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Friday, 3 May, 2024
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3 तरीके, जिनसे हो सकता है भारत-चीन सीमा मसले का समाधान — परिसीमन, खाका, सीमांकन

अस्पष्ट सीमा भारत से ज्यादा चीन के लिए नुकसानदेह है, क्योंकि यह उसे एक ऐसे ‘पड़ोसी दादा’ के रूप में पेश करती है जो अपने अधिकतर पड़ोसियों के साथ सीमा को लेकर विवाद में उलझा हुआ है.

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अक्तूबर 2022 में चीनी राजदूत सुन वेईदोंग ने अपने विदाई भाषण और भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर से मुलाकात के दौरान कहा था कि भारत और चीन के बीच मतभेद तो रहेंगे, लेकिन उन्हें आपसी संवाद और विचार-विमर्श से सुलझा लेना चाहिए. जवाब में जयशंकर ने ज़ोर देकर कहा था कि संबंधों को सामान्य बनाने के लिए सीमा क्षेत्रों पर अमन-चैन न केवल ज़रूरी है बल्कि इसकी पूर्वशर्त भी है. ये बयान बेशक पूर्वी लद्दाख में दोनों देशों के बीच हुए टकराव के संदर्भ में दिए गए थे, जो 2020 में शुरू हुआ था और जो दोनों देशों के बीच बड़े सीमा विवाद का ही हिस्सा है. इसलिए, चीन और भारत के आपसी संबंधों में वास्तविक प्रगति के लिए सीमा विवाद को जल्दी और अपनी संपूर्णता में सुलझाने की ज़रूरत है.


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परिसीमन, खाका, सीमांकन

किसी भी सीमा विवाद को सुलझाने के लिए तीन कदम ज़रूरी हैं — परिसीमन, खाका बनाना, और सीमांकन करना. इन शब्दों को प्रायः एक ही अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन तीनों के अलग-अलग अर्थ और मकसद हैं. परिसीमन शब्द का प्रयोग किसी विशेष क्षेत्र या अवधारणा की सीमाओं या सरहदों को परिभाषित करने के लिए किया जाता है. खाका खींचने का अर्थ है आकृतियों को किसी नक्शे या रेखाचित्र पर रेखांकित करना. दूसरी ओर, सीमांकन उन सीमाओं के भौतिक या स्पष्ट संकेतों पर ज़ोर देने की प्रक्रिया है ताकि वे स्पष्ट रूप से दिखें या समझे जा सकें.

विस्तार से कहें तो परिसीमन में यह स्पष्ट किया जाता है कि कोई क्षेत्र कहां से शुरू होकर कहां खत्म होता है; खाका खींचने में ‘हाई रिजोल्यूशन’ वाले नक्शे पर रेखाएं खींचकर प्रमुख मुकामों को जोड़ने का काम किया जाता है ताकि वे नक्शे पर और ज़मीन पर भी आसानी से पहचाने जा सकें और सीमांकन की प्रक्रिया में, रेखांकित लाइन पर पहचाने जा सकने वाले स्थानों पर नियमित अंतराल पर सीमा स्तंभ बनाए जाते हैं.

आमतौर पर वार्ताकारों को पता होता है कि इन तीनों शब्दों — परिसीमन, खाका (या परिभाषा), सीमांकन — का क्या इस्तेमाल है, लेकिन इन तीनों शब्दों के इस्तेमाल को लेकर स्पष्टता नहीं होती और इन तीनों चरणों को लेकर भ्रम आज भी कायम है.

19वीं सदी के अंत में सीमा निर्धारण के मामले में इन शब्दों का मनमाना प्रयोग किया जाता था और इसके साथ ‘फिक्सेशन’ (नियतीकरण), ‘डिलीनिएशन’ (परिसीमन), और ‘डेफिनीशन (परिभाषीकरण) जैसे शब्दों का भी प्रयोग किया जाता था. इन चरणों को अलग-अलग करने की पहली कोशिश कैप्टन एएच (बाद में सर हेनरी) मैकमोहन ने 1896 में रॉयल आर्टिलरी इन्स्टीट्यूशन की एक बैठक में की थी. उन्हें दो देशों के बीच की सीमारेखा को निश्चित करने के लिए ‘वाटरशेड’ (जलविभाजन) सिद्धांत और मैकमोहन रेखा देने का श्रेय भी दिया जाता है, जो भारत और तिब्बत के बीच की सीमा का आधार है और उनके ही नाम से जानी जाती है.

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परिसीमन ज्यादा अवधारणात्मक है, जो राजनीतिक निर्णय का मामला है और जिसमें ज़मीन के लेन-देन होते हैं और आपसी सहमति वाला समाधान हासिल करने के लिए राजनयिक कौशल की ज़रूरत पड़ती है. निरूपण या खाका खींचने की प्रक्रिया इसके बाद आती है, जो औपचारिक संधि या समझौते के फलस्वरूप होती है और इसमें चिह्नित नक्शों की अदला-बदली भी होती है.


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सीमांकन की कठिनाई

इन दो महत्वपूर्ण चरणों के पूरा होने के बाद, सीमांकन की भौतिक प्रक्रिया शुरू होती है जिसमें सीमा पर क्रमवार संख्या वाले खंभे लगाए जाते हैं. इन खंभों को जोड़ने वाली सीधी रेखा को सीमारेखा मान्य किया जाता है. इन चरणों का क्रम आगे-पीछे हो सकता है, लगातार एक के बाद एक हो सकता है या उनके बीच कई साल का अंतर भी हो सकता है. अक्सर आम सहमति से सीमाओं के परिसीमन से बहुत पहले ज़मीन का बंटवारा हो सकता है. इसके अलावा, कुछ सीमाएं ऐसी होती हैं जिनका वर्षों पहले औपचारिक परिसीमन हो चुका है, लेकिन उनका अभी निरूपण नहीं हुआ है. कुछ सीमाएं वर्षों तक खयाली पुलाव के जैसी बनी रहती हैं, जबकि कुछ ऐसी होती हैं जिनका परिसीमन नहीं हुआ होता है, लेकिन वे वास्तविक शासन के अधीन होती हैं, जैसा कि तिब्बत का अक्साई चीन क्षेत्र है, जो चीनी शासन के अधीन है.

