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Wednesday, 18 September, 2024
होममत-विमतघरेलू सियासत और धर्म पर बेहिसाब जोर छोड़कर पड़ोसियों से बेहतर पेश आना होगा, अशांत पड़ोस भारत के लिए संदेश है

घरेलू सियासत और धर्म पर बेहिसाब जोर छोड़कर पड़ोसियों से बेहतर पेश आना होगा, अशांत पड़ोस भारत के लिए संदेश है

बांग्लादेश संकट भारत के पड़ोस में उथल-पुथल की एक ताजा मिसाल है लेकिन पड़ोसियों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए हमें खुद को भुक्तभोगी मानने की मानसिकता छोड़नी होगी, घरेलू सियासत और धर्म पर बेहिसाब ज़ोर देने से परहेज करना होगा

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बांग्लादेश में घटी नाटकीय घटनाओं ने भारत के पड़ोस, और उससे निपटने के मोदी सरकार के रेकॉर्ड को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है. फौरी तौर पर जिन बातों पर गहराई से विचार करने की जरूरत है उसकी शुरुआत 25 साल पहले की घटना से करनी होगी.

पच्चीस साल पहले अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान के मामले में बड़ा कदम उठाते हुए बस से लाहौर पहुंच गए थे. उन्होंने कहा था कि आप अपने दोस्त तो चुन सकते हैं मगर पड़ोसी नहीं चुन सकते. इसका अर्थ यह था कि पड़ोसी से अच्छा रिश्ता बनाकर रखना जरूरी है.

2008 में डॉ. मनमोहन सिंह ने इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए ‘पड़ोसी पहले (नेबरहुड फर्स्ट)’ का नारा दिया था. 2014 में नरेंद्र मोदी ने भी अपने अंदाज से इस पर मुहर लगाते हुए अपने शपथ ग्रहण समारोह में इस सब-कॉन्टिनेंट के सभी नेताओं को आमंत्रित किया था. इसके बाद उन्होंने पड़ोसी देशों के दौरे भी किए. यह सब नये जोश के माहौल में किया गया, और एक मामले में तो असाधारण स्तर की नाटकीयता भी दिखी. मोदी ने अपने एक दौरे के बीच अचानक पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की पोती की शादी में उन्हें बधाई देने के लिए पहुंचकर सबको हैरत में डाल दिया था.

तब एक उम्मीद जगी थी. आखिर, 25 वर्ष बाद बहुमत की सरकार वाले एक भारतीय नेता ने सात संप्रभु देशों वाले इस क्षेत्र में आपसी रिश्तों को सुधारने के प्रति इतनी प्रतिबद्धता का प्रदर्शन जो किया था! और ये सात संप्रभु देश ऐसे थे जो तमाम तरह के विभाजनों, उन आपसी खाइयों के कारण बंटे हुए थे जिनमें से कुछ तो विचारधारा के कारण पैदा हुई थीं और इतिहास के साथ ये खाइयां और गहरी तथा चौड़ी हो चुकी थीं. कुछ खाइयों के बीच शीतयुद्ध वाले दौर के कचरे भरे थे. इन कचरों को साफ करना, खाइयों को पाटना या उन पर पुल बनाना एक भारी चुनौती थी.

मोदी जब अपने लगातार तीसरे कार्यकाल में हैं तब उनका रेकॉर्ड कैसा दिखता है? बांग्लादेश सबसे बड़े संकट के रूप में उभरा है. पिछले 15 साल से वह भारत का सबसे करीबी सहयोगी रहा. भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की सुरक्षा-शांति की कुंजी बांग्लादेश में है, खासकर इसलिए कि किसी को यह नहीं मालूम है कि म्यांमार में सत्ता की धुरी कहां है.

पाकिस्तान इधर नाटकीय बदलावों से गुजरा है, और उसका नया निजाम जम्मू-कश्मीर में 5 अगस्त 2019 को हुए बदलावों के कारण भारत से लगभग पूरी तरह कट गया है.

