीनत अमन.
हमें खुद से यह झूठ नहीं बोलना चाहिए कि भारत और पाकिस्तान के बीच एशिया कप में क्रिकेट मैच कराने के पीछे कोई देशहित है.
क्रिकेट प्रशासकों को सिर्फ एक ही चीज़ से मतलब है — उनके बैंक खातों में जमा होने वाले ब्याज से.
वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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