भारत के 77वें सेना दिवस पर सेनाध्यक्ष जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने 2025 को ‘सुधारों का वर्ष’ के रूप में मनाने की रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की योजनाओं को रेखांकित किया. इस पहल के तहत सेना ने उन पांच प्रमुख क्षेत्रों (‘की रिजल्ट एरियाज़’, ‘केआरए’) की पहचान की है जिनमें नतीजे हासिल किए जा सकते हैं. ये क्षेत्र हैं — संयुक्त एवं एकजुट कार्रवाई; सेना का पुनर्गठन; आधुनिकीकरण एवं टेक्नोलॉजी का समावेश; सिस्टम्स और प्रक्रियाएं और मानव संसाधन प्रबंधन. इस मौके पर एक स्थान पर भाषण देते हुए रक्षा मंत्री ने जोर देकर कहा कि भू-राजनीतिक परिदृश्य जिस तरह बदल रहा है उसके मद्देनज़र मौजूदा और भावी चुनौतियों का सामना करने के लिए तेजी से आधुनिकीकरण करना बहुत ज़रूरी है.
इनमें सबसे महत्वपूर्ण ‘केआरए’ है — आधुनिकीकरण एवं टेक्नोलॉजी का समावेश, क्योंकि इसमें पूंजी की ज़रूरत है और पूंजी खर्च के असंख्य नियम और उप-नियम बने हुए हैं. इनमें सबसे पहला है ‘डिफेंस एक्विजीशन प्रोसीजर’ (डीएपी) 2020’. ‘डीएपी 2020’ करीब 700 पेज का विशाल ग्रंथ है जिसे पढ़ पाना मुश्किल है और समझना उससे भी ज्यादा मुश्किल है. यह 400 पेज वाले ‘डीएपी 2015’ की जगह आया है. रक्षा सचिव राजेश कुमार सिंह कबूल करते हैं कि इस नीति में कमियां हैं. वे बताते हैं कि अगले छह महीने या एक साल के अंदर ‘डीएपी’ को पूरी तरह बदल दिया जाएगा, ताकि उस व्यवस्था को दुरुस्त किया जा सके जिसे देरी और कार्यकुशलता में कमी के लिए दोषी ठहराया जाता है.
सेना कोई भी हो, उसमें पुराने पड़ चुके और अत्याधुनिक हथियार तथा साजोसामान साथ-साथ मौजूद होते ही हैं. इनका अनुपात इस तरह होता है: 30 फीसदी हथियार तथा साजोसामान सबसे नए, 40 फीसदी चालू हाल में, और 30 फीसदी ऐसे जो अपनी उपयोगिता खोने के कगार पर पहुंच रहे होते हैं. अत्याधुनिक हथियारों का अनुपात जैसे-जैसे बढ़ता है, पुराने हथियार आदि वैसे-वैसे खारिज किए जाते हैं. यह अनुपात साजोसामान और टेक्नोलॉजी की उपयोगिता के मामले में भी देखा जा सकते है.
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खरीद की समय सीमा
टैंक या तोप जैसे प्लेटफॉर्म का जीवनकाल 30-40 साल लंबा हो सकता है, लेकिन संचार एवं इलेक्ट्रोनिक युद्ध के सिस्टम को करीब हर दस साल पर बदलना पड़ सकता है, लेकिन नया सिस्टम समय पर नहीं लाया जाता तो यह अनुपात बिगड़ सकता है. भारत में खरीद की लंबी और जटिल प्रक्रिया के चलते यह अनुपात 15:50:35 का हो गया है.
खरीद की लंबी प्रक्रिया के दूसरे परिणाम भी मिलते हैं. किसी सिस्टम को जब तक अपनाया जाता है तब तक उसकी टेक्नोलॉजी पुरानी पड़ चुकी होती है, भले ही वह बिलकुल नया क्यों न हो. रक्षा खरीद काउंसिल किसी नए प्लेटफॉर्म की ज़रूरत को मंजूरी देने का जब ‘एओएन’ जारी करती है और उसे जब शामिल किया जाता है इन दो प्रक्रियाओं के बीच फिलहाल दस साल तक का समय लगता है. वह प्लेटफॉर्म नया हो सकता है मगर उसे किसी भी तरह अत्याधुनिक नहीं कहा जा सकता. इसलिए वक्त की मांग है कि खरीद की प्रक्रिया कम समय में पूरी की जाए ताकि नयी सिस्टम जब समय के तालमेल में हो तभी उसे सेवा में लगाया जा सके.
