इस सप्ताह ‘हिंदू’ अखबार ने खबर दी कि भारत और चीन के गश्त दलों के बीच मई के पहले सप्ताह में आमना-सामना हो गया. यह घटना गलवान घाटी में बनाए गए तीन किलोमीटर लंबे बफर जोन में घटी. यह बफर जोन 15/16 जून 2020 को दोनों देशों के सैनिकों के बीच मध्ययुगीन किस्म की बर्बर हाथापाई के बाद बनाया गया था, जिसमें भारत के 20 और चीन के अज्ञात संख्या में (अधिकृत रूप से घोषित चार) सैनिक मारे गए थे. जाहिर है, गश्त पर 30 दिनों की रोक के बाद से दोनों सेनाएं अक्सर अलग-अलग समय पर अपनी दावा रेखाओं तक गश्त लगाया करते थे. लेकिन इस बार ऐसा लगता है कि दोनों गश्ती दल आमने-सामने आ गए, मगर पारंपरिक प्रोटोकॉल के तहत स्थिति को सामान्य बना लिया गया.
मेरे विचार में यह एक मामूली मसला है. लेकिन सेना ने उन अज्ञात ‘सूत्रों’ का खंडन करते हुए कथित रूप से उन पर जो आरोप लगाया कि वे ‘पूर्वी लद्दाख में विवादों को निबटाने की प्रक्रिया को पटरी से उतारने की कोशिश कर रहे हैं” उसने वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीनी हमले से निपटने की भारत की राजनीतिक तथा सैन्य रणनीति की खामियों को उजागर कर दिया. चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ (सीओएएस), चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) और विदेश मंत्री ने पिछले सप्ताह बैठक में इस बात पर विचार किया कि भारत क्या रुख अपनाए.
आला अधिकारियों के बयान
‘सीओएएस’ जनरल एमएम नरवणे ने 19 मई को सीएनएन न्यूज़18 को दिए इंटरव्यू में कहा कि ‘दोनों पक्ष सेना की वापसी की सभी शर्तों का पूरी तरह पालन कर रहे हैं. किसी तरह का कोई उल्लंघन नहीं हो रहा है और प्रक्रिया जारी है.’ टीवी एंकर ने जब खासकर 2 मई को गलवान घाटी में गश्ती दलों के बीच हुई टक्कर के बारे में पूछा तो उन्होंने इसका साफ खंडन किया. उन्होंने कहा कि सेनाओं की वापसी की प्रक्रिया ‘अब तक सदभावपूर्ण’ रही है, और उन्हें उम्मीद है कि पिछले तीन महीने में जो भरोसा बना है वह भारत और चीन को ‘दूसरे इलाकों के उन मसलों में भी आगे कदम बढ़ाने’ में मदद करेगा. जब उनसे पूछा गया कि एलएसी पर कितनी सेना तैनात है, तो उनका कहना था कि संख्या वही है जितनी तब थी जब पिछले साल टकराव अपने चरम पर था—पूर्वी लद्दाख और उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, दोनों में 50 से 60 हजार के बीच.
जनरल नरवणे ने कहा, ‘सेनाओं की वापसी हुई है लेकिन तनाव नहीं खत्म हुआ है. इसलिए लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक पूरे मोर्चे पर सेना की मौजूदगी बनी हुई है. दीर्घकालिक नजरिए से भी हमें सेना को कभी भी तैनात करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा.’
सीएनएन न्यूज़18 को दिए दूसरे इंटरव्यू में सीडीएस बिपिन रावत ने कहा, ‘भारतीय सेना को ज़िम्मेदारी सौंपी गई है कि वह हमारी सरहदों की अक्षुण्णता को बनाए रखे और हमारी जमीन का कोई भी हिस्सा बिना युद्ध के हमसे न खोए. सेनाध्यक्षों ने और मैंने भी कहा है कि हमें हमेशा तैयार रहने की जरूरत है और हमारे विरोधियों की किसी भी दुस्साहस का सख्ती से जवाब दिया जाए.’
