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Tuesday, 7 May, 2024
होममत-विमतअमेरिका, चीन की तरह भारत की राजनीति लोकलुभावन और अर्थनीति राष्ट्रवादी हो रही है   

अमेरिका, चीन की तरह भारत की राजनीति लोकलुभावन और अर्थनीति राष्ट्रवादी हो रही है   

बाजार केंद्रित सुधारों से बेजार होकर भारत दूसरे की तरह संरक्षणवाद और सरकार निर्देशित औद्योगिक निवेश की नीति अपना रहा है, जिसके साथ व्यापारिक संघर्ष और मुद्रास्फीति का जोखिम जुड़ा है.

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भारत में 1991 में और उसके बाद जो आर्थिक सुधार किए गए वे मुक्त घरेलू और वैश्विक बाज़ार में निवेश के समान थे. ये सुधार रीगन-थैचर दौर में अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका को कम करने के विचारों से प्रभावित थे. भारत में इनकी शुरुआत ‘एलपीजी’ से हुई यानी लिबरलाइजेशन (उदारीकरण), प्राइवेटाइजेशन (निजीकरन), और ग्लोबलाइज़ेशन (वैश्वीकरण) से. हालांकि इन्हें विभिन्न चरणों में आंशिक तौर पर ही लागू किया गया, लेकिन मान्यता यह थी कि ज्यादा बाजारीकरण से भारत को लाभ ही होगा. ऐसा हुआ भी. आर्थिक वृद्धि की रफ्तार तेज हुई, मुद्रास्फीति में गिरावट आई, व्यापार संतुलन बेहतर हुआ, विदेशी आर्थिक संभावनाएं बढ़ीं. 

लेकिन मैनुफैक्चरिंग को बढ़ाने में विफलता, बेहतर रोजगारों की कमी, विषमता में वृद्धि के कारण मोहभंग भी हुआ है. इसके अलावा, पर्यावरण की सुरक्षा (सौर ऊर्जा, बिजली वाले वाहनों आदि) के साथ-साथ महत्वपूर्ण उत्पादों तथा सामग्री के मामले में चीन के मुक़ाबले कमजोरी भी आई है. इसके जवाब में व्यापार के प्रति ज्यादा प्रतिबंधात्मक रुख अपनाया गया है (शुल्कों में वृद्धि, नये गैर-शुल्कीय प्रतिबंध, चीनी उत्पादों पर प्रतिबंध आदि), और औद्योगिक निवेश पर सरकारी नियंत्रण वापस आ गया है. इस तरह के नियंत्रण में तमाम तरह के नीतिगत उपाय शामिल हैं— निवेश संबंधी सब्सीडी, उत्पादन के लिए प्रोत्साहन, शुल्कों के मामले में सुरक्षा, और बिजनेस घरानों को बढ़ावा. 1991 वाले सुधारों (जिन्हें वैसे भी पूरी तरह लागू नहीं किया गया) को पूरी तरह उलट नहीं दिया गया है मगर दिशा बदल गई है. सरकार की भूमिका घटने की जगह बढ़ने लगी है.   

महत्वपूर्ण बात यह है कि यह पश्चिम से बह रही हवा की दिशा में ही है. अमेरिका और दूसरे देशों में मैनुफैक्चरिंग के कमजोर पड़ने के बाद ऐसे ही नतीजे सामने आए हैं— बेहतर रोजगारों में कमी आई है, विषमता बढ़ी है, और चीन के मुक़ाबले कमजोरी बढ़ी है. इसलिए राजनीति ने लोकलुभावन रुख अपनाया है, तो अर्थनीति पर राष्ट्रवाद की छाया गहरी हुई है. मुक्त व्यापार के पूर्व चैंपियन ने ट्रंप (‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा देने वाले) और बाइडन सरीखे राष्ट्रपतियों के नेतृत्व में रास्ता दिखाया है और ऐसी नयी-पुरानी नीति का ऐसा घालमेल तैयार किया जिसके तहत व्यापार समझौतों को नये सिरे से लिखा जा रहा है, भारी निवेश के प्रोत्साहनों को झटका दे दिया गया है, और महत्वपूर्ण उद्योगों को स्थानीय स्तर पर सीमित रखने के कदम उठाए गए हैं. इसी के साथ, चीनी माल के आयात पर प्रतिबंध लगाए गए हैं और चीन को रणनीतिक टेक्नोलॉजी देने पर रोक लगा दी गई है. 


