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Thursday, 25 April, 2024
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आतंक पर पाक के खिलाफ भारत का रवैया रक्षात्मक रहा है पर चीन के साथ ऐसी रणनीति नहीं चलेगी

भारत को दीर्घावधि में चीन से युद्ध से बचने की कीमत चुकानी पड़ेगी. एलएसी पर चीन की आक्रामकता भविष्य में भी कायम रहेगी.

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भारत की सरकारें पारंपरिक रूप से जोख़िम से बचने वाली रही हैं; नरेंद्र मोदी सरकार में ये प्रवृत्ति थोड़ी कम दिखती है, खासकर जब बात बाह्य निर्देशित कार्रवाई की हो.

इसलिए सोमवार को आई ख़बर आश्चर्यजनक थी जिसमें एक उच्चपदस्थ सरकारी सूत्र को ये कहते हुए बताया गया था कि लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीन के अड़ियल रवैये को देखते हुए भारत उसे पीछे धकेलने की सैन्य कार्रवाई पर विचार कर सकता है. भारत इसके परिणामों की चिंता नहीं करेगा क्योंकि अधिकारी के अनुसार, ‘यदि आप नतीजों की सोचने लगेंगे तो फिर आप आगे नहीं बढ़ पाएंगे’.

ये विचार स्पष्टतया मूर्खतापूर्ण लगता है क्योंकि हर कार्य के परिणाम होते हैं जिनके बारे में आगे बढ़ने से पहले ही विचार करने की ज़रूरत होती है. ये बात चीन के खिलाफ सैन्य कार्रवाई पर विशेष रूप से लागू होती है. ऐसी कोई कार्रवाई आगे पूर्ण युद्ध का रूप ले सकती है जिसके न सिर्फ तात्कालिक और स्वाभाविक सैन्य नतीजे सामने आएंगे, बल्कि दीर्घकालिक राजनीतिक, आर्थिक और कूटनीतिक प्रभावों को भी झेलना पड़ सकता है.

इस बात की संभावना कम ही है कि मोदी सरकार को किसी संभावित सैन्य कार्रवाई के नतीजों की चिंता नहीं हो.


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भारत का कूटनीतिक इतिहास

सक्रियता और निष्क्रियता दोनों के ही अपने-अपने परिणाम होते हैं. और परिणामों की बात करें तो निष्क्रियता और अनिर्णय अल्पावधि में (संभवत:) उपयोगी साबित होती है क्योंकि इसकी मदद से समस्याओं को अस्थायी रूप से टाला जा सकता है. लेकिन इससे संभावित नकारात्मक दीर्घकालिक परिणाम भी जुड़े होते हैं जिनका आकलन करने की ज़रूरत होती है. वास्तव में, निष्क्रियता और अनिर्णय की स्थिति ने भारत की विदेश नीति और सुरक्षा हितों को बार-बार चोट पहुंचाई है.

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भारत के कूटनीतिक इतिहास में इस संबंध में कई उदाहरण मौजूद हैं. जैसे, 1960 के दशक में परमाणु परीक्षण नहीं करने के कारण भारत परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) में परमाणु ताक़त के रूप में शामिल नहीं हो पाया जिसके नकारात्मक प्रभाव आज पांच दशक बाद भी महसूस किए जा रहे हैं. भारत को निरंतर प्रौद्योगिकी संबंधी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है और अब भी परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में प्रवेश पाने के लिए भारत को मशक्कत करनी पड़ रही है. इन परेशानियों की वजह है भारत का एनपीटी में शामिल नहीं होना. ये स्पष्ट नहीं है कि क्या भारत 1960 के दशक में एक सफल परमाणु परीक्षण कर भी सकता, हमें इस बारे में पता इसलिए नहीं है क्योंकि तब भारत ने परमाणु परीक्षण का प्रयास तक नहीं किया था.

प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री परमाणु बम के इतने खिलाफ थे कि उन्होंने परमाणु कार्यक्रम की लागत अधिक नहीं होने के होमी भाभा के सार्वजनिक दावे को चुनौती देने के लिए ब्रिटेन से लागत का हिसाब लगाने का अनुरोध कर दिया. ब्रितानियों ने ये काम किया, लेकिन उन्होंने एक आंतरिक रिपोर्ट को गुप्त ही रखा कि भारत ‘नाममात्र के तकनीकी अवरोधों और बहुत कम अतिरिक्त लागत’ के साथ बम बना सकता था. लागत के बढ़ा-चढ़ाकर किए गए आकलन से तात्कालिक समस्या तो टल गई, पर भारत को आज तक उसके नकारात्मक परिणामों से जूझना पड़ रहा है.

