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Friday, 1 November, 2024
होममत-विमतनए तरीके के राष्ट्रवाद पर आधारित होनी चाहिए आज़ादी की नई लड़ाई, सेक्युलरिज्म की मौजूदा भाषा से लोग दूर हो रहे

नए तरीके के राष्ट्रवाद पर आधारित होनी चाहिए आज़ादी की नई लड़ाई, सेक्युलरिज्म की मौजूदा भाषा से लोग दूर हो रहे

धर्मनिरपेक्षता की मौत के बारे में प्रताप भानु मेहता सही हैं लेकिन वह इस बात का जवाब नहीं देते कि हिंदू जनमत का पूरा स्पेक्ट्रम धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ क्यों हो गया.

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‘क्या ही शानदार जवाब मिले हैं! लेकिन, सवाल क्या था?’ 5 अगस्त के बाद सेक्युलरिज्म को लेकर जो संक्षिप्त मगर ठोस और धारदार बहस चली, उसे लेकर मेरे मन में यही प्रतिक्रिया उभरी. सेक्युलरिज्म को लेकर मैंने हाल के वक्त में जो लगातार लिखा-बोला है. उसी की टेक पर मैंने अयोध्या राम मंदिर के मसले पर एक त्वरित टिप्पणी की थी और उस टिप्पणी को लेकर ही ज्यादातर प्रतिक्रियाएं सामने आयीं. खुशी की एक बात ये रही कि टिप्पणी ने मेरे पसंदीदा राजनीतिक टिप्पणीकारों में से एक प्रतापभानु मेहता का ध्यान खींचा और उनकी एक बेहतरीन प्रतिक्रिया आयी लेकिन, मुझे नहीं लगता कि जिस असल सवाल का जवाब तलाशना है, वही सवाल प्रतापभानु मेहता के लेख में आ पाया है!

यहां बात अकादमिक हलकों में प्रचलित महीन नुक्ताचीनी की नहीं. भारत का भविष्य बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम भारतीय तर्ज के सेक्युलरिज्म से जुड़े इन तीन सवालों को कैसे बरतते और उनका जवाब तलाशते हैं: भारतीय सेक्युलरिज्म किस हाल में है? आखिर ऐसा क्या हुआ जो भारतीय सेक्युलरिज्म इस हाल को पहुंचा? और, भारतीय सेक्युलरिज्म के बाबत आगे का रास्ता क्या हो, क्या किया जाये?

मसले पर मैंने अपनी ज्यादातर टिप्पणियों में कहने की कोशिश की है कि भारतीय सेक्युलरिज्म बदहाली की सूरत में है. जो कोर-कसर बाकी थी वो साल 2019 के आते-आते पूरी हो गई है और अब हम अपनी नंगई पर इतराते एक ऐसे बहुसंख्यकवादी राजव्यवस्था को ऐन अपनी आंखों के आगे देख रहे हैं जिसने बड़ी कामयाबी से भारत के संविधान के सेक्युलर होने की कथा जिन्दा बचा रखी है. और, न्यायपालिका अगर बात को गंभीरता से नहीं लेती तो फिर बहुसंख्यकवादी राजव्यवस्था सेक्युलर संविधान के जीवित होने की कपोल-कथा को आगे भी यों ही चलाये-बनाये रखेगी.

सेक्युलर राज्य-व्यवस्था के पतन के लिए संघ-परिवार को दोष देने के चलन से अब मैं ऊब गया हूं. बीजेपी की आपराधिक करतूतों और आरएसएस के राष्ट्रविरोधी आचरण की बात मैं लिखते आ रहा हूं लेकिन साथ ही मैंने ये भी लिखा है कि हमारी सेक्युलरी जमात भी मौजूदा स्थिति के लिए जिम्मेवार है. इस क्रम में मैंने अपने लेखन में खास तौर पर अवसरवादी राजनेताओं और जड़-जमीन से एकदम ही कट चुके बुद्धिजीवियों को दोषी के तौर पर चिन्हित किया है. ये ही लोग अपने को सेक्युलरिज्म का रखवाला मानकर चलते हैं. इसलिए, आगे का रास्ता सिर्फ इतना भर नहीं कि राजनीतिक लड़ाई ठानकर मौजूदा सरकार को शासन से बाहर किया जाये. हमारी जरुरत लंबे समय तक चलने वाली एक सांस्कृतिक लड़ाई में भी जूझने की होनी चाहिए, एक ऐसी लड़ाई जिसमें सेक्युलरिज्म के मुहाफिज अपने जड़-जमीन की भाषा में बोलें, धर्म और परंपरा की भाषा के भीतर पैठकर उससे सांस्कृतिक लड़ाई के कुछ सबक सीखें.