परिसीमन बेशक सबसे दुष्कर काम है जिसके राजनीतिक नतीजे निकल सकते हैं, लेकिन निरूपण भी उतना ही कठिन काम है, जिसके लिए काफी सहज बुद्धि चाहिए. सर्वश्रेष्ठ वार्ताकार भी ज़मीनी स्थिति का पूर्वानुमान नहीं लगा सकते. कोई भी संधि या समझौता सीमारेखा को उतने पक्के तौर पर परिभाषित नहीं कर सकता जितने पक्के तौर पर सर्वेयर मौके पर जाकर कर सकते हैं. अपने समुचित फैसले में सर्वेयरों को शासन, स्थानीय भावनाओं और भौगोलिक निरंतरता जैसे पहलुओं का ख्याल रखना चाहिए.

अगर सीमा का सीमांकन भौगोलिक वास्तविकताओं के अनुरूप नहीं हो, तो सबसे अच्छी संधि भी धारणाओं में अंतर के चलते दुश्मनी को जन्म दे सकती है. उदाहरण के लिए भारत-म्यांमार सीमा पर अंतरराष्ट्रीय सीमारेखा ‘वाटरशेड’ सिद्धांत पर आधारित है और यह नागालैंड के मोन जिले में लुंगवा गांव के ‘अंघ’ (मुखिया) के मकान के बीच से गुज़रती है. उनका बेडरूम भारत में है, तो बरामदा म्यांमार में. ज़ाहिर है, सम्मेलन कक्षों में बैठकर सीमारेखा खींचने वाले इस ज़मीनी हकीकत से अनजान थे कि नागालैंड में सामरिक दृष्टि से गांव पहाड़ियों के ऊपर बसे हैं, न कि नदी तटों पर.

तिब्बत की सीमा की अस्पष्टता को दूर करने के लिए सीमा विवाद पर वार्ता करने और उसके समाधान की गंभीर कोशिश करने की ज़रूरत साफ तौर पर उभरती है. वास्तव में यह अस्पष्ट सीमा भारत से ज्यादा चीन के लिए नुकसानदेह है, क्योंकि यह उसे एक ऐसे ‘पड़ोसी दादा’ के रूप में पेश करती है जो अपने अधिकतर पड़ोसियों के साथ जमीनी या समुद्री सीमा को लेकर विवाद में उलझा हुआ है. चीन और भारत के विशेष प्रतिनिधियों के बीच बातचीत की प्रक्रिया फिर शुरू की जानी चाहिए. इसी प्रक्रिया के कारण अप्रैल 2005 में एक समझौता हुआ था, जब तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ भारत के दौरे पर आए थे. उस समझौते का नाम था — ‘द एग्रिमेंट ऑन द पॉलिटिकल पारामीटर्स ऐंड गाइडिंग प्रिंसिपल्स (पीपीजीपी) फॉर द सेटलमेंट ऑफ द इंडिया-चाइना बाउंडरी क्वेश्चन’.

गौर करने वाली बात यह है कि उसे ‘बाउंडरी क्वेश्चन’ कहा गया था, ‘सीमा विवाद’ नहीं. उस समझौते ने सीमा विवाद के जल्दी समाधान की उम्मीद जगाई थी. इस समाधान में दोनों पक्षों को “ऐतिहासिक प्रमाण, राष्ट्रीय भावनाओं, व्यावहारिक कठिनाइयों और दोनों पक्षों के उचित सरोकारों व भावनाओं और सीमावर्ती इलाकों की वास्तविक स्थिति का ख्याल रखना था; सीमा “सुस्पष्ट भौगोलिक स्थितियों” के साथ-साथ होनी थी; “सीमावर्ती इलाकों में बसी आबादी” के हित का ख्याल रखना था; और “सीमांकन आधुनिक तथा साझा साधनों से किया जाना था”. खुद को अतीत से अलग करते हुए चीन क्षेत्रवार समाधान की जगह एकमुश्त समाधान पर सहमत हुआ था.

परिसीमन प्रक्रिया शुरू करने के लिए पीपीजीपी को अवधारणात्मक आधार बनाया जा सकता है. चूंकि, ऐसा समझौता पहले से मौजूद है, वार्ताकार इन प्रावधानों को आगे बढ़ा सकते हैं और उन्हें हरेक विवादित क्षेत्र के लिए लागू कर सकते हैं. सीमा “सुपरिभाषित भौगोलिक स्थितियों के अनुरूप हो”, यह शर्त ‘वाटरशेड’ सिद्धांत का अप्रत्यक्ष स्वीकार है, बशर्ते मैकमोहन रेखा का ज़िक्र नहीं किया जाता क्योंकि चीन 1911 में तिब्बत और भारत के बीच हुई संधि को मान्यता नहीं देता.

चीन और म्यांमार के बीच की सीमा के निरूपण के लिए ‘वाटरशेड’ सिद्धांत का इस्तेमाल किया गया है, इस तथ्य से संकेत मिलता है कि चीन इस सिद्धांत को नापसंद नहीं करता. इतिहास में सबसे लंबे समय से जारी इस सीमा मसले का समाधान चीन और भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक वरदान होगा.

(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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