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Monday, 8 September, 2025
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भारत-अमेरिका रिश्ते मुश्किल समय में भी कायम रहे. खुफिया एजेंसियां हमें जोड़ कर रखती हैं

भारत और अमेरिका के खुफिया रिश्ते शीतयुद्ध के दौर में भी चलते रहे, जबकि भारत ने खुलकर कहा था कि वह गुटनिरपेक्ष रहेगा.

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अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने जब यह बयान दिया था कि “अमेरिका को पिछले साल पौने तीन अरब डॉलर के बदले भारत से घोर निराशा के सिवाय कुछ नहीं हासिल हुआ”, तब ग्रेट ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे एडवर्ड हीथ को ऐसा महसूस हुआ था मानो ये शब्द उनके सिर पर से किसी अजदहे की गरम फुफकार की तरह गुजर गए. निक्सन ने आगे यह भी कहा कि “भारतीय लोग ऐसा मानते हैं कि श्वेत मुल्कों के पास भारत को उबारने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प नहीं है.” इससे सावधान हुए ब्रिटिश विदेश मंत्री एलेक डगलस आगे आए और इसकी तसदीक करते हुए कहा, “मानना पड़ेगा कि भारतीय लोग असहनीय रूप से उच्च विचार रखने वाले लोग थे लेकिन भारत को सोवियत संघ और चीन के वर्चस्व से मुक्त रखने में एक महत्वपूर्ण साझा हित जुड़ा था.”

बांग्लादेश के सवाल पर पीछे हटने से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और भारत के इनकार से नाराजगी के कारण निक्सन के दफ्तर के अंदर भारतीय लोगों और इंदिरा गांधी को “दलबदलू, धोखेबाज”, “कमीना”, “बूढ़ी डायन”, “कु…” जैसी गालियां दी जाती थीं.

इतिहासकार पॉल मैकगार ने लिखा है कि इन दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व के बीच इस तरह की तनातनी के बावजूद अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA और भारतीय एजेंसी ‘रॉ’ के आपसी रिश्ते काफी मजबूत थे. 1973 में, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यालय के प्रमुख पृथ्वीनाथ धर, और रॉ के प्रमुख रामेश्वर नाथ काव ने CIA के प्रमुख विलियम कोलबी के भारत दौरे के लिए पैरवी की थी.

आज राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप जबकि भारत-अमेरिका को ऐसी गर्त में पहुंचाने पर आमादा दिखते हैं जहां से उसका उबरना नामुमकिन हो, और वे पंगु कर देने वाले टैरिफ के ऊपर से कामकाज की आउटसोर्सिंग पर प्रतिबंध लगा रहे हैं, तब 1971 से 1973 के बीच का समय यही दर्शाता है कि दोनों देश पहले भी दमघोंटू दौर से गुजर चुके हैं. वैसे, दोनों देशों की खुफिया एजेंसियां गड्ढों, बंद गलियों से निकलने और रणनीतिक संवाद जारी रखने के रास्ते बनाती रहीं.

सुरक्षा संबंध

भारत-अमेरिका के खुफिया स्तर के रिश्ते को कम ही समझा गया है लेकिन ये कोल्ड वॉर के साये में भी पनपते रहे जबकि भारत गुटनिरपेक्षता के प्रति घोषित रूप से प्रतिबाद्ध था. 1949 की गर्मियों के अंत में, भारत आजादी के बाद पहली आंतरिक बगावत, तेलंगाना क्षेत्र में कम्युनिस्टों के विद्रोह से जूझ रहा था. हैदराबाद के निजाम की फौज से लड़ने के लिए वहां भेजी गई भारतीय सेना को तेलंगाना में किसानों की बगावत का सामना करना पड़ा था. जोनाथन केनेडी और सुनील पुरुषोत्तम ने लिखा है कि उस भीषण लड़ाई में सेना ने आदिवासियों को यातना शिविरों में लगभग भूखों रखा जिससे हजारों लोग मारे गए.