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एक जैसे विश्लेषण

प्रतापभानु मेहता मेरे विश्लेषण के पहले हिस्से से जो सेक्युलरिज्म की मौत के बारे में है, असहमत नहीं. हाल में, सुहास पलशीकर ने भी इसी टेक पर अपनी प्रतिक्रिया दी है. हां, शेखर गुप्ता मेरे विश्लेषण से जरूर ही असहमत हैं. उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया में ध्यान दिलाया है कि सेक्युलरिज्म की मौत की बात तो पहले भी कई दफे कही गई है. बात तो ठीक है. लेकिन क्या फिर ये बात सच नहीं कि लोकतंत्र और सेक्युलिज्म सरीखे बड़े विचार एक मौत नहीं मरते, उनकी एक से ज्यादा मौत होती है? क्या हमारी जिम्मेवारी ये नहीं बनती कि हमारे राष्ट्र के गढ़न की बुनियाद रहे इन स्वप्नों की हर मौत के साथ इनके भीतर से खत्म होती जा रही मानीखेज बातों को दर्ज करें, उन्हें उलट-पलटकर देखें और दिखायें?

शेखर गुप्ता को लगता है कि सेक्युलरिज्म नहीं मरा अगर कुछ मरा है तो वो है अवसरवादी अल्पसंख्यकवाद जो सेक्युलरिज्म का मुखौटा पहने था. सो, इसकी मौत पर आंसू बहाने वाला कोई नहीं और न ही किसी को आंसू बहाना चाहिए. लेकिन क्या बात सिर्फ इतनी भर कह लेने से पूरी हो जाती है? या फिर ये मान लें कि रोजमर्रा के हिसाब से होने वाले भेदभाव की बातें, भीड़-हत्या की खबरें, नागरिकता को परिभाषित करता नया कानून और न्यायपालिका की हैरतअंगेज चुप्पी जैसी चीजें खुद में वैसी बड़ी और गंभीर नहीं हैं, उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है? क्या शेखर गुप्ता उस लम्हे के इंतजार में हैं जब धर्मसत्ता औपचारिक रूप से हमारी राजव्यवस्था पर कब्जा करेगी और लाल किले से ये ऐलान करेगी कि हां, अब सेक्युरिज्म की मौत हो गई? ऐसी कोई औपचारिक घोषणा तो होने से रही!

निदान जुदा-जुदा

सेक्युलरिज्म की मौत की बात कहती अपनी टिप्पणी में मैंने जो निदान विचारा है वह प्रतापभानु मेहता को ‘ऐतिहासिक रूप से दिक्कततलब, सैद्धांतिक रूप से निहायत कच्चा और सांस्कृतिक रूप से खतरनाक’ जान पड़ा. निश्चित ही मेरे निदान की यहां कठोर आलोचना की गई है! और, प्रतापभानु ने इस आलोचना के पक्ष में बड़े मजबूत तर्क दिये हैं. उन्होंने लिखा है: ये सोचना ऐतिहासिक रूप से गलत है कि हमारे देश में सांप्रदायिकता की समस्या धर्मतात्विक या धार्मिक संवाद के अभाव में पैदा हुई; मसला (सांप्रदायिकता का) राजनीतिक था और अब भी बना हुआ है और इस मसले का जन्म  ‘लोकतंत्र तथा राष्ट्रवाद की कोख से हुआ’ है.

इसी टेक पर प्रतापभानु मेहता ने लिखा है कि आज बहस धार्मिकता के स्वभाव को लेकर नहीं बल्कि ‘भारत नाम की विराट कथा के भीतर से मुसलमानों को धकियाकर एक किनारे किये जाने के’ सवाल पर है. वे लिखते हैं कि सच्चा धर्म क्या है, इसकी परिभाषा राजनीति तय करे तो ये बात नैतिक रूप से गलत कही जायेगी. बड़ी फिसलन भरी है वो सांस्कृतिक समझ जो ये मानकर चलती है कि हिन्दू धर्म और भारतीय भाषाओं की उपेक्षा हुई है क्योंकि ऐसी समझ हिन्दुओं के भीतर इस झूठी कथा को पालती-पोसती है कि उनके साथ दगा हुआ है, उन्हें ठगा गया है.

