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Tuesday, 17 December, 2024
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कोबाल्ट, तांबा, चीन ही नहीं भारत को कांगो में बर्बर हिंसा पर भी ध्यान देना चाहिए

सुरक्षा के लिए भाड़े के सैनिकों का इस्तेमाल परोक्ष युद्ध, औपनिवेशिक युग वाली बर्बरता को बुलावा देना है. भारत जैसे लोकतांत्रिक देश को आर्थिक दांव के मद्देनजर इसमें महज तमाशबीन बनकर नहीं रहना चाहिए.

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उस तस्वीर ने दुनिया का दिल दहला दिया था. फोटोग्राफर एलिस सीले ने 1904 में लिखा था, ‘उसने रबर निकालने का दिन का अपना कोटा नहीं पूरा किया था इसलिए बेल्जियन ओवरसियरों ने पांच साल की उसकी बेटी बोयली के हाथ-पैर काट डाले थे. उन्होंने उसे मार डाला था. वे इतने पर नहीं रुके, उन्होंने उसकी बीवी को भी मार डाला. इतनी क्रूरता उन्हें अपनी बात जताने के लिए काफी नहीं लगी तो उन्होंने उनका मांस तक खा डाला और उन जीवित प्राणियों के जो अवशेष बचे उन्हें उनकी प्यारी संतान एन’सला को सौंप दिया.’

पिछले महीने हजारों शरणार्थियों को लोकतांत्रिक गणराज्य कोंगो के उत्तरी सूबे किवू में ‘एम-23’ नामक बागी गिरोह के हमलों से जान बचाकर भागना पड़ा. खबर है कि इन बागियों ने व्यापक पैमाने पर आतंक मचा रखा है, बलात्कार कर रहे हैं, बिना सुनवाई के फांसी दे रहे हैं, और पीड़ितों को मानव मांस पकाने और खाने को मजबूर कर रहे हैं. इस हिंसा को रोकने के लिए अब पूर्वी अफ्रीकी शांति सेना को तैनात किया गया है, लेकिन कहना मुश्किल है कि वे इसमें सफल हो पाएंगे या नहीं, और कितने दिनों तक हिंसा रोक पाएंगे.

करीब सौ साल पहले, कोंगों की विशाल रबर की खेती ने उपनिवेशवादी बेल्जियम की बर्बरताओं को उभार दिया था. कोंगो के पास जो खनिज संपदा है वह आज भी उसके लिए अभिशाप बना हुआ है. उसके पास दुनिया में कोबाल्ट के कुल भंडार का एक तिहाई हिस्सा मौजूद है. कोबाल्ट मोबाइल फोन से लेकर कारों तक में जान डालने के काम आता है. इसके अलावा उसके पास एलेक्ट्रोनिक सर्किट बोर्ड बनाने में इस्तेमाल होने वाले कोलंबो-टेंटालाइट का विशाल खजाना तो है ही; लीथियम, टिन, सोने और हीरे का भी अच्छा-खासा भंडार मौजूद है.

कोंगो में चल रहे संघर्ष का भारतीय अखबारों में भूले से भी जिक्र नहीं होता. भारत जबकि अपना औद्योगिक आधार बढ़ाने और सप्लाइ-चेन मजबूत करने की कोशिश में जुटा है, उसके लिए इन पर ध्यान देना जरूरी है, वरना नागवार नतीजे हासिल हो सकते हैं.

विदेशी खनन कंपनियां अपने निवेश की सुरक्षा के लिए भाड़े के लोगों को ले जाने के लिए जाने जाते रहे हैं. पिछले साल उस वीडियो को लेकर काफी हंगामा मचा था जिसमें एक चीनी खनन कंपनी के भाड़े के लोगों को उन स्थानीय लोगों पर कोड़े बरसाते दिखाया गया था जो कथित रूप से तांबे की चोरी के लिए घुसपैठ कर रहे थे. यह पूरी दुनिया के लिए एक समस्या हो सकती है, केवल मानवाधिकारों के मामले में नहीं.


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खूनखराबे का रास्ता

दुनिया में हुए अधिकतर युद्धों की तरह, कोंगों का संकट भी क्षेत्रीय ताकतों ने पैदा किया है. ‘एम-23’ जैसे बागी गिरोह खनिजों को कोंगों से यूगांडा, रवांडा जैसे पड़ोसी देशों में पहुंचाने वाले अनौपचारिक मार्गों पर नियंत्रण रखते हैं. यानी, बागी अपने पड़ोसियों के लिए भाड़े के सैनिक की भूमिका निभाते हैं. इस साल के शुरू में, इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस ने यूगानदा को आदेश दिया कि 1998 से 2003 तक सोना, हीरा और लकड़ी की लूट के लिए परोक्ष युद्ध छेड़ने पर वह कोंगों को 32. 5 करोड़ डॉलर का मुआवजा भुगतान करे.

कोंगों के पड़ोसी देश चोरी की आरोपों का खंडन करते हैं लेकिन आंकड़े दूसरी कहानी कहते हैं. युगांडा से होने वाले कुल निर्यात में सोने का हिस्सा 40 फीसदी हो गया है, जबकि उसके अपने केंद्रीय बैंक का नुमान है कि वह 1.7 अरब डॉलर मूल्य का जो सोना निर्यात करता है उसका दसवां हिस्सा ही उस देश में खनन से हासिल होता है. जाहिर है, बाकी हिस्सा पड़ोसी कोंगों से आता है. इसी तरह, रवांडा कोलंबो-टेंटालाइट का बड़ा उत्पादक नहीं है फिर भी वह इसकी तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक है.

विशेषज्ञ जेसन स्टेयर्न्स का कहना है कि ‘एम-23’ के अभियान का सबसे तात्कालिक कारण रणनीतिक है. कोंगो-यूगांडा ने कासिनदी से बेनी और बूटेंबो तक, और बुनागाना से गोमा तक यूगांडा की सेना की सुरक्षा में सड़कें बनाने का समझौता किया है, जो कोंगो को अपने पूर्वी पड़ोसियों के साथ जोड़ देंगी. ये खनिजों की सीमापार आवाजाही को नियमित और टैक्स के दायरे में लाने में भी मददगार होंगी.

रवांडा में यूगांडा की सेना की तैनाती को रणनीतिक खतरे के रूप में देखा गया. फरवरी में राष्ट्रपति पॉल कागामे ने संसद में दिए अपने भाषण में जवाबी कार्रवाई की चेतावनी दी, ‘हमें जो करना चाहिए वह हम किसी की सहमति से या किसी की सहमति के बिना भी कर डालते हैं.’


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स्थानीयता और संघर्ष

युद्ध केवल विदेशी दखलंदाजी के कारण ही नहीं होता. केस्पर हॉफमैन और क्रिस्टोफ वोगेल सरीखे विद्वानों का कहना है कि ‘एम-23’ जैसे बागी सेनाओं ने तमाम तरह के स्थानीय संघर्षों का खूब फायदा उठाया है, जो उपनिवेश काल से जारी हैं. तानाशाह शासक मोबुटू सेसे सेको ने, जिसे 1996 में सत्ता से हटा दिया गया था, रवांडा मूल के कोंगोली बान्यामुलेंगे की नागरिकता छीन कर स्थानीय संघर्ष को भड़काया था. स्थानीय टुत्सी जाति के नेतृत्व में ‘एम-23’ के कमांडरों ने रवांडा पैट्रियोटिक फ्रंट के साथ मिलकर लड़ाई लड़ी और रवांडा में जनसंहारक हुटु राज का तख्ता पलट दिया था.

इस क्षेत्र में स्थानीय टकरावों के कारण इस तरह की कई बागावतें चल रही हैं. ‘इस्लामिक स्टेट’ से जुड़ा ‘एलायड डेमोक्रेटिक फोर्स’ (एडीएफ) ने बड़े पैमाने पर जनसंहार किए हैं. एडीएफ का जन्म यूगांडा के बोकांजो के रवेनजुरुरु स्थानिक, राष्ट्रवादी आंदोलन में से हुआ. यूगांडा की सेना महीनों तक कोंगो में एडीएफ पर हमले करती रही लेकिन कोई उल्लेखनीय सैन्य सफलता नहीं मिली. कोंगों के उत्तर-पूर्व में भी कई बागी सक्रिय हैं. और बुरुंडी से सटे फिजी में भी परोक्ष युद्ध चल रहा है.

बागियों से लड़ाई के कारण दूसरे देशों को कोंगो से भी लड़ना पड़ा है. इस साल के शुरू में, बुरुंडी की सेना और सहायक लड़ाके रुजुसी नदी पार करके रवांडा में घुस गए थे और ‘रेड-टाबरा’ बागियों के खिलाफ गुमिनो और ट्विगवानेहो से जा मिले थे. ‘रेड-टाबरा’ ने अपने बचाव के लिए बुरुंडी के दूसरे बागी गुट ‘फोर्सेस नेशनल्स डि लिबरेशन’ से हाथ मिला लिया.

कमजोर हस्तक्षेप

‘एम-23’ की कहानी कैसे खत्म होगी यह स्पष्ट नहीं है, इसका तो एक दशक पहले ही उपसंहार हो जाना चाहिए था. 2013 में मार्च से नवंबर के बीच चले ऑपरेशन में संयुक्त राष्ट्र ‘ऑर्गनाइज़ेशन स्टैबिलाइजेशन मिशन’ और ‘फोर्स इंटर्वेन्शन ब्रिगेड’ ने, जिसमें तंजानिया, मालवा और दक्षिण अफ्रीका के सैनिक शामिल थे, ‘एम-23’ को कुचल दिया था. क्षेत्र में ‘द टर्मिनेटर’ नाम से मशहूर इसके नेता जॉन बोस्को एनतागांडा पर युद्ध संबंधी अपराधों के लिए मुकदमा चलाने के लिए इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट के हवाले कर दिया गया था। उसके गुट के बाकी लोगों ने यूगांडा में समर्पण कर दिया था.

‘एम-23’ के पुनर्जन्म का सबक यही है कि नयी बगावत फिर से सिर उठा लेगी अगर विश्व समुदाय सुरक्षा का प्रभावी ढांचा नहीं तैयार करता.

हाइड्रोकार्बन से लेकर खनिजों तक दुनिया के सबसे मूल्यवान संसाधन उन्हीं देशों में पाए जाते हैं जो संघर्षों से त्रस्त हैं. सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भाड़े के सैनिकों पर छोड़ना परोक्ष युद्धों और उपनिवेश काल की बर्बरता का रास्ता साफ करता है. इस क्षेत्र में अपना आर्थिक दांव रखने वाले दूसरे लोकतांत्रिक देशों की तरह भारत भी तमाशाई बना रहा है.

शांति बहाली की संयुक्त राष्ट्र की पारंपरिक व्यवस्था के पास न तो पर्याप्त संसाधन है और न संस्थागत ढांचा कि वह देश के निर्माण की दीर्घकालिक प्रक्रिया चला सके. इस विफलता के परिणामस्वरूप कोंगो में हुई लड़ाई इतनी बड़ी कीमत वसूल सकती है जिसकी दुनिया ने कल्पना भी नहीं की होगी.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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