विदेश मंत्री एस जयशंकर ने ‘इंडियन एक्स्प्रेस-फाइनांसियल टाइम्स’ के एक आयोजन में कहा, “मेरे विचार से, संबंध अभी चौराहे पर हैं. हम किस दिशा में जाएंगे यह इस पर निर्भर होगा कि चीन आम सहमति का पालन करेगा या नहीं, वह समझौतों का पालन करेगा या नहीं, जो हम कई दशकों से करते रहे हैं. आप जानते हैं, पिछले साल स्पष्ट हो गया था कि दूसरे क्षेत्रों में सहयोग के साथ सेमाओं पर तनाव नहीं चल सकता.’
भारतीय रणनीति के आयाम
सेना के टॉप ब्रास के बयानों से लगता है कि हमारी रणनीति ‘उम्मीद पे दुनिया कायम है’ वाली है. जयशंकर कहते हैं कि सरहदों पर तनाव रहते हुए चीन के साथ ‘सामान्य कारोबार’ नहीं चल सकता. लेकिन चीन तो हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी बना हुआ है. हमने चीनी ऐप्स पर जो रोक लगाई है और उसकी फ़र्मों को 5जी की बोली लगाने से प्रतिबंधित कर दिया है उनका मामूली असर ही पड़ेगा, जैसे हमने पाकिस्तान से व्यापार बंद किया वैसा भी करें तो इससे चीन की जीडीपी पर नगण्य प्रभाव पड़ेगा लेकिन हमारी अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा. इसलिए, विदेश मंत्री के सार्वजनिक बयान चीन की रणनीति में बदलाव की मांग करते हैं, लेकिन उसका ऐसा कोई इरादा नहीं है.
‘सीओएएस’ को उम्मीद है कि पैंगोंग के उत्तर/दक्षिण तटों से सेनाओं की वापसी के ‘स्टैंडअलोन’ (स्वचालित) समझौते के बाद पिछले तीन महीनों में जो भरोसा पैदा हुआ है वह दूसरे क्षेत्रों में ‘मसलों’ को सुलझाने के लिए ‘आगे बढ़ने’ का मौका देगा. यानी वे यह मानते हैं कि चीन अप्रैल 2020 वाली स्थिति को बहाल करेगा, जिसमें बफर ज़ोन शामिल हो सकता है या नहीं भी हो सकता है. लेकिन, चीन का ऐसा कोई इरादा नहीं नज़र आता.
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सीडीएस ने बहुत सरलता से यह कहा कि भारत को अपनी जमीन पर कब्जा करने के विरोधियों के किसी भी दुस्साहस से हर हालत में सुरक्षा करनी चाहिए. बल्कि उन्हें इसके साथ यह भी जोड़ना चाहिए था कि ‘विरोधियों के अगले किसी दुस्साहस’ से सुरक्षा करनी चाहिए, क्योंकि देप्सांग के मैदानी इलाके में 600-800 वर्गकिलोमीटर, चार किमी चौड़ी कुगरंग नदी घाटी में 35-40 किमी, और डेमचोक के दक्षिण में चार्डिंग-निंग्लुंग नाला पर चीन मई 2020 से ही काबिज है.
सार यह कि हमारी रणनीति रक्षात्मक है और चीन की भावी कार्रवाई से तय होती है. हमारी कोई मंशा नहीं दिखती कि अप्रैल 2020 से पहले वाली स्थिति सैन्य तरीके से बहाल की जाए. कूटनीति को पीछे धकेल दिया गया है और कोर कमांडरों के स्तर की सेना-से सेना की वार्ताओं के अलावा संयुक्त सचिव के स्तर पर ‘वर्किंग मेकेनिज़्म फॉर कनसल्टेशन ऐंड कोऑर्डिनेशन ऑन इंडिया-चाइना बॉर्डर अफेयर्स (डब्लूएमसीसी) को तरजीह दी गई है. जब तक चीन खुद ही अप्रैल 2020 से पहले वाली स्थिति बहाल करने का अहसान नहीं करता तब तक हमारे ’50-60 हजार सैनिकों’ की तैनाती जारी रहेगी. गनीमत है कि एलएसी पर एलओसी की तरह तैनाती की योजना नहीं है, और मैं यह कहने की हिम्मत कर रहा हूं कि वैसी तैनाती की भी नहीं जा सकती. एलएसी के साथ का इलाका ऐसा है जिसकी रक्षा करने में हमारे सभी माउंटेन डिवीजन खप जाएंगे.
मेरा मानना है कि चीन के राजनीतिक और सैन्य लक्ष्यों के बारे में हमारी समझ साफ नहीं है; हमारी रणनीति खामियों से भरी है और हमारे दिमागी दिवालियापन को उजागर करती है.
चीनी रणनीति
चीन खुद को ज्यादा बड़ी ताकत मानता है और भारत को तब तक अपनी बराबरी का प्रतिस्पर्द्धी नहीं मानेगा जब तक भारत अपनी ‘कम्प्रिहेंसिव नेशनल पावर’ (सीएनपी यानी बृहद राष्ट्रीय शक्ति) बढ़ाकर उस स्तर पर नहीं लाता, जिस स्तर पर चीन का सीएनपी आज अमेरिका के मुक़ाबले में है. भारत के बारे में चीन की धारणा यह रही कि वह आर्थिक और सैन्य बढ़त के बिना अपनी कूवत से ज्यादा उछलकूद कर रहा है, इसलिए उसे उसकी हैसियत बता दी जाए. सरल शब्दों में कहें तो इसके अलावा भारत ने सीमा पर संवेदनशील इलाकों में अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत करना जो शुरू किया वह पूर्वी लद्दाख में उसकी आक्रामक पहल का तात्कालिक कारण बन गया.
भारत को उसकी औकात बताने के राजनीतिक मकसद को हासिल करने के लिए चीन ने अपने सैन्य लक्ष्य को सीमित किया और सिंधु घाटी को छोड़ कर 1959 की अपनी दावा रेखा तक के रणनीतिक महत्व के उन इलाकों को आगे बढ़कर कब्जे में कर लिया. इन अतिक्रमणों के कारण भारत के लिए बड़ा क्षेत्र युद्ध की स्थिति में सैन्य पकड़ से छूट गया. इस तरह चीन के लिए खतरा बनने वाले इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास पर भी इनके कारण रोक लग जाएगी. चीन युद्ध नहीं करना चाहता था और जमीन पर कब्जा करना भी उसका लक्ष्य नहीं था. यह इस बात से जाहिर होता है कि अप्रैल-मई 2020 में वह दौलत बेग ओल्डी (डीबीओ) सेक्टर, पैंगोंग के उत्तर-पूर्व में पूरे क्षेत्र, और लद्दाख रेंज तक सिंधु घाटी पर कब्जा कर सकता था. इसलिए उसने तनाव के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराया और उसने इतनी तैयारी कर ली थी कि अगर हमने दांव ऊंचा किया होता तो वह बदला ले सकता था.
इसी तरह, भारत कैलास रेंज (चूसुल और सिंधु घाटी सेक्टर), अने ला दर्रा और चूमर जैसे कब्जे से मुक्त इलाकों में सुरू से जैसे को तैसा जवाब देने की स्थिति में था. इससे रूडोक और नागरी खतरे में पद जाते, और तब चीन पर तनाव पैदा करने की आरोप लगाया जा सकता था. लेकिन राजनीतिक/फौजी दुविधा और झटका खाने के डर ने हमें रक्षात्मक रुख अपनाने और सेना के जमावड़े का तरीका अपनाने को मजबूर कर दिया. इस तरह, एक मौका चूक गया. ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि परमाणु शक्ति से लैस देश पारंपरिक युद्ध नहीं लड़ सकते. जब हमने चूसुल सेक्टर में केवल एलएसी के पास कैलास रेंज को सुरक्षित करने की कार्रवाई देर से की तो इसने चीनी सेना को ऊपर चढ़ने और कैलास रेंज के रिज़ पर हमें चुनौती देने की छूट दे दी. हमें जो मामूली सामरिक बढ़त मिली उसने अस्थिर डीबीओ और गोगरा-कुगरंग-हॉट स्प्रिंग्स सेक्टरों पर मंडराते रणनीतिक खतरे को दूर नहीं किया. इसलिए, फरवरी 2021 में पैंगोंग के उत्तर/दक्षिण को लेकर ‘स्टैंडअलोन’ समझौता हुआ.
यहां यह बताना उपयुक्त होगा कि चीनी सेना ने हमारी भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आइटीबीपी) या सेना की चौकियों पर कभी हमला नहीं किया. चूंकि डेमचोक में आइटीबीपी की चौकी है इसलिए चीन सिंधु घाटी से दूर रहा, जहां 1959 की दावा रेखा फुकचे से 30 किमी पश्चिम में और कोयुल घाटी के पूर्वी कोने से होकर गुजरती है. हमने कैलास रेंज पर कब्जा करके उसे उकसाया तब भी उसने बल प्रयोग नहीं किया. इसके अलावा, बड़ी ताकत होने के कारण चीन छोटे-से झटके को लेकर भी ज्यादा आशंकित रहता है और अब भारत की ओर से जैसे को तैसा जवाब मिलने के खतरे ने चीन को एलएसी के करीब सैनिक अड्डे बनाने को मजबूर किया है ताकि उसे संचार व्यवस्था के लिए 1000 किमी दूर शिंजियांग के भरोसे न रहना पड़े.
क्या हो सकती है रणनीति
परमाणु हथियार हमें चीन के हाथों निर्णायक हार से सुरक्षा प्रदान करते हैं. पाकिस्तान ने हमारे साथ जो किया है, वह हम चालाकी से चीन के साथ कर सकते हैं.
चीनी खतरे को बेअसर करने के लिए कूटनीति पर भरोसा करें. चीन से तब तक टक्कर न लें जब तक हमा री ‘सीएनपी’, खासकर उसके आर्थिक और सैन्य तत्व उस स्तर के न हो जाएं जिस स्तर के वे आज चीन के हैं. सीमा विवाद पर अपने रुख से कोई समझौता किए बिना आपसी आर्थिक संबंधों को बहाल करें. अमेरिका के साथ हमारी जो रणनीतिक साझीदारी है उसमें और चीनी भावनाओं के बीच संतुलन स्थापित करें.
1959 की दावा रेखा को सिंधु घाटी के सिवा सभी क्षेत्रों के लिए कबूल कर लें. वैसे भी यही नियति है. आगामी वार्ताओं में, देप्सांग और कुगरंग नदी-गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स क्षेत्रों में बफर ज़ोन को बहाल करने की कोशिश करें.
बड़े पैमाने पर फौज का जमावड़ा करके एलएसी को एलओसी में न बदल डालें. एलएसी पर आइटीबीपी की चौकियां बनाई जाएं, सभी गश्ती ठिकानों को आइटीबीपी की चौकियों में बदला जाए. आइटीबीपी को सेना के ऑपरेशनल कंट्रोल में रखा जाए. निगरानी को बिलकुल दुरुस्त करें ताकि हमें धोखे में पड़ना पड़े. रक्षात्मक कामों के लिए सैनिकों की संख्या बेहिसाब न बढ़ाई जाए.
हमारी मौजूदा तैनाती चीनियों को रोकने और मुंहतोड़ जवाब देने के लिए काफी है. एलएसी तक ‘मेन डिफेंस’ से पहले विशाल क्षेत्र की जरूरत को पूरा करने के लिए ‘इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप्स’ बनाए जाएं, जो एलएसी पर या उसके पार चीनी सेना को रोकने के लिए चुस्त और सक्रिय रहे. राष्ट्रीय सुरक्षा और सेना में समग्र सुधार किए जाएं ताकि हम चीन से पीछे न रहें, खासकर सैन्य टेक्नोलॉजी के मामले में.
मेरे विचार से उग्र राष्ट्रवाद और महाशक्ति होने के काल्पनिक दावे नरेंद्र मोदी सरकार को चीन के खिलाफ व्यावहारिक रणनीति अपनाने से रोकते हैं. जनता को वास्तविकता से परिचित कराना विवेकपूर्ण होगा और इसके साथ ही यह लक्ष्य तय करना बेहतर होगा कि हम वर्ष हम 2050 तक चीन को सबक सिखाने का राष्ट्रीय गौरव हासिल कर लेंगे. वह हमारी सदी की शुरुआत होगी.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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