मैं प्रतापभानु मेहता की इस बात से लगभग सहमत हूं. दरअसल, मैं जब शिकायती स्वर में कहता हूं कि सेक्युलरवादियों को धर्म और परंपरा की भाषा की भीतर पैठकर बात करना गवारा न हुआ तो ऐसा कहते हुए एक पल को भी मैं ये मानकर नहीं चलता कि धर्म और परंपरा की भाषा में पैठकर सेक्युरवादी बात करते तो उनका ये काम आडवाणी को रथयात्रा करने से रोक लेता. सच्चा हिन्दू या फिर सच्चा मुसलमान कौन है, ये बात कोई राजनेता बताये, इस खयाल से मुझे भी कंपकंपी होती है. और हां, ये बात भी ठीक है कि सेक्युलरी तर्ज के आचार-विचार की सार्वजनिक आलोचना से एक लंबे समय तक मैंने अपने को रोक रखा था. मन में आशंका थी कि ऐसा करने पर दुष्प्रचार के चल रहे आग-लगाऊ बड़े अभियान में मेरी बातों को घी की तरह इस्तेमाल किया जायेगा. लेकिन, अब हम एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गये हैं कि सबके सामने खड़े होकर ईमानदारी से आत्म-परीक्षण करने के सिवाय कोई रास्ता ही नहीं.

सेक्युलरवादी एक बार इस सच का सामना करने को तैयार हो जाएं कि उनकी हार हो चुकी है या फिर वे इतना ही मानने को तैयार हो जायें जैसा कि राजीव भार्गव ने लिखा है कि सेक्युलरिज्म को तगड़ा झटका लगा है तो फिर सेक्युलरवादियों को खुद से कुछ सवाल करने होंगे, मसलन: हम राजनीतिक लड़ाई कैसे हारे? इस बाबत सेक्युलर राजनीतिक दलों की अवसरवादी और नकारा राजनीति के मत्थे दोष मढ़ना आसान है.

लेकिन यहां ज्यादा गहरा सवाल ये है कि हम विचारों की लड़ाई कैसे हार गये? विचारों की लड़ाई में हुई हार ने राजनीतिक हार की जमीन तैयार की. ऐसा क्यों हुआ कि हिन्दू जनता का मन-मानस सेक्युलरिज्म के खिलाफ मुड़ गया? प्रतापभानु मेहता की जहीन और महीन प्रतिक्रिया इस कठिन सवाल से नहीं जूझती. अगर प्रतापभानु मेहता इस कठिन सवाल से जूझना तय करें तो यकीन जानिये, वे मेरी इस बात से सहमत होंगे कि सारा दोष दक्षिणपंथियों के दुष्प्रचार अभियान के मत्थे मढ़ना ठीक नहीं. जो अपने को सेक्युलरिज्म का मुहाफिज समझते रहे, उन्हें भी जिम्मेवारी लेनी होगी.

जिन लोगों ने इतिहास की पाठ्य पुस्तकें लिखीं, जो लोग जनमत को शक्ल देने के जिम्मेवार रहे, जो लोग शिक्षा-व्यवस्था को चलाये-बनाये रखने के काम में लगे थे—वे सब के सब नाकाम रहे. हां, ‘हम जैसे लोग’ नाकाम रहे. हम नाकाम रहे क्योंकि हम लोगों से संवाद न बना सके. हम आम हिन्दू जनता के सहजबोध (कॉमनसेंस) से नाता न जोड़ सके और ऐसा हुआ तो इसलिए कि हम आम हिन्दू जनता की बानी-बोली में संवाद न कर पाये. जड़-जमीन से कट चुका सेक्युलर अभिजन देश की आम जनता से सामाजिक दूरी बनाये रहा, उसने सांस्कृतिक विरासत को अपनाया ही नहीं और उसके भीतर अपनी बुद्धि का दंभ लगातार किसी नाग की तरह फन काढ़े रहा. सेक्युलरिज्म आज बदहाली को पहुंचा है तो उसमें इन बातों का भी बड़ा योगदान है. विचार करके देखें, आप इस कड़वे निष्कर्ष से बच नहीं सकते.


