म्यांमार में फौजी तख्तापलट 1 फरवरी 2021 को हुआ था, और इसकी तीसरी वर्षगांठ (अगर इसे ऐसा कहें) बिना किसी हलचल के बीत गई. पूरी दुनिया जबकि रूस-यूक्रेन युद्ध और गाज़ा में संघर्ष के कारण लाल सागर में जहाजों के आवागमन पर प्रतिकूल असर से जूझ रही है, उसे तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के किसी देश में जारी किसी संकट के बारे में सोचने की फुर्सत नहीं है. लेकिन म्यांमार में गृहयुद्ध जैसी जो स्थिति बनी हुई है वह भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है. हमारी सीमा से सटे किसी देश में अस्थिरता या जन असंतोष से न केवल हमारे सीमावर्ती राज्यों की बल्कि पूरे देश की सुरक्षा प्रभावित होती है.
म्यांमार का जो वर्तमान परिदृश्य है उसमें कई पेंच और जटिलताएं हैं, जिनके कई तरह के अल्पकालिक तथा दीर्घकालिक परिणाम हो सकते हैं. मित्र तथा सहयोगी जल्दी ही दुश्मन बन सकते है और इसका उल्टा भी हो सकता है. यह प्रमुख दावेदारों के विविध तरह के एजेंडों के कारण हो सकता है. दावेदारों में ‘एथनिक आर्म्ड ऑर्गनाइजेशन्स’ (ईएओ), ‘प्रो डेमोक्रेसी अलायंस (पीडीए/ नेशनल यूनिटी गवर्मेंट (एनयूजी) शामिल हैं. इनके हितों में मेल हो, यह जरूरी नहीं है.
जटिल इतिहास
बर्मा (अब म्यांमार) 1948 में आज़ाद हुआ, इससे पहले फरवरी 1947 में इसके शान राज्य के पैंगलोंग शहर में एक महत्वपूर्ण सम्मेलन हुआ था. आंग सान (आंग सान सू ची के पिता) के नेतृत्व वाली बर्मी सरकार और चिन, कचिन तथा शान समुदायों के प्रतिनिधियों के इस सम्मिलित सम्मेलन के फलस्वरूप पैंगलोंग समझौता हुआ. इसके तहत फैसला किया गया कि सभी समूह और जातीय समुदाय अगर आपस में सहयोग करके ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एकजुट हो जाएंगे तो आज़ादी जल्दी हासिल होगी.
ब्रिटिश सरकार ने भी इसका समर्थन किया क्योंकि उसे कई स्वतंत्र राज्यों के समूह की जगह एक देश, बर्मा को आज़ाद करना पड़ेगा. आज़ादी के बाद इन अल्पसंख्यकों ने अपनी-अपनी आज़ादी की मांग शुरू कर दी क्योंकि उनका मत बहुसंख्यक बामर (बर्मी) समुदाय के मत से बिलकुल भिन्न था. उनका कहना था कि पैंगलोंग समझौता तो केवल अंग्रेजों से आज़ाद होने के लिए किया गया था, और इसका कदापि यह अर्थ नहीं था कि उन्होंने बर्मा नामक संघ में शामिल होना मंजूर किया है.
इस समझौते में शामिल रहे करेन (काईन) समुदाय ने बर्मा के आज़ाद होने के एक साल बाद ही 1949 में सरकार के खिलाफ गृहयुद्ध शुरू कर दिया था.
पैंगलोंग समझौते की भावना के बारे में मतभेदों के कारण दूसरे समूहों ने भी केंद्र सरकार के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष शुरू कर दिया. कचिन इंडिपेंडेंस आर्मी (केआइए), शान स्टेट आर्मी (एसएसए), अराकान आर्मी (एए), यूनाइटेड वा स्टेट आर्मी (यूडब्लूएसए), और कई दूसरे समूहों को मिलाकर ‘एथनिक आर्म्ड ऑर्गनाइजेशन्स’ (ईएओ) बना. वहां अब जो संघर्ष चल रहा है उसमें ये ईएओ न केवल केंद्र सरकार यानी म्यांमार सेना से लड़ रहे हैं बल्कि वे अपने-अपने समुदाय की आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं.
फौजी सरकार का तख़्ता पलट भी जाए तो लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को भी इस मांग का सामना करना पड़ेगा. सेना जबकि पीडीए से मुक़ाबले में उलझी है, इन समूहों को कमजोर पड़ी सेना के मद्देनजर अपना नियंत्रण स्थापित करने और आज़ादी की घोषणा करने का मौका नजर आ रहा है.