भारत को इस संकट से उबरने में मदद करने के लिए एक काफी सीधे-सादे, 47 वर्ष से भी कम उम्र के पुलिस अफसर को तैनात किया गया था. मद्रास के पुलिस सुपरिंटेंडेंट रह चुके, और तब भारतीय खुफिया ब्यूरो (आईबी) के निदेशक टी.जी. संजीवी को तीन सप्ताह के लिए वाशिंगटन का दौरा करने का आदेश दिया गया.

आजादी से दशकों पहले से आईबी कम्युनिस्ट आतंकवाद के खतरे से जूझ रही थी. आजादी के बाद तेलंगाना उसके लिए पहली चुनौती बनकर सामने आया. और ऐसा लगता है कि इसमें उसे पहली बड़ी असफलता मिली. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लगता था कि यह एक अंतरराष्ट्रीय संकट था, जो भारतीय गणतंत्र के अस्तित्व के लिए भी एक खतरा था.

औपनिवेशिक विरासत के कारण ब्रिटेन की खुफिया एजेंसियों के साथ भारत का एक अहम रिश्ता था. आजादी के शुरू के वर्षों में, ‘एम-15’ नाम से मशहूर उसकी सुरक्षा सेवा भारत के लिए सहायता का अहम स्रोत थी. अविनाश पालीवाल ने लिखा है कि भारत इस रिश्ते पर घातक रूप से निर्भर हो गया था. इस निर्भरता के बारे में ‘एम-15’ के एक मेमो में कहा गया था कि “यह संतोषजनक है”, लेकिन भारत ने अपने रिश्तों को विस्तार देने की जरूरत समझी.

अमेरिकी विदेश विभाग के तत्कालीन डायरेक्टर जॉर्ज केन्नन नेहरू के आकलन से सहमत थे. केन्नन ने लिखा है कि इस चुनौती से निबटने के लिए संजीवी को “भारत की सीमाओं के पार भी नजर दौड़ानी होगी और बाहरी खतरों से संबंधित नीति को प्रभावित करना होगा”. इसका अर्थ यह था कि नेहरू के समाजवाद के बावजूद, अमेरिका उन्हें कम्युनिस्ट खतरे को दूर करने में उनकी मदद करेगा.

लेकिन संजीवी के दौरे की शुरुआत अच्छी नहीं हुई. संजीवी को अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई के डायरेक्टर जे. एडगार हूवर के दबंग तौर-तरीके नागवार गुजरे, और उन्होंने कसम खा ली कि वे आईबी और एफबीआई के बीच संबंध नहीं बनने देंगे. बहरहाल, CIA के साथ उनकी बैठकों ने इस नुकसान की थोड़ी भरपाई की; और वे कर्नल रिचर्ड स्टिलवेल, ‘किम’ रूज़वेल्ट, और CIA के डायरेक्टर रोस्को हिलेंकोएटर के साथ हुई बैठकों की सकारात्मक छाप लेकर लौटे.

अजदहे पर लगाम

दोनों देश विचारधारा और वैश्विक राजनीति के सवालों पर झगड़ते तो रहे लेकिन उनके अपने-अपने हितों में कितना मेल था यह अस्पपष्ट नहीं था. भारत सरकार 1949 के बाद तिब्बत की बदहाल सेना को हथियार और प्रशिक्षण मुहैया करा रही थी और उसकी आजादी के लिए अपनी सेना को तैनात करने पर भी विचार कर रही थी. समस्या यह थी कि खुद भारतीय सेना के पास संसाधन नहीं थे. इतिहासकार करुणाकर गुप्ता ने लिखा है कि 1954 में, भारत ने इस हकीकत को कबूल करते हुए औपनिवेशिक दौर के कई अधिकारों को त्याग दिया, जैसे ल्हासा में सेना की तैनाती करने का अधिकार.