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इसके जवाब में यूरोप और पूर्वी एशिया की प्रमुख कंपनियों ने अमेरिका की ओर दौड़ लगाई, जहां दो साल के अंदर मैनुफैक्चरिंग में निवेश दोगुना बढ़ा दिया गया. उन क्षेत्रों के देशों ने विरोध किया, और अब वे अमेरिका की नकल करते हुए निवेश सब्सीडी दे रहे हैं और चीन के खिलाफ प्रतिबंध लगा दिए हैं. चीन ने जवाब में चेतावनी का तीर चला दिया है, उसने इलेक्ट्रॉनिक्स, बिजली वाले वाहनों और टेलिकॉम उत्पादों के सेक्टरों में काम आने वाले गैलियम और जर्मेनियम (क्या आपको पता है कि भारत इनका आयात करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है?) के निर्यात पर रोक लगा दी है. लेकिन चीन ने खुले बाजार तक पहुंच की वकालत करके मुक्त व्यापार के पैरोकार का चोला भी ओढ़ लिया है क्योंकि उसने बिजली वाले वाहन समेत उन सभी चीजों में निर्यात अधिशेष हासिल कर लिया है जिनकी दुनिया को अहम क्षेत्रों के लिए जरूरत है.  

चीन से खरीद को टालने के लिए सरकारें जो खर्च कर रही हैं वह बड़ा आकार ले चुका है. अमेरिका और यूरोप में बिजली वाले हरेक वाहन पर करीब 7,500 डॉलर की सब्सीडी देनी पड़ रही है. इंटेल को चिप का संयंत्र लगाने के लिए जर्मनी से 10 अरब डॉलर मिले हैं. जनरल इलेक्ट्रिक जैसी कंपनियां, जिन्होंने कभी  मैनुफैक्चरिंग पर ज़ोर देना कम कर दिया था, अब फिर से इस खेल में शरीक हो गई हैं. प्रमुख सेक्टरों में मैनुफैक्चरिंग की नयी सुविधाओं में अब सैकड़ों अरब डॉलर का निवेश होने की उम्मीद है. 

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क्या इन नीतियों का अच्छा परिणाम मिलेगा? एक तो खपत से ज्यादा उत्पादन का खतरा मंडरा रहा है, जिसके चलते व्यापार संघर्ष छिड़ सकता है. बिखरे, सब्सीडी पर चल रहे, संरक्षित बाज़ारों पर इसका क्या असर पड़ेगा? शुल्कों में वृद्धि से क्या सामान महंगे नहीं होंगे, और मुद्रास्फीति नहीं बढ़ेगी? चीन से अलगाव की मूर्खतापूर्ण बातों की जगह अब जोखिम कम करने और विविधता तथा विस्तार जैसे लक्ष्यों की बातें तो हो रही हैं लेकिन जैसे को तैसा देने और पड़ोसियों को नुकसान पहुंचाने वाली सब्सीडी की कोशिशें हो सकती हैं. इससे सरकारों पर कर्ज और बढ़ेगा. इसलिए पश्चिम की हवा पूरब की हवा पर हावी नहीं हो पाएगी, बल्कि यह तूफान का अपशकुन बन सकता है. 

दूसरे देशों की तरह भारत भी ऐसी ही नीतियों पर चल रहा है लेकिन उसे काफी जद्दोजहद करनी पड़ रही  है. कहा जा सकता है कि विस्तार और सप्लाई (वह भी जरूरत से ज्यादा) को जोखिम मुक्त करने की ज़िम्मेदारी दूसरे देशों की होगी इसलिए यह सब ठीक है. ऐसे परिणाम के कारण भारत रोजगार तो आगे बढ़ा सकता है लेकिन मैनुफैक्चरिंग पर ज़ोर देने के लिए आयात का विकल्प तैयार करने का मुख्य लक्ष्य पीछे पड़ जाएगा, और संभवतः दोनों बातें पूरी हो सकेंगी (जैसा मोबाइल फोन निर्माण में हुआ). लेकिन भारत को बड़ा देश होने के कीड़े ने अच्छी तरह डंस लिया है और वह निर्यात का विकल्प एक बार फिर बैसाखियों पर हासिल करने का निश्चय कर चुका है.

(व्यक्त विचार निजी हैं. बिजनेस स्टैंडर्ड से स्पेशल अरेंजमेंट द्वारा)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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