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एक कथा और अनेक पाठ

प्रतापभानु मेहता को लगता है कि देश के अकादमिक जगत पर वाममुखी-उदारपंथी विद्वानों की पकड़ और पहुंच को मैं ज्यादा बढ़ाकर आंक रहा हूं. न, मैं ऐसा नहीं कर रहा. बात ठीक है कि ये विद्वान देश के चंद अकादमिक परिसरों तक सीमित थे लेकिन इन परिसरों में रहते हुए इन विद्वानों ने देश में मानविकी और समाज-विज्ञान में होने वाली उच्च शिक्षा का व्याकरण तैयार किया. एनसीईआरटी की किताबों की ज्यादातर राज्य-सरकारों के शिक्षा बोर्डों ने अक्षरश: नकल की. वाममुखी-उदारपंथी जमात के निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में चलने वाली मीडिया पर 1980 के दशक तक कब्जा रहा. प्रतापभानु ने हिन्दी के कई ऐसे चर्चित साहित्यकारों के नाम गिनाये हैं जो अपनी सोच-समझ से सेक्युलर थे. वे लिखते हैं: ‘आजाद हिन्दुस्तान में गैर-सेक्युलरी सोच के 10 बड़े हिन्दी लेखकों के नाम गिनाने चलें तो फिर इस फेहरिश्त को पूरा करना नामुमकिन हो जायेगा. मुझे लगता है, यही बात अन्य भारतीय भाषाओं के बारे में भी कही जा सकती है’. लेकिन, मैं भी तो यही याद दिला रहा हूं कि: देश-भाषा में लिखने वाले बुद्धिजीवियों ने सेक्युलरिज्म का दामन नहीं छोड़ा, सेक्युलर अभिजन ने अंग्रेजी से इतर किसी अन्य भारतीय भाषा में बौद्धिक कर्म करने वालों का संग-साथ तज दिया.

लग सकता है कि प्रतापभानु मेहता से मेरा ये पाठ-भेद ज्यादा बड़ा और मानीखेज न जान पड़े. लेकिन, जरा इस सवाल पर सोचें कि सेक्युलर अभिजन ने हिन्दू-धर्म के साथ अपने बर्ताव में क्या राह-रवैया अख्तियार किया? ये बात सच है कि बहुसंख्यकवाद की राह पर खूंटाठोंक अंदाज में चल निकली भारतीय राज्यसत्ता ने हाल के वक्त में ढेर सारी मनभावन कथाएं गढ़ी हैं और इन गढ़ी हुई कथाओं के रस का पान करने के कारण ही बहुसंख्यक समुदाय आज छातीकूट हाय-हाय के साथ ये कहते फिर रहा है कि देखो, हमारा धर्म ही हमारा मर्म हुआ करता है हमारी मर्मस्थली पर कितने घाव लगे हैं.

ये बात भी सच है कि सेक्युलरवादी हर धर्म के प्रति तटस्थ रहे हैं. लेकिन, आज हम एक असहज करते सवाल से बच नहीं सकते: क्या सेक्युलर इदारों में किसी अन्य धर्म की अपेक्षा हिन्दू-धर्म का मजाक उड़ाने का चलन ज्यादा नहीं रहा? क्या आज भी हिन्दू-धर्म को उसकी सबसे निकृष्ट अभिव्यक्ति जाति-व्यवस्था का पर्यायवाची मानकर देखने का चलन नहीं है? क्या हिन्दू-धर्म के प्रति सेक्युलर जमात का जो बर्ताव रहा है वो अपने रुझान में अंग्रेजी जमाने की याद नहीं दिलाता जब अंग्रेज शासन के तरफदार बुद्धिजीवी हिन्दू-धर्म को हंसी-मजाक का विषय बनाते थे? प्रतापभानु मेहता की ये चिन्ता वाजिब हो सकती है कि आज का वक्त हिन्दुओं के मान-मर्दन की कथा पर ध्यान केंद्रित करने का नहीं क्योंकि अगर ध्यान इस तरफ लगा तो फिर ये सच्चाई नजर से ओझल हो जायेगी कि अभी मुसलमानों को गली-मुहल्लों में रोजमर्रा के हिसाब से लांछित-अपमानित किया जा रहा है. लेकिन मुश्किल यह है कि ये दोनों बातें आपस में जुड़ी हुई हैं. सेक्युलर राजनीति ने बौद्धिक धरातल पर हिन्दू-धर्म को इतनी लानत भेजी है कि अब उसके (सेक्युलर राजनीति) पास वह सांस्कृतिक पूंजी बची ही नहीं जिसके सहारे वो ‘इस्लाम-भंजन’ और मुसलमानों को आये दिन तमाम बुराइयों की जड़ साबित करने के चलन से लड़ाई ठान सके.

आगे का रास्ता…?