यह एकजुट म्यांमार की स्थापना के लक्ष्य के विपरीत है, चाहे केंद्र में फौजी शासन हो या नागरिक शासन. इसलिए, ईएओ और पीडीए/एनयूजी थोड़े समय के ही साथी हैं, क्योंकि नागरिक शासन जैसे ही सत्ता संभालेगा उसे इन्हीं ईएओ से निबटना पड़ेगा. सभी युवक-युवतियों के लिए सैन्य सेवा अनिवार्य बनाने की हाल में जो घोषणा की गई वह हालात की गंभीरता की ही पुष्टि करते हैं.
म्यांमार के सात प्रशासनिक डिवीजन हैं—आएयरवाड़ी, बागो, मगवे, मांडले, सागैंग, तानींथर्यी, और यंगोन. इनमें बामर बहुसंख्या में हैं. जातीय आधार पर सात राज्य हैं—चिन, कचिन, कायह, काईन, मों, राखाइन, और शान.
2021 के फौजी तख्तापलट के बाद म्यांमार में लोकतंत्र समर्थक समूहों के व्यापक प्रदर्शन हुए, जिन्होंने एनयूजी की छतरी तले मिलकर पीडीए का गठन किया. पहले के विपरीत उन्होंने लोकतांत्रिक शासन की बहाली के लिए फौजी हुकूमत के खिलाफ सशस्त्र टकराव का रास्ता चुना. वैसे, जातीय अल्पसंख्यकों वाले राज्यों के विपरीत बहुसंख्यक बामरों वाले राज्यों में इनके प्रदर्शन और सशस्त्र प्रतिरोध ज्यादा मुखर रहे हैं. इस तरह, दोनों पक्ष म्यांमार सेना से लड़ तो रहे हैं मगर उनके लक्ष्य भिन्न हैं.
अंततः जिस भी संगठन का वर्चस्व स्थापित होता है, उसे अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए सेना पर ही निर्भर रहना होगा. लेकिन एक नागरिक शासन के लिए यह कड़वी घूंट होगी क्योंकि उसके पास सेना से सुलह करने के सिवा कोई विकल्प नहीं होगा, जिससे वह अभी भी लड़ रहा है.
2015 में सत्ता में आने के बाद ‘नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी’ (एनएलडी) ने म्यांमार सेना के साथ तालमेल बना लिया था, जो रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ सेना की कार्रवाइयों पर आंग सान सू ची की चुप्पी से जाहिर है. पश्चिमी देशों ने इसकी कड़ी आलोचना की और कुछ ने तो उन्हें 1991 में दिए गए नोबल शांति पुरस्कार को वापस लेने की भी बात की.
लेकिन एनएलडी और सेना का नेतृत्व के बीच मतभेद जल्दी ही उभरने लगे और अंततः सेना ने तख्ता पलट दिया. अब सेना को न केवल लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार और जनता को भरोसे में लेना होगा बल्कि उसके साथ लड़ने वाले नागरिकों को माफ करते हुए किसी बदले की कार्रवाई से परहेज करना होगा, और दूसरी ओर से भी यही कुछ करना होगा. जब भी देश में शांति कायम होगी, सुलह की प्रक्रिया कठिन होगी.
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संतुलन साधता भारत
इसलिए, इस जटिल स्थिति के मद्देनजर भारत को संतुलन साधने और अपनी प्रतिक्रियाओं को संतुलित करने की जरूरत पड़ेगी. भविष्य में सद्भाव बना रहे, इसके लिए एनयूजी के साथ संवाद जारी रखना बेहद महत्वपूर्ण होगा. भारत नागरिक शासन का हमेशा समर्थन करेगा लेकिन वह आज़ादी की मांग कर रहे ईएओ समूहों का समर्थन नहीं कर सकता. ऐसा करने से भारत से अलग होने की मांग कर रहे अलगाववादी गुटों के दावों को हरी झंडी मिल जाएगी.
केंद्र में काबिज फौजी हुक्मरानों, और दो के झगड़े में फंसे म्यांमार के सैनिकों के बीच फर्क करने की भी जरूरत है. हालांकि म्यांमार की सेना भविष्य को आकार देने में अहम भूमिका निभा सकती है, इसलिए भारत फौजी हुक्मरानों से संबंध नहीं बिगाड़ सकता.
दूसरी बात जिस पर ध्यान देना जरूरी है, वह है दोनों देशों की जनता के बीच संपर्क-संवाद. इसके लिए हमें अपने पुराने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संबंधों को अहमियत देनी होगी, क्योंकि अंततः लोग ही अपने देश का भविष्य तय करते हैं.
भारत अपने पड़ोसी देश के संकट की घड़ी में उसके लिए दरवाजे बंद नहीं कर सकता, उसे संकट के शांतिपूर्ण समाधान के लिए सभी संबंधित पक्षों से संपर्क बनाए रखना होगा, और जरूरत पड़ने पर मध्यस्थता भी करनी होगी. हम जो भी रास्ता चुनें, अपने राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए ही चुनें.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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