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Friday, 1 November, 2024
होममत-विमत2020 के भारत ने नफरत ओढ़ रखी है, यहां तनिष्क के सेक्युलर गहने की कोई जगह नहीं

2020 के भारत ने नफरत ओढ़ रखी है, यहां तनिष्क के सेक्युलर गहने की कोई जगह नहीं

भारतीय अर्थव्यवस्था के ही समान धर्मनिरपेक्षता भी अपर्याप्त मांग की समस्या से जूझ रही है.

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आपको शायद दूरदर्शन पर 1970 के दशक में दिखाई जाने वाली एक एनिमेटेड शॉर्ट फिल्म का गाना ‘एक चिड़िया अनेक चिड़िया ’ याद हो. गाने का मुख्य उद्देश्य था भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक विविधताओं के बावजूद एकता की प्रेरणा देना. यह संदेश विभाजन की पीड़ा के एहसास से पूरी तरह उबर नहीं पाने वाले देश के लिए था. यह विभाजन के बाद की हिंसा में लगभग पूर्णतया कुचल दी गई धर्मनिरपेक्षता की भावना को कायम रखने के प्रयासों के तहत प्रसारित किया जाता था. ये 1974 की बात थी. अभी 2020 के भारत में धर्मनिरपेक्षता एक ‘मज़ाक’ भर है और इसका ताज़ा प्रमाण है तनिष्क के विज्ञापन पर बवाल. ठीठता आज राजनीतिक फैशन में हैं और बहुत से भारतीयों को धर्मनिरपेक्षता की कोई परवाह नहीं है. सोशल मीडिया में ये बात सर्वाधिक स्पष्टता से दिखती है.

आज के भारत में एकता या धर्मनिरपेक्षता के ज़िक्र वाली हर बात पर विवाद खड़ा हो जाता है. तनिष्क का विज्ञापन बनाने वालों पर लव-जिहाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया जा रहा है. और नफरत फैलाने वालों के पास बहाना क्या होता है— वे इस तरह के चित्रण से एक समुदाय विशेष की भावनाओं को ठेस पहुंचने का राग अलापते हैं.

हालांकि, हमें खुद को भुलावे में नहीं रखना चाहिए. अपने गहरे अंतर्मन में अधिकांश भारतीयों के लिए धर्मनिरपेक्ष बनना मुश्किल होता है. और इस सदियों पुरानी नफरत को ज़िंदा रखने का अधिकांश श्रेय नेताओं और उनकी राजनीति को जाता है.

भारत की अधिकांश राजनीति और वोट डालने का आधार जाति या धर्म केंद्रित है क्योंकि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भारतीय प्राय: इन्हीं दो कारकों से संचालित होते हैं. हमारे यहां ऑटोरिक्शा, ट्रकों और बसों पर जय श्रीराम या 786 के स्टिकर लगे दिखना आम बात है, जोकि इस बात को दर्शाता है कि हम धर्म को लेकर कितने मुखर हैं. सरकारी कार्यालयों तक में देवी-देवताओं की तस्वीरें टंगी होने से धर्म पर शासन के दृष्टिकोण का काफी कुछ अंदाज़ा लगाया जा सकता है. धर्म भारत में निजी मामला भर नहीं है. भारत में सरकारें अपने फायदे के लिए इसका इस्तेमाल करती रही हैं. यहां तक कि संविधान सभा ने भी संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ने के प्रस्ताव को तीन बार खारिज किया था.


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‘धर्मनिरपेक्ष’ होने के निहितार्थ

जिस नेता को संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ने का श्रेय जाता है– इंदिरा गांधी– खुद उसने भी हिंदू कार्ड खेला था. भले ही इंदिरा के चुनावी नारे रोटी, कपड़ा और मकान पर आधारित होते थे लेकिन 1980 के लोकसभा चुनावों में उनकी वापसी में उनकी निरंतर मंदिर यात्राओं की भूमिका रही थी जिन्हें आकाशवाणी पर खूब कवरेज़ मिलती थी. इसी तरह राष्ट्रीय प्रसारक वेदों और अन्य प्राचीन हिंदू ग्रंथों पर आधारित कार्यक्रमों का भी प्रसारण करता था.