इतिहासकार क्लाउड आर्पी ने लिखा है कि 1958 के बाद CIA ने खंपा बागियों को हथियार और साजोसामान देना शुरू किया तो भारत ने उधर से आंखें फेर ली. भारत ने तिब्बती विद्रोहियों के समर्थन में CIA की उड़ानों की भी अनदेखी की, जो ढाका होते हुए उसके इलाके को पार करके जाते थे. चीन-भारत सीमा पर वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तैनात चीनी सेना पीएलए को परेशान करने के इरादे से ‘स्पेशल फ़्रंटियर फोर्स’ के गठन का लैंग्ले ने समर्थन किया. चीन के परमाणु हथियार कार्यक्रम के बारे में खुफिया जानकारी हासिल करने के लिए सीआइए ने परमाणु शक्ति से लैस निगरानी साधन भी स्थापित किए.

खुफियागीरी के मामले में जारी इस सहयोग के बावजूद नेहरू खुलकर शिकायत करते रहे कि अमेरिका भारत की राजनीति में दखलंदाजी कर रहा है, “अखबारों को खरीद रहा है और अपने प्रचार संगठनों का जाल फैला रहा है”. बाद में, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने “भारत को कमजोर करने” की साजिश करने वाली विदेशी ताकतों की निंदा की. अमेरिकी खुफिया अधिकारी रसेल जैक स्मिथ ने लिखा है कि “मैडम गांधी के मुताबिक तो हर चारपाई के नीचे और नीम के हर पेड़ के पीछे सीआइए एजेंट छिपे पाए जा सकते हैं”.

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जब यह आरोप लगा रही थीं कि सीआइए सत्ता परिवर्तन कराने की साजिश कर रहा है, और ‘रैम्पार्ट्स’ नामक पत्रिका के इस खुलासे पर हंगामा मचा था कि 1967 में CIA ने भारत की कम्युनिस्ट विरोधी पार्टियों को पैसे दिए थे, तब भारत-अमेरिका संबंध अंधेरे में आगे बढ़ रहा था. जैसा कि संजीवी ने CIA के वार्ताकारों को 1950 में कहा था, उन्हें “कई बार सरकार को बताए बिना स्वतंत्र रूप से कार्रवाई करनी पड़ती थी”.

दोनों देशों के बीच खुफिया मामलों में रिश्ता भारत के लिए प्रतिकूल अमेरिकी लक्ष्यों के बावजूद कायम रहा. मसलन, जैसा कि पत्रकार कार्लोट्टा गाल्ल ने खुलासा किया है, CIA के अधिकारी ने भारत को बताया था कि काबुल में भारतीय दूतावास पर बमबारी के बाद उन्होंने ऐसे सिग्नल पकड़े हैं जिनसे जिहादी सरगना सिराजुद्दीन हक़्क़ानी और ISI के निदेशालय के बीच संबंध का पता चलता है. और FBI हालांकि यह भरोसेमंद खुफिया जानकारी नहीं दे पाया कि लश्कर-ए-तैय्यबा का लड़ाका डेविड हेडले एक आतंकवादी है, लेकिन बाद में उसने नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी की मदद की जिसके बूते वह 26/11 के हमले के लिए पाकिस्तान को ज़िम्मेवार ठहरा सकी.

हालांकि राष्ट्रपति ट्रंप की सरकार ने आतंकवाद विरोधी गहरी मोर्चाबंदी करने में खास दिलचस्पी नहीं ली, और वह उस जिहादी हिंसा को गौण मानती है जिससे अमेरिका को सीधे खतरा नहीं पहुंचता, फिर भी खुफिया एजेंसियों के बीच जो संबंध बना है वह स्थायी साबित हो सकता है.

परंतु सवाल यह है कि भारत-अमेरिका रिश्ते में अब जो व्यापक संकट पैदा हुआ है उसका समाधान क्या खुफिया महकमों के स्तर पर बने संबंधों के बूते हो सकता है? लगभग निश्चित ही नहीं हो सकता. लेकिन इससे यह संकेत तो उभरता ही है कि ऐसे मजबूत खंभे मौजूद हैं जो इस रिश्ते को तब तक टिकाए रखेंगे जब तक कि ज्यादा समझदार राजनीतिक नेतृत्व बागडोर नहीं संभाल लेता.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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