अगले तीन दशकों तक, 1974 में एक ‘उपकरण’ का परीक्षण करने के बावजूद, भारत की सरकारें परमाणु शक्ति बनने के तात्कालिक नतीजों – प्रतिबंध, लागत – को लेकर चिंतित रहीं, और अंतत: 1998 में आकर इसकी घोषणा की जिसके बाद प्रतिबंध लगाए गए, जिन्हें आसानी से झेल लिया गया लेकिन दीर्घकालिक परिणाम अभी तक भारत को परेशान कर रहे हैं.

एक अन्य उदाहरण पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ सैन्य कदम उठाने से भारत के निरंतर परहेज का है. भारत सैनिक तनाव भड़कने और संभवत: अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप या दबाव की आशंका से घबराता रहा और उसने ‘अच्छे व्यवहार’ के फायदों की भी अपेक्षा की. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. आखिरकार जब भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट हमले के रूप में कदम उठाए तो तनाव भड़कने और अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाए जाने की बात बेबुनियाद निकली.

भारत का 1984 में सियाचिन पर नियंत्रण करना सक्रियता दिखाने के विकल्प का दुर्लभ उदाहरण है. अब भी चुकाई जा रही जनहानि की कीमत की तुलना में भारत के ऑपरेशन मेघदूत नहीं करने की सामरिक कीमत की सहज ही कल्पना की जा सकती है, खासकर मौजूदा संदर्भ में. सरल शब्दों में कहें तो भारत को अपनी सक्रियता या निष्क्रियता की लागत और फायदे का हिसाब लगाते हुए केवल तात्कालिक प्रभावों का ही नहीं बल्कि दीर्घकालिक असर का भी आकलन करना चाहिए.

लागत बनाम फायदे की गणना

इस प्रकार, भले ही एलएसी पर सैनिक कार्रवाई की भारी लागत की संभावना हो, पर इस विषय में किसी भी फैसले को निष्क्रियता दिखाने की कीमत के मुकाबले तौला जाना चाहिए. सामान्यतया अपने से मज़बूत दुश्मन के खिलाफ युद्ध के विचार को उचित नहीं कहा जा सकता है लेकिन इसे तीन अन्य बातों के संदर्भ में देखे जाने की ज़रूरत है.

सर्वप्रथम, चीन समग्र रूप से भले ही भारत के मुकाबले बहुत अधिक शक्तिशाली हो, लेकिन अभी भी एलएसी पर यह असंतुलन उतना नहीं दिखता जहां दोनों पक्षों की ताकत बराबरी के स्तर की है. दूसरे, भारत की सापेक्ष कमज़ोरी में भी एक बढ़त इस प्रकार है कि स्पष्ट जीत के अलावा किसी अन्य परिणाम को चीन की हार के रूप में देखा जाएगा.


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और अंत में, युद्ध को टालना दीर्घावधि में महंगा साबित होगा, अगर इससे कमज़ोरी का संकेत निकलता हो. इससे चीन का हौंसला बढ़ेगा. यदि उसे चुनौती नहीं दी जाती है तो पूरी संभावना है कि वह फिर से भारत पर दबाव बनाएगा. चीन के व्यवहार से ऐसा नहीं लगता है कि वह आगे अतिक्रमण से बाज आएगा. इसलिए युद्ध करने का सवाल युद्ध टालने से भी जुड़ता है. यदि सवाल महज तात्कालिक लक्ष्यों के लिए युद्ध का है, तो इसका सरल जवाब है – दांव शायद इस पर आने वाली लागत के लायक नहीं हो. यदि बात युद्ध को टालने की है तो उसके दीर्घकालिक परिणाम हो सकते हैं क्योंकि निवारक क्षमता के लिए अपने संकल्प को प्रदर्शित करने की ज़रूरत होती है. परिणाम दूरगामी भी होंगे, क्षेत्र में भारत के संभावित साझेदारों पर और अंतत: इस पर कि क्या एशिया को वर्चस्व-रहित बनाए रखने के लिए कोई गठबंधन संभव है.

सैन्य कार्रवाई की बात के साथ पर्याप्त सैन्य तैयारी भी करनी होती है. भारत का सैन्य इतिहास और मोदी सरकार की पूर्व की कार्रवाइयां, दोनों ही इसके खिलाफ आगाह करते हैं. साथ ही, भारतीय सेना पारंपरिक रूप से एलएसी पर रक्षात्मक सैन्य कार्रवाई के लिए उन्मुख और तैयार रही हैं, न कि आक्रामक कार्रवाइयों के लिए.

और अंत में, सैन्य कार्रवाई की बात के इस तरह सार्वजनिक इजहार से प्रतिबद्धता की समस्या भी खड़ी होती है: यदि चीन पीछे नहीं हटता है तो वैसे में अपनी धमकियों को अमल में नहीं लाना भारत की विश्वसनीयता को अतिरिक्त नुकसान पहुंचा सकता है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक जेएनयू में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं यह उनका निजी विचार है)

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