देश पर भयावह आपातकाल थोपने के बावजूद धर्मनिष्ठ ब्राह्मण की उनकी छवि ने इंदिरा की सत्ता में वापसी को संभव किया. उनके कार्यकाल के अंतिम चार वर्षों में मेरठ, बड़ौदा, नेली और बिहार शरीफ़ में सर्वाधिक खूनखराबे वाले दंगे हुए.

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस की चुप्पी के कारण सिख विरोधी दंगों का भड़कना, जिनमें 3,000 से अधिक लोग मारे गए, भारत के इतिहास का एक और अवसर था जब धर्मनिरपेक्षता और इसकी विश्वसनीयता कसौटी पर थी. संविधान में एक शब्द जोड़ने भर से भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं हो गया. नफरत सदियों से जीतती रही है. इसमें आप पर हावी होने की क्षमता होती है. अक्सर यह आपको भयभीत करती है, आपको अपने और अपने समुदाय को लेकर चिंतित करती है— मानो उन्हें अस्तित्व के संकट से जूझना पड़ रहा हो. और ऐसी स्थिति में ही राजनीतिक नेताओं का प्रवेश होता है, वे आपके भय का फायदा उठाते हैं, आपको समर्थन का भरोसा देते हैं, तथा धर्मनिरपेक्षता को एक बार फिर से दफनाने की तैयारी में जुट जाते हैं.

वास्तव में, ये संयोग नहीं है कि संघ परिवार ने 1980 के दशक में इंदिरा के कार्यकाल में राम मंदिर आंदोलन की योजना पर काम करना शुरू किया था. वैसे इस तरह की राजनीति के संकेत 1950 के दशक में भी दिखे थे. जवाहरलाल नेहरू ने बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में गोहत्या पर प्रतिबंध लगाना सुनिश्चित किया था. जैसा नाना, वैसा नाती — प्रधानमंत्री बनने के 2019 के चुनावी प्रयास में राहुल गांधी भी उसी ढर्रे पर चले. उनका ज़ोर जनेऊ धारण करने, मंदिरों की यात्रा करने और यथासंभव ब्राह्मण दिखने पर था.

लेकिन इस खेल में भाजपा ने महारत हासिल कर रखी है क्योंकि 1990 के दशक से लगातार वह इसी राह पर चल रही है. हालांकि बीते दिनों की कांग्रेस जहां धर्मनिरपेक्षता से असंगत कदमों को खुलकर नहीं उठाती थी, वहीं आज भाजपा को धर्मनिरपेक्षता को खुल्लमखुल्ला खारिज करने में कोई गुरेज नहीं. ठीठता के साथ. ये प्रवृति वहीं से आई है.


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नफरत फैलाने वाले, धर्म के ठेकेदार

सोशल मीडिया की ट्रोल सेना ये सुनिश्चित करती है कि तनिष्क जैसे विज्ञापनों को इस नज़रिए से देखा जाए कि मुस्लिम मर्द भोली-भाली हिंदू महिलाओं को बहला-फुसला रहे हैं और इस प्रकार बहुसंख्यक समुदाय को नीचा दिखा रहे हैं— वे इस विचार को सेक्सुअलाइज़ करते हैं. वे सवाल करते हैं कि मुस्लिम महिला और हिंदू पुरुष के बीच रोमांटिक ‘संबंध’ वाले विज्ञापन क्यों नहीं दिखाए जाते. यही उनकी दलील है. पिछले साल सर्फ एक्सेल के एक विज्ञापन में एक छोटी बच्ची, संभवत: हिंदू को अपने मुस्लिम दोस्त– नमाज़ के लिए जा रहा एक लड़का– को होली के रंगों से बचाते दिखाया गया था. उसे भी लव-जिहाद को बढ़ावा देने वाला चित्रण करार दिया गया. यानि अब बच्चों तक को सांप्रदायिकता के चश्मे से देखा जाता है. कहा जाता है कि भारत में सहिष्णुता कम होती जा रही है. लेकिन क्या ये नफरत को लेकर सहनशीलता नहीं है? हालांकि ये कोई बात नहीं है. यह प्रवृति 2014 से लगातार बढ़ती रही है.