इस बीच, नेपाल ने अविश्वास को इस हद तक बढ़ा दिया है कि उसने अपने नक्शे में बदलाव करके उसमें भारत के रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण उन इलाकों को शामिल कर लिया है जिनसे होकर तीर्थस्थल कैलास-मानसरोवर का रास्ता गुजरता है. जैसा कि आपसी होड़ और तुनकमिजाजी में फंसे देशों के साथ होता है, नेपाल की संसद ने उन नक्शों को एकमत से मंजूरी भी दे दी.

श्रीलंका आर्थिक गिरावट और अपने एक प्रमुख बंदरगाह हंबनटोटा पर चीनी कब्जे़ के बाद से अपनी खास ‘मैदान’ क्रांति में उलझा है. मालदीव में ‘इंडिया आउट’ मुहिम के साथ मोहम्मद मुइजू का उभार ताजा घटना है. भूटान पर चीन भारी दबाव डाले हुए है कि वह अपनी सीमाओं का ‘निपटारा’ करे और वह भी ‘भारत के हितों की परवाह न करते हुए’.

क्या ये नाटकीय बदलाव भारत की ही गलतियों की वजह से हुए हैं? या भारत इनका भुक्तभोगी बन गया है?
लेकिन भारत जब इतना ताकतवर है तब वह भुक्तभोगी होने का दावा कैसे कर सकता है? उसकी जीडीपी का आंकड़ा इस पूरे क्षेत्र के बाकी सभी देशों की जीडीपी के कुल आंकड़े से चार गुना बड़ा है, उसकी आबादी तीन गुना ज्यादा है, और उसकी ‘ग्लोबल’ ताकत कई गुना ज्यादा है.

उसकी जनता ने अपने गणतंत्र को वह चीज दी है जो इस पड़ोस में नायाब है, उसने भारत को वह स्थायी संवैधानिक लोकतंत्र दिया है जिसमें हर बदलाव लोकतांत्रिक, शांतिपूर्वक और विश्वसनीय ढंग से हुआ है. इसलिए भुक्तभोगी वाला तर्क तो खारिज हो जाता है.

हमारा पड़ोस पूरी दुनिया में सबसे अस्थिर क्षेत्रों में गिना जाएगा. हमारे अधिकतर पड़ोसी देश काफी सघन आबादी वाले हैं जहां के शहर भीड़ भरे हैं, युवाओं की आबादी ज्यादा है, और जो अफ्रीका के घालमेल भरे क्षेत्र के विपरीत लोकतंत्र का स्वाद ले चुके हैं. उम्मीदों से भरे युवाओं की विशाल आबादी, और लोकतंत्र के स्वाद के मेल का अर्थ है वह जनमत नामक मुश्किल चीज अपना वजन रखती है.

यही वह चीज है जिसकी शेख हसीना और उनके मित्र भारत ने तात्कालिक संदर्भ में अनदेखी की. ये वैसे देश नहीं हैं जहां कोई तानाशाह, चाहे वह कितना भी ताकतवर क्यों न हो, ऐसे काम कर सकता है जिसे जनमत पसंद न करता हो. इस क्षेत्र के हर देश का लोकतंत्र हमारे लोकतंत्र से कहीं ज्यादा कच्चा है. लेकिन कोई देश पक्की तानाशाही भी नहीं है. इन सभी देशों में आपको उसके निजाम से भी निपटना है और उसके जनमत से भी.

वह जनमत संप्रभुता के अर्थ भी जानता है. अगर भारत दादागिरी करता दिखेगा तो उसकी जोरदार प्रतिक्रिया होगी. यह हम नेपाल, मालदीव, श्रीलंका, और बांग्लादेश में देख चुके हैं. 2015 में जो नाकाबंदी हुई थी वह एक बड़ा जख्म है.
हकीकत यह है कि हमारा विदेश मंत्रालय इस सबसे अवगत है और प्रायः सही बात ही कहता है. लेकिन मीडिया में सरकार के पक्ष में दिखने वाली जो बातें कही जाती हैं, खासकर हमारे हिंदी टीवी समाचार चैनलों में, उन पर गहरी नजर रखी जाती है. अतिराष्ट्रवादी सोशल मीडिया हैंडलों में यह सब बुरी तरह बढ़ गया है.

