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Sunday, 17 November, 2024
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भारत सबसे तेज अर्थव्यवस्था के ठप्पे में न उलझे, आर्थिक सफलताओं पर ध्यान दे

भारत न अब सबसे तेजी से वृद्धि दर्ज कर रही अर्थव्यवस्था है, न ही उसे ‘चाइना प्लस वन’ वाले परिदृश्य में बड़ा लाभ मिल रहा है लेकिन मुद्रास्फीति, घाटे के प्रबंधन, विदेशी मुद्रा भंडार और रुपये की स्थिरता के मामले में उसने अच्छा प्रदर्शन किया है.

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दुनिया भर में शोर है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत अगला बड़ा खिलाड़ी बनने वाला है लेकिन इसके साथ देश की उपलब्धियों को गिनाते हुए गलत मसलों को रेखांकित किया जा रहा है और भारत के आर्थिक प्रबंधन में हो रहे बदलाव की अनदेखी की जा रही है.

भारत अब सबसे तेजी से वृद्धि दर्ज कर रही अर्थव्यवस्था नहीं रह गया है. यह जगह सऊदी अरब ने 2022 में 8.7 फीसदी की वृद्धि दर के साथ हथिया ली है, और उसके बाद वियतनाम 8 फीसदी की दर के साथ दूसरे नंबर पर है. 2023 की पहली तिमाही में फिलीपींस ने 6.4 फीसदी की वृद्धि दर के साथ भारत को पीछे छोड़ दिया.

ये सब तो भारत के मुक़ाबले छोटी अर्थव्यवस्थाएं हैं लेकिन सऊदी अरब ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था है, और बाकी दो अर्थव्यवस्थाएं बांग्लादेश, पाकिस्तान, ईरान, मिस्र, और दक्षिण अफ्रीका जैसे क्षेत्रीय खिलाड़ियों से बड़ी हैं.

भारत को ‘चाइना प्लस वन’ (निवेश के लिए चीन के अलावा दूसरा पसंदीदा देश) वाले परिदृश्य में भी बड़ा लाभ नहीं मिल रहा है, वियतनाम को मिल रहा है.

दरअसल, भारत चूंकि पूर्व एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के साथ अच्छी तरह जुड़ा हुआ नहीं है, और ‘रीज़नल कंप्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप’ (आरसीईपी) में भी शामिल नहीं है, इस दृष्टि से वह थाईलैंड, मलेशिया, और इंडोनेशिया (‘टाइगर कब्स’) जैसे देशों की तरह अच्छी स्थिति में भी नहीं है.

पश्चिमी देशों को निर्यात करने के मामले में वियतनाम अमेरिका को परिधानों के निर्यात के मामले में चीन के बराबर पहुंच गया है. वैसे, भारत जरूर एक महत्वपूर्ण उभरता खिलाड़ी है और वह वरदान के रूप में दूसरों के मुक़ाबले ज्यादा बड़ा बाजार है. लेकिन अभी भी वह ‘कब्स’ के झुंड में ही है. वृद्धि की रैंकिंग में निर्विवाद नंबर वन बनने के लिए उसे ज्यादा मेहनत करने की जरूरत है.

दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में, भारत की असली कामयाबी ‘मैक्रो’ अर्थव्यवस्था का काफी बेहतर प्रबंधन है. औसत थोक महंगाई दर 1970 के दशक में 9 फीसदी, 1980 के दशक में 8 फीसदी, इसके बाद दो दशकों में 6 फीसदी से ऊपर रही, और अब पिछले दशक में 4 फीसदी हुई है. उपभोक्ता महंगाई दर की भी यही कहानी है, वह पिछले दशक में 6 फीसदी से नीचे रही जबकि इससे पहले के दो दशकों में 7.5 फीसदी थी.

ऊंचे वित्तीय घाटे (केंद्र तथा राज्यों के भी) के दौर में महंगाई दरों में अच्छी गिरावट ऐसी चीज है जिसकी व्याख्या अर्थशास्त्रियों को करनी चाहिए.

शायद फर्क यह आया है कि 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद केंद्रीय वित्तीय घाटी की भरपाई करने के लिए अब स्वतः मुद्रा की छपाई नहीं होने लगती. इसकी जगह सरकारें वित्त बाजार से उधार लेती हैं, जिसकी आकार, गहराई बढ़ी है और बैंक पर उसकी निर्भरता घटी है. यह भी एक उपलब्धि है.

बाहरी मोर्चे पर भी सुधार उतना ही उल्लेखनीय है. 1990 के दशक में आकर दशकों से डॉलर के अभाव का चक्र खत्म हुआ. कुल भुगतान संतुलन (चालू और पूंजीगत खातों को मिलाकर) ने 1992-2002 में 52 अरब डॉलर का सरप्लस दिया. अगले दशक में यह चौगुना बढ़कर 212 अरब डॉलर हो गया और 2012-2022 के दशक में 354 अरब डॉलर हो गया. यही नहीं, सहायता और विदेश से उधार में भी भारी गिरावट आई है. इन सबका मिला-जुला असर रिजर्व बैंक के विदेशी मुद्रा भंडार से जाहिर होता है.

ध्यान रहे कि यह व्यापारिक माल के व्यापार में बढ़टी गिरावट के बावजूद हुआ है. सबसे ताजा दशक में यह इसका वार्षिक औसत 150 अरब डॉलर रहा, जबकि 1992-2002 वाले दशक में बेशक एक छोटी अर्थव्यवस्था के लिए मात्र 11 अरब डॉलर था. जीडीपी के लिहाज से व्यापारिक माल का व्यापार घाटा अब 5-6 फीसदी है, पिछले दशकों में इस घाटे से काफी ऊंचा. सोने पर सुहागा बढ़ते विदेशी निवेश के रूप में है, जो पिछले तीन दशकों में करीब 950 अरब डॉलर था.

इस कायापलट ने मुद्रा को स्थिरता दी है. रुपया डॉलर के मुक़ाबले पिछड़ता रहा है लेकिन 1966 के अवमूल्यन से लेकर 1991-93 के ‘सुधारात्मक अवमूल्यन’ तक की अवधि में औसतन सालाना गिरावट दर 5.5 फीसदी रही, सुधारों के बाद के दौर में औसतन सालाना गिरावट दर 3 फीसदी रही. पिछले दो दशकों में यह 2.4 फीसदी हुई है.

दशकों में इन व्यवस्था जनित परिवर्तनों का महत्व यह है कि अर्थव्यवस्था और मुद्रा ब ज्यादा स्थिर है, शायद इसलिए राजनीतिक स्थिरता भी है. अब यह हासिल करना बाकी रहा है कि वृद्धि की रफ्तार बढ़े, जिसने तमाम शोरशराबे के अब तक 20वीं सदी के मध्य से पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के रेकॉर्ड की बराबरी नहीं की है. ऐसा क्यों है, इसके लिए बड़बोलापन नहीं, आत्मविश्लेषण की जरूरत है.

(व्यक्त विचार निजी हैं. बिजनेस स्टैंडर्ड से स्पेशल अरेंजमेंट द्वारा)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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