भारत की चीन रणनीति दो समस्याओं की बुरी तरह गिरत में है. एक, चीन से रिश्ते में सीमा विवाद को मुख्य बिंदु मानने पर भारत का फोकस है. इसमें दो राय नहीं कि सीमा पर चीन का सोचा-समझा आक्रामक रुख चिंता का विषय है, दूसरे उससे भी बड़ी गंभीर समस्या इस समूचे क्षेत्र में चीन का बढ़ता दबदबा है. नई दिल्ली को एशिया में बढ़ते चीनी दबदबे के एकाधिकार की बढ़ती आशंका पर भी कम से कम उतना ही ध्यान देना चाहिए, जितना सीमा टकराव पर दे रही है. दुर्भाग्य से, भारत में बहुध्रुवीय नजरिए का जुनून यहां मुश्किल पैदा कर रहा है.
भारतीय अधिकारी यही मंत्र रटते रहते हैं कि चीन से रिश्ते तब तक सामान्य नहीं होंगे, जब तक सीमा पर हालात सामान्य नहीं होते. ऊपरी तौर पर इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता कि सीमा पर हालात फिर ‘सामान्य’ हो जाएं तो चीन-भारत रिश्ते कुछ सामान्य हो सकते है, जिसका अर्थ यही निकलता है कि चीन 2020 से अपनी फौज की तैनाती कुछ पीछे हटा ले. कुछ दिनों पहले, भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा कि सीमा के हालात एशियाई सदी के लिए चीन-भारत सहयोग में रुकावट बने हुए हैं. फिर, इसका यही अर्थ निकलता है कि सीमा के मामले में चीन को ‘सद्बुद्धि’ आ जाए तो नई दिल्ली और बीजिंग में सहयोग स्थापित हो सकता है.
लेकिन सरल-सी सच्चाई तो यह है कि सीमा पर स्थितियां सामान्य होने के बावजूद भाारत की चीन से मुसीबतें दूर नहीं होंगी. गलवन घाटी में चीन ने 2020 में जो किया, वह भारत के लिए चुनौती का सबब है, मगर उसमें नई दिल्ली की अपने पड़ोसी से सारी दिक्कतें पूरी तरह जुड़ी हुई नहीं हैं.
बेमतलब सपने के पीछे भागना
एक तरफ, भारतीय अधिकारी समस्या से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं. पिछले दो साल से वे लगातार यही रट लगाए हुए हैं कि बहुध्रुवीय दुनिया के लिए बहुध्रुवीय एशिया जरूरी है. इसमें हल्का-सा संदेह हो सकता है कि इस कूटनीतिक शब्दावली में इस डर का संकेत है कि चीन एशिया में दबदबा कायम करना चाहता है. बहुध्रुवीय एशिया की अपील में सीमा समस्या का खास लेनादेना नहीं है, इसके विपरीत यह स्वीकार्यता है कि एशिया पर चीन का दबदबा भारतीय हितों के लिए नुकसानदेह होगा. जैसा कि विदेश मंत्री ने कहा, एशिया में विविध क्षेत्र, संस्कृतियां और शक्तियां बहुध्रुवीय नजरिए का ‘प्रेस्क्रिशन’ है.
दूसरी तरफ, बहुध्रुवीय नजरिए पर जोर दो वजहों से समस्या वाला है. बहुध्रुवीय सपने को महज आकांक्षा या कूटनयिक प्रयासों से हासिल नहीं किया जा सकता. ध्रुवों से दुनिया या एशिया या किसी और क्षेत्र में शक्तियों के अपेक्षाकृत संतुलन का पता चलता है. बहुध्रुवीय होने का मतलब है कि कम से तीन (या पांच या छह हों तो बेहतर) देश मोटे तौर पर दौलत और फौजी क्षमताओं के मामले में एक जैसी या आसपास की ताकत वाले हों.
न एशिया में, न ही दुनिया में ताकत का ऐसा बंटवारा है. एशिया भी बिला शक एकध्रुवीय है और चीन का दबदबा है. चीन एशिया में किसी भी इकलौती ताकत के मूुकाबले न सिर्फ काफी ज्यादा अमीर और फौजी ताकत वाला है, बल्कि वह दूसरी एशियाई ताकतों के किसी भी गठजोड़ से ज्यादा मजबूत है, चाहे हम चीन के खिलाफ सभी दूसरी ताकतों को एक मंच पर लाने की दिक्कतों को नजरअंदाज कर दें.
इसी नजरिए से विश्व व्यवस्था भी साफ-साफ अमेरिका और चीन के बीच दो ध्रुवीय होती जा रही है. वाकई, इसे अभी ही दो ध्रुवीय कहने में कुछ गलत नहीं हो सकता. अमेरिका दशकों से दुनिया में आर्थिक और फौजी मामलों में सबसे दबंग ताकत बना हुआ है. अब चीन ने अमेरिका के मुकाबले काफी दौलत जुटा ली है. भले बीजिंग के पास दुनिया में तहलका मचाने वाली वैसी फौजी ताकत नहीं है, जो वाशिंगटन के पास है, लेकिन वह इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि कम से कम भारत-प्रशांत क्षेत्र में अब वह अमेरिका की फौजी ताकत का मुकाबला करने के काबिल है. शायद लंबा वक्त नहीं होगा कि चीन भारत-प्रशांत क्षेत्र के बाहर भी अमेरिका को चुनौती देने की ताकत हासिल कर ले.
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चीन के दबदबे पर फोकस
कोई इन दो महाशक्तियों के नजदीक भी नहीं है. भारत को अपने पहले विमानवाहक पोत आइएनएस विक्रांत के निर्माण पर वाजिब फख्र है, लेकिन यह चीन के आम तौर पर विमानवाहक पोत निर्माण और नौसैनिक इंतजामात के आगे बौना ही है. एक दशक से भी कम समय में बना चीन का दूसरा विमानवाहक पोत आइएनएस विक्रांत से काफी बड़ा है और विक्रांत के निर्माण में भी काफी ज्यादा वक्त लगा है. भारत अभी अगले पोत पर विचार ही कर रहा है कि चीन का तीसरा और बड़ा पोत जल्दी ही आने वाला है और अटकलें तो ये हैं कि पाइपलाइन में और कई हैं. यह महज एक संकेत है कि चीन की दौलत और फौजी ताकत से कितना फर्क है.
दूसरी ताकतों को अलग-थलग छोड़कर, अमेरिका और चीन दोनों को एक साथ जो कुछ बड़े उथल-पुथल प्रभावित कर रहे हैं, उसमें यह कल्पना करना मुश्किल है कि मौजूदा दो ध्रुवीय दुनिया कैसे बहुध्रुवीय हो सकती है. इन दोनों की बराबरी करने वाली किसी दूसरी ताकत के उभरने में काफी लंबा वक्त लगेगा. जब शक्ति संतुलन इस कदर गड़बड़ाया हुआ है तो कूटनीति दुनिया को बहुध्रुवीय नहीं बना सकती, एशिया की तो बात ही दीगर है.
बहुध्रवीय जैसे दिवस्वप्र की तलाश को छोड़कर भारजीय रणनीति का फोकस उस पर होना चाहिए, जिसे रोका नहीं जा सकता, यानी एशिया में चीन के दबदबे पर. असंभव-से बहुध्रवीय लक्ष्य पर फोकस करने से भारतीय कोशिशें चीन के दबदबे के असर से निबटने की तात्कालिक जरूरत से भटकेंगी. यह लक्ष्य के साथ एक बचाव का उपाय भी है जिसमें यकीनन जरूरत है कि कूटनीति चीन को जवाब देने के लिए एशिया और उसके बाहर दूसरी ताकतों को एक साथ लाए. समस्या कूटनीति नहीं है, बल्कि उस कूटनीतिक प्रयास का लक्ष्य है. लेकिन इसकी शुरुआत यह अहसास करने से होगी कि बहुध्रुवीय लक्ष्य का प्रचार बेमतलब और बेमानी भटकाव है.
लेखक नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में इंटरनेशनल पॉलिटिक्स के प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @RRajagopalanJNU है. विचार निजी हैं.
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