ऊपर की तमाम बातें इस एक सवाल पर आकर ठहरती हैं कि आगे का रास्ता क्या हो, आखिर किया क्या जाये? प्रतापभानु का जवाब बड़ा लुभावना है: ‘व्यक्ति की गरिमा और अधिकारों को बचाये रखने के लिए एक नये स्वतंत्रता-संग्राम’ की जरूरत है. लेकिन, यह मददगार नहीं क्योंकि ऐसा कहने के बावजूद इसके पीछे की निराशा छुपाये नहीं छुप रही. हां, एक नये स्वतंत्रता-संग्राम ही की जरूरत है. इससे कम किसी भी चीज से काम नहीं चलने वाला. हां, हमें व्यक्ति की गरिमा और अधिकार की रक्षा के महासंग्राम में उतरना ही होगा. हां, हमें अपनी-अपनी आस्थाओं के नाम पर एक-दूसरे को टोना-ठोना देने के चलन से बचना होगा. लेकिन, ऐसा करें तो आखिर कैसे करें? आजादी के नये आंदोलन के लिए लोगों का समर्थन कैसे जुटायें? सेकुलरवाद के आदर्श की खोयी हुई वैधता को कैसे वापस पायें? चलो, मान लिया कि हमारा आदर्श राजनीति और धर्म को एक-दूसरे से एकदम परे रखकर चलने का है लेकिन इस आदर्श की तरफ जनता-जनार्दन का मन कैसे मोड़ें? जनमत को अपनी तरफ कैसे करें?

प्रतापभानु मेहता ने अपनी प्रतिक्रिया में धारदार और जानदार बातें लिखी हैं लेकिन उनकी बातों से मुझे ऊपर के इन सवालों का जवाब तलाशने में मदद नहीं मिलती जबकि ये ही सवाल हमारे समय के सबसे अहम सवाल हैं. इन सवालों के जवाब तक पहुंचने का कोई सस्ता-सुविधाजनक और झटपट का रास्ता नहीं है. हिन्दू सांप्रदायिकता की काट में बहुजन के बहुसंख्यकवाद को खड़ा करना या फिर क्षेत्रीय पार्टियों पर भरोसा पालना बहुत पुराना फार्मूला है, अब इस फार्मूले से काम नहीं चलने वाला. लोकतंत्र के दायरे में रहकर की जाने वाली ज्यादतियों से उबार के लिए हम चुनावी जोड़-जमा के गणित के भरोसे नहीं रह सकते. झटपट के सियासी फायदों का गुणा-भाग गैर-बीजेपी खेमे की राजनीतिक पार्टियों को बीजेपी की बिछायी बिसात पर चाल चलने की तरफ ढकेलेगा और ज्यादातर विपक्षी पार्टियां अब इसी रास्ते लगी दिखती हैं. इससे बीजेपी की हार नहीं होने वाली. बीजेपी की हार भले हो जाये लेकिन सेक्युलरवाद का आदर्श बीजेपी की बिछायी बिसात पर सियासत का खेल खेलने और उसे जीतने से नहीं बचने वाला. जो आर्थिक मसले लोगों को रोजमर्रा परेशान कर रहे हैं, उनके इर्द-गिर्द आंदोलन चलाने का रास्ता बचा हुआ है लेकिन सांस्कृतिक और विचारधारा के धरातल पर ये लोगों के बीच स्वीकार हो सके, ये भी देखना होगा.

जहरबुझे बहुसंख्यकवाद से सांस्कृतिक और विचारधारात्मक लड़ाई ठानने के अतिरिक्त कोई और रास्ता नहीं है. एक नये और कहीं ज्यादा आकर्षक राष्ट्रवाद का विचार गढ़ने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचा. और, इसके लिए जरूरी होगा वही तरीका अपनाना जो आरएसएस ने दशकों से अपनाया है: आम जन के साथ हमें संवाद स्थापित करने के कठिन डगर पर चलना होगा. भारत नाम के गणराज्य को बचाने के लिए हमें लोगों से उन्हीं की जुबान में संवाद करना होगा, एक ऐसा संवाद जो हमारे धर्म (और इसमें हिन्दू धर्म भी शामिल है) और संस्कृति के मुहावरों में चले और और हमारी धर्म-संस्कृति और परंपरा की पुनर्व्याख्या करें. धर्म की भाषा बोलने का मतलब हमेशा ये नहीं होता कि उसमें जप-तप और यम-नियम का सदुपदेश हो रहा है या फिर धर्म को राजनीति की सेवा में लगाया जा रहा है. हम जिसे धर्म या परंपरा कहते हैं, दरअसल, वही ज्यादातर भारतीयों की नैतिक-चेतना की वर्णमाला है.


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आप शब्दों से झगड़ा ठान सकते हैं लेकिन वर्णमाला से नहीं. वर्णमाला के शब्द पहले से मिले होते हैं. और, पहले से चले आ रही इसी वर्णमाला के सहारे आपको अपने मतलब के शब्द गढ़ने होते हैं. भारत जिस हद तक एक सुचिन्तित विचार का नाम है हमें उस हद तक इस विचार में बहुसंख्यकवाद से लड़ने के संकल्प को शामिल करना होगा. लेकिन, फिर ये बात भी याद रखनी होगी कि नये भारत को गढ़ने का विचार राष्ट्रवाद के दायरे से परे निकलते किसी हवा-हवाई, नकलची ‘कॉस्मोपोलिटेनिज्म’ का पिछलग्गू बनकर नहीं गढ़ा जा सकता. नये भारत का विचार हमें अपनी उन्हीं परंपराओं को आधार बनाकर गढ़ना होगा जो एक न्यायपूर्ण भविष्य के निर्माण में सहायक हैं. सेक्युलर राजनीति की मुख्य चुनौती यही है.

प्रतापभानु मेहता को लगता है कि मैं चाबी वहां नहीं ढूंढ़ रहा जहां वो खोयी थी बल्कि वहां ढूंढ़ रहा हूं जहां रोशनी है. और, वे ठीक ही सोच रहे हैं. मैं मानकर चल रहा हूं कि चीजों में तारतम्य बैठाकर सोचने और भविष्य की जिम्मेदारी लेने का जरूरी फर्ज उन्हीं को निभाना होगा जो सेक्युलर भारत के नाम की सौगंध उठाते हैं. जिनका सेक्युलर भारत के विचार से कोई राग और लगाव ही नहीं उनसे क्योंकर उम्मीद रखना. इतिहासकार के उलट राजनीतिक कार्यकर्ता को दरअसल चाबी वहां खोजनी चाहिए जहां रोशनी है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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4 टिप्पणी

  1. जनता से संवाद करना यही लाइन उचित लगी उसके अलावा पूरा लेख बकवास बातो का ढेर है।।इनके जैसे लोगो को लगता है कि भारत का भार इनके कंधो पर है।।
    भारत एक बहुत बड़ी सोच है जो इनके जैसे तुच्छ लोगो की समझ के बहुत दूर है।।।।

  2. कौन लिखा है इतना बकवास.. बहुत बेरोजगार आदमी है.. Secularism का मतलब क्या तुम लोग सिर्फ मुस्लिम समुदाय को खुश करने के लिए की गई कवायद को कहते हो.. अब जनता जाग रही है और झूठे secularism का जनाजा उठ रहा है.

  3. किसी की बात को कोड़ी बकवास कह देना,या यह कह देना कि लगता है इसी के कंधे पर पूरे भारत का भार है,वाचक की अज्ञानता दर्शाता है।समाज के दर्द का प्रस्फुटन संवेदनात्मक सोच वाले बुद्धिजीवियों के दिल में ही होता है।राजा राम मोहन राय से पहले भी बहुतों को विधवाओं का जिंदा जलाया जाना बुरा लगा होगा पर कोई खड़ा नहीं हुआ।राजा साहब सती प्रथा के खिलाफ खड़े हुए तो उन्होंने भी प्रथा त्याग दिया जो पहले प्रथा के समर्थक थे।आज वे दक्षिणपंथी लोग भी उसी संविधान के तहत सत्ता में आए जिसे उन्होंने कभी कबूल नहीं किया।
    कहने का मतलब ये कि परिवर्तन की लड़ाई ऐसे ही शुरू होती है।कभी असफल भी हो जाती है कभी सफलता भी मिलती है।सफलता मिल जाने पर वो भी साथ आ ही जाएंगे जो शुरू में विरोधी रहे।जरूरत है लड़ाई शुरू होने की

  4. सिर्फ मुस्लिमों को खुश करना सेक्युलरिज्म नहीं है तो बहुसंख्यक हिंदू लम्पटता को बर्दाश्त करना भी निरपेक्षता नहीं है।एक लाइन तो खींचना पड़ेगा जिसका अतिक्रमण कोई भी न करे ।शासन हो या जनता।वो लाइन खिची हुई है भी पर आज उसे ही नहीं माना जा रहा है।

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