‘एओएन’ प्रारंभिक मंजूरी है और खरीद प्रक्रिया कई चरणों में पूरी होती है जिनमें विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाना, वित्तीय मंजूरियां हासिल करना, और प्रतिस्पर्द्धी बोली लगवाना शामिल है और पेंच इसी में है. हरेक कदम पर मंजूरी ज़रूरी है और हरेक चरण की रक्षा मंत्रालय के अंदर ही विभिन्न शाखाओं द्वारा कई स्तरों पर जांच ज़रूरी है. हर एक शाखा हर एक प्रस्ताव की ‘डीएपी’ में दर्ज शर्तों के आधार पर जांच करती है और इसमें कोई कोताही नहीं बरती जा सकती. इस वजह से पूरी प्रक्रिया बिलकुल सख्त बन जाती है. इस सबका परिणाम यह होता है कि हर एक ‘एओएन’ के आधार पर करारनामे पर दस्तखत हो जाए और सप्लाइ के ऑर्डर जारी कर दिए जाएं यह ज़रूरी नहीं है.
उदाहरण के लिए दिसंबर 2022 में, ‘डिफेंस एक्विजीशन काउंसिल’ ने 84,328 करोड़ रुपये मूल्य के 24 कैपिटल एक्विजीशन के प्रस्ताव के लिए ‘एओएन’ जारी किए. कागज़ पर तो यह बहुत अच्छा नज़र आता है, लेकिन कितने ‘एओएन’ करारनामों में परिवर्तित हुए इसकी दर पर गौर करना बाकी है. केवल ‘एओएन’ जारी किए जाने से सुरक्षा या उपलब्धि का झूठा संतोष नहीं होना चाहिए. असली बात तो यह है कि असली उपभोक्ता थल सेना, वायु सेना, नौसेना के पास सामान पहुंचे या नहीं.
सामान महत्वपूर्ण या प्रक्रिया?
ताज़ा रिपोर्टों से पता चलता है कि यह वित्त वर्ष समाप्त होने से पहले कुछ बड़े सौदों पर दस्तखत होंगे, जिनमें ‘एडवांस्ड टोड आर्टिलरी गन सिस्टम (एटग्स)’ की खरीद शामिल है. अगर यह सौदा हो जाता है तो इसके 18 महीने बाद से डेलीवरी शुरू हो जाएगी. ‘एओएन’ जारी होने और डेलीवरी के बीच 10 साल का समय तो लग ही जाएगा.
राफेल विमानों के मामले में भी ऐसा ही हुआ था.
रक्षा मंत्रालय ने इन विमानों की खरीद की मंजूरी 2012 में ही डी थी, जबकि इसके लिए ‘एओएन’ इससे काफी पहले जारी किया गया था, लेकिन यह सौदा विवादों में उलझ गया और काफी उथल-पुथल के बाद दो देशों की सरकारों के बीच इन 36 विमानों के सौदे पर दस्तखत 2015 में किया गया, जबकि कई भूमिकाएं निभाने वाले ये लड़ाकू विमान 126 की तादाद में चाहिए थे. इसमें एक तरह से ‘डीएपी’ की अनदेखी की गई. अंततः करारनामे पर 2016 में दस्तखत किए गए और भारत के आकाश में राफेल विमान ने 2022 में पहली उड़ान भरी जबकि कोविड-19 के कारण लॉकडाउन लागू था. 2007 में ‘एओएन’ जारी होने के बाद डेलीवरी 2020 में हुई यानी 13 साल लग गए.
अगर वास्तव में इसे ‘सुधारों का साल’ बनाना है, तो सबसे पहला तथा सबसे बड़ा कदम होगा खरीद प्रक्रिया को बदलने का. इसे न केवल सरल बनाना होगा बल्कि सेना मुख्यालय को कहीं ज्यादा अधिकार सौंपने होंगे ताकि विभिन्न स्तरों पर जांच के बिना खरीद में तेज़ी लाई जा सके, जैसा कि सेनाओं को खरीद के आपात अधिकार देने के समय किया गया था. तब, सभी औपचारिकताओं का सावधानी से पालन करने के बाद भी 24 महीने के अंदर करारनामे पर दस्तखत भी हुए और डेलीवरी भी हासिल हुई थी.
सामान को, सामान हासिल करने की प्रक्रिया से ज्यादा तरजीह देनी ही पड़ेगी.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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