जहां धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देना इक्का-दुक्का दिखने वाले विज्ञापनों पर निर्भर करता है, वहीं इसके विरोधियों के लिए टीवी मीडिया जैसे बड़े मंच चौबीसों घंटे सुलभ हैं. नौ बजे रात के संदेशवाहक धर्मनिरपेक्षता की इतनी धुनाई कर सकते हैं कि तनिष्क दोबारा ऐसे विज्ञापन बनाने की सोच भी नहीं पाए. तनिष्क अब अपने विज्ञापन साझेदारों पर कड़ी शर्तें थोपेगा और उनसे धर्मनिरपेक्षता को कोमा से नहीं निकालने का आग्रह करेगा क्योंकि 2020 में भारत ने नफरत ओढ़ रखी है और उसके पास एक सार्वभौम/उदार विचार को बढ़ावा देने वाले ब्रांड के गहनों के लिए जगह नहीं है.

कई प्राइम टाइम टीवी कार्यक्रमों ने इस आरोप पर मुहर लगाने का काम किया कि तनिष्क जैसे विज्ञापन गलत संदेश फैलाते हैं. अपने शो डीएनए में सुधीर चौधरी ने विज्ञापनों का पोस्टमार्टम करते हुए ये निष्कर्ष निकाला कि स्वतंत्र भारत के बीते सात दशकों में बहुसंख्य समुदाय और उसकी भावनाओं को हमेशा दरकिनार किया गया है. उसके बाद चौधरी ने सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने के लिए विषवमन करते हुए, मुस्लिम महिलाओं से प्यार करने के कारण मार खाए या मारे गए हिंदू पुरुषों को प्रदर्शित किया. ज़ी न्यूज़ के एंकर ने इस बात पर भी अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की कि फिल्मों और पॉप कल्चर में हमेशा मुसलमानों को शांतिप्रिय और अपनी बातों पर खरा उतरने वाला दिखाया जाता है जबकि, चौधरी के अनुसार हक़ीकत में ऐसा नहीं होता.

एक पल के लिए आप सोच सकते हैं कि ये सब चौधरी की अपनी निजी राय है. लेकिन ऐसा नहीं है. उनके शो के दर्शकों संबंधी आंकड़ों पर यकीन करें तो चौधरी की बात लाखों लोगों तक पहुंच रही होती है. ज़ी नेटवर्क का दावा है कि हर महीने उस शो को पांच करोड़ लोग देखते हैं.

मांग और आपूर्ति के संबंध को आसानी से समझा जा सकता है. और भारत की सामाजिक अर्थव्यवस्था में धर्मनिरपेक्षता की मांग बहुत कम है. भारतीय अर्थव्यवस्था के ही समान धर्मनिरपेक्षता को भी अपर्याप्त मांग की समस्या का सामना करना पड़ रहा है. समस्या ये है कि उसकी समस्या के समाधान के लिए कोई आरबीआई नहीं है.

‘धर्मनिरपेक्षता के पाखंड’ का खुलासा करने के लिए समर्पित शो और टीवी चैनल हिट हो रहे हैं क्योंकि लोग उन्हें देखते हैं. महानगरों में जाति और धर्म के आधार पर विभाजित कॉलोनियां की मौजूदगी एक कड़वी सच्चाई है जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. भारत की जनता एक ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना करती है जो कि हिंदू दर्शन पर आधारित ‘धर्म’ को धारण करता हो. इसी कारण से भाजपा और नरेंद्र मोदी को बारंबार सत्ता सौंपी जाती है. भाजपा दो-टूक शब्दों में इसी का वादा करती है— हिंदू राष्ट्र. लोग बिल्कुल इसी के लिए वोट देते हैं. एक राष्ट्र के रूप में हम धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं. इसलिए हमें इसका ढोंग भी नहीं करना चाहिए.

(लेखिका एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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1 टिप्पणी

  1. महोदया आपक लेख पूरी तरह से बकवास और लोगो को भड़काने बला है।।।आप इस तरह की भड़काऊ और अपमानजनक भाषा का प्रयोग कर के लोगो को हिंसा के लिए उकसा रही है।।।मै प्रिंट के संपादक से अनुरोध करता हूं इन mahodya के लेख को ना छा पा जाए

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