इनमें अपने पड़ोसियों और उनके क्षेत्रों के साथ भारत के संबंधों को लेकर तथ्यहीन इतिहास के हवाले से प्रायः संशोधनवादी बातें फैलाई जाती हैं. बांग्लादेश में सेना भेजने से लेकर हिंदुओं (जिनकी आबादी करीब 1.4 करोड़ है) के लिए अपनी सीमाएं खोल देने और रंगपुर में एक बस्ती बसा देने तक की सलाह दी जा रही है.

विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने जिस दिन मालदीव का अपना दौरा खत्म किया उस दिन आग में घी डालते हुए यह झूठ फैलाया गया कि माले ने भारत को 28 द्वीप ‘सौंप’ दिए हैं. यह झूठ कुछ हिंदी टीवी चैनलों के ‘प्राइम टाइम डिबेटों’ में भी पहुंच गया. किसी ने तो यहां तक कहा कि “मुइजू ने घुटने टेक दिए”. हम इसे एक मज़ाक मान कर खारिज कर सकते हैं, लेकिन मालदीव के लोग ऐसा नहीं करेंगे. करीब पांच लाख की आबादी और 7 अरब डॉलर के बराबर की जीडीपी वाले देश को भी वह नेमत उसी अनुपात में मिली है जिस अनुपात में भारत जैसी उभरती महाशक्ति को मिली है, और उस नेमत का नाम है— संप्रभुता. बहरहाल, साउथ ब्लॉक ने उन ट्वीटों को डिलीट कर दिया, लेकिन काफी देर हो चुकी थी.

भारत में चल रहे इस विमर्श पर नजर रखने वाले पड़ोसी की जगह अपने को रख के देखिए. भारत की नीतियों के बारे में वे सिर्फ यही सुनते रहते हैं— ‘शक्तिशाली, शक्तिशाली, शक्तिशाली’. शक्ति बड़ी चीज है, लेकिन बौद्धिक, सांस्कृतिक, मानसिक जैसे तत्वों का क्या? इस क्षेत्र के गुरु होने की विनम्रता रखने वाला देश अगर ‘विश्वगुरु’ बनने की राह पर चलना चाहता है, जैसी कल्पना स्वामी विवेकानंद ने शिकागो के अपने प्रवचन में की थी, तो यह सवाल उसे खुद से पूछना पड़ेगा.

क्या हमारे शिक्षा संस्थान इतने अच्छे हैं कि हमारे पड़ोसी देशों से जो लाखो छात्र पढ़ाई के लिए विदेश जाते हैं वे हमारी ओर आकर्षित होंगे? क्या हम उन्हें चाहते भी हैं? उन्हें घोर राष्ट्रवादी मीडिया में अपमानों की जगह स्कॉलरशिप, इनटर्नशिप, सांस्कृतिक कार्यक्रम, फिल्में दें तो कैसा रहे?

एक मात्र सुपरपावर का रेकॉर्ड यही दर्शाता है कि ‘सॉफ्ट पावर’ ‘हार्ड पावर’ का सिर्फ सहायक नहीं बल्कि उसके लिए बेहद जरूरी है. क्या भारत के पास इतने ‘थिंक टैंक’ हैं जो पड़ोसी देशों के दर्जनों स्कॉलर्स को जगह दे सकें, उन्हें सम्मेलनों में बुला सकें, और अपनी अलग ‘ट्रैक-2’ पहल चला सकें? ऐसा नहीं है कि भारत इससे अनजान है. इसलिए हम नेपाल और भूटान से बिजली खