लद्दाख टकराव के बारे में सबसे चौंकाने वाली बातों में से एक है नरेंद्र मोदी सरकार को चुनौती देने में भारत की विपक्षी पार्टियों का बेजान साबित होना. भारत की ज़मीन की रक्षा करने और लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर यथास्थिति बहाल करने में विफल रहने, और समग्र चीन नीति की भारी नाकामी के बावजूद, भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर अधिकांश दबाव पत्रकारों और विश्लेषकों के एक बेबाक समूह से आया है, न कि देश के विपक्षी दलों की तरफ से.
इसलिए जहां मोदी सरकार चीनी आक्रामकता को लेकर भ्रमित दिखती है, भारत की दुखद वास्तविकता विपक्ष का बेदम होना है कि जिसके लिए देश की ज़मीन गंवाने के अत्यंत भावनात्मक मुद्दे पर भी राजनीतिक लामबंदी संभव नहीं है. कमज़ोर विपक्ष के राष्ट्र की लोकतांत्रिक सेहत पर असर के बारे में तो बहुत चिंता दिखाई जा रही है, लेकिन इस बात की अनदेखी की जा रही है कि इसका भारत की विदेश नीति पर भी प्रभाव पड़ रहा है.
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विपक्ष की अहम भूमिका
वैसे तो विदेश नीति सरकार के कार्य क्षेत्र में आती है, लेकिन इस पर नज़र रखने में विपक्ष की अहम भूमिका होती है.
ये सच है कि मतदाता आमतौर पर विदेश नीति पर कम ध्यान देते हैं. अंतरराष्ट्रीय रणनीति संबंधी जटिल सवालों को राजनीति लामबंदी के लायक बना पाना भी शायद कठिन होता है लेकिन भौगोलिक अखंडता की रक्षा भावनात्मक महत्व का एक सरल मुद्दा है, जिसके सहारे विदेश नीति के मुद्दों को उठाना आसान हो जाता है. सरकार को रक्षात्मक मुद्रा के लिए विवश करने वाले मुद्दों के अभाव से जूझते विपक्ष को इसे एक ईश्वर प्रदत्त मौके के रूप में हाथोंहाथ लेना चाहिए था. भारत-चीन गतिरोध पर मोदी सरकार के कथानक को चुनौती देने में विपक्ष की नाकामी उसकी खुद की स्थिति के बारे में काफी कुछ कहती है.
हालांकि इसका मतलब ये भी नहीं है कि एक विश्वसनीय और प्रभावी विपक्ष ये सुनिश्चित कर सकता है कि लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार से विदेश नीति संबंधी कोई गलती नहीं हो. वास्तव में विरोध करना प्राथमिक उद्देश्य होने के कारण, एक प्रभावी विपक्ष सरकार को गलत दिशा में धकेलने का काम भी कर सकता है. भारत के हालिया कूटनीतिक इतिहास में इसके कई उदाहरण हैं: भाजपा ने कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ मिलकर अमेरिका-भारत परमाणु समझौते को लगभग खत्म ही कर दिया था, हालांकि 2009 में उसके नेताओं ने अमेरिकी दूतावास को आश्वस्त किया कि पार्टी द्वारा समझौते का विरोध केवल रणनीतिक था. जब यह प्रयास सौभाग्यवश विफल हो गया तो उन्हीं विपक्षी दलों ने एक बेतुके परमाणु दायित्व विधेयक के लिए ज़ोर लगा दिया जिसके परमाणु समझौते के कई लाभ अभी तक अप्राप्य हैं.
एक और भी अधिक गंभीर समस्या यह है कि भारत के समक्ष मौजूद परिस्थितियां और विदेश नीति पर मंथन के लिए उपलब्ध सांस्कृतिक संसाधन, दोनों ही नए विचारों को सीमित कर सकते हैं. देश अक्सर विदेश नीति में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं करते हैं: पूरे शीत युद्ध काल में अमेरिका में डेमोक्रेट और रिपब्लिकन के बीच व्यापक उद्देश्यों या रणनीति की बजाय युक्तियों के ऊपर अधिक मतभेद था. भारत में भी विदेश नीति में निरंतरता रही है, और यह आलोचना के अवसरों को कुछ हद तक सीमित करती है.
विपक्ष की सुधारात्मक भूमिका
इन उदाहरणों के बावजूद, किसी लोकतंत्र की विदेश नीति में विपक्ष की भूमिका परोक्ष रूप से और एक तरह से वीटो की तरह काम करती है. विपक्षी दल अच्छी विदेश नीति बनाने की स्थिति में तो नहीं होते, पर वे सरकार की बुरी विदेश नीति में अड़ंगा लगा सकते हैं, वे विदेश नीति के गलत दिशा में मुड़ने पर उसमें दीर्घकालीन सुधार का अवसर प्रदान करते हैं. इस संबंध में भारत का ही उदाहरण देखें तो 1980 के उत्तरार्ध में, राजनीतिक रूप से नहीं जीती जा सकने वाली श्रीलंका की लड़ाई से हाथ खींचे जाने का उल्लेख किया जा सकता है. अमेरिका की बात करें तो दुनिया भर की लड़ाइयों में उलझाव– 1970 के दशक में वियतनाम तथा हाल के दिनों में इराक और अफगानिस्तान– का स्वदेश में होने वाला विरोध अक्सर अमेरिकी विदेश नीति पर पुनर्विचार का कारण बना है.
विपक्षी राजनीति की यह सुधारात्मक भूमिका लोकतंत्रों की एक विशिष्ट खूबी है. इसकी अनुपस्थिति के कारण ही अलोकतांत्रिक देशों के लिए गलत रणनीतिक दिशा में कदम बढ़ा चुकने के बाद रास्ता बदलना आसान नहीं होता. उदाहरण के लिए, शीतयुद्ध के दौरान सोवियत नेतृत्व को अपनी विदेश नीति के नियोजित अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले खतरनाक दुष्परिणामों और ‘सोवियत साम्राज्य की लागत’ का अंदाजा था, लेकिन इस स्थिति को बदलने के लिए उन पर कोई घरेलू दबाव नहीं था. उसी तरह का जोखिम आज चीन को है: एक निरंकुश सत्तावादी सरकार होने के साथ-साथ चीन सामूहिक नेतृत्व व्यवस्था से दूर केंद्रीकृत सत्ता के दौर में आ गया है जहां सारी ताकत राष्ट्रपति शी जिनपिंग के हाथों में है. इसलिए चीन की मूर्खतापूर्ण सामरिक गतिविधियों में विरोध के अभाव की भी भूमिका हो सकती है, और शायद यही कारण है कि चीन लगातार आत्मघाती रास्ते पर चल रहा है.
वर्तमान में चिंता की बड़ी वजह
हालांकि अक्सर यही माना जाता है कि तानाशाही शासनों के लिए विदेश नीति का प्रबंधन आसान होता है क्योंकि वहां विपक्ष मौजूद नहीं होता, लेकिन ये बात सच नहीं है. जैसा कि केनेथ वाल्ट्ज़ ने दशकों पहले बताया था कि समझदारीपूर्ण विदेश नीति बनाने और लागू करने में लोकतंत्र का प्रदर्शन तानाशाहियों के मुकाबले बेहतर रहा है. हालांकि वाल्ट्ज़ ने ये भी माना कि सारे लोकतंत्रों का प्रदर्शन एक जैसा नहीं होता, जैसे अमेरिकी लोकतांत्रिक व्यवस्था विदेश नीति परिणामों के मामले में ब्रितानी व्यवस्था से बेहतर साबित हुई है. इसी तरह उन देशों को लोकतंत्र के फायदे मिलने की संभावना नहीं है, जहां एक ही पार्टी का पूर्ण वर्चस्व है. भारत के सामने यह खतरा है कि एक निष्क्रिय विपक्ष, लोकतंत्र में विदेश नीति निर्धारण में विपक्ष की सुधारात्मक भूमिका के फायदों को सीमित कर सकता है.
भारत के कूटनीति इतिहास में इसके उदाहरण भी मौजूद हैं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1984 में भारी जनादेश प्राप्त किया, जिसने कि विपक्ष को खस्ताहाल कर छोड़ा था. ऐसे में विदेश नीति को लेकर उनकी सरकार को मिली खुली छूट ने श्रीलंका में विनाशकारी हस्तक्षेप को सुगम बना दिया. अंतत: उस नीति को पलटा गया, लेकिन भारत के 1,200 सैनिकों की प्राणों की आहूति के बाद. उससे पहले, भारतीय विदेश नीति पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पूर्ण प्रभुत्व उनकी चीन नीति के रूप में दिखा था, जिसका परिणाम 1962 में पूर्ण पराजय के रूप में सामने आया. इतिहास को खुद को दोहराने की ज़रूरत नहीं होती- यहां तक कि 1962 भी अपरिहार्य नहीं था- लेकिन यह कुछ विचारणीय सुझाव ज़रूर दे सकता है.
विपक्ष 1962 में आज की तुलना में कहीं अधिक निर्बल था, लेकिन कम से कम उसने नेहरू को आगाह करने की कोशिश की थी. आज के विपक्षी दल ऐसा कर रहे हैं ये निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, और ये चिंता की बात है.
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(लेखक जेएनयू में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. ये उनके निजी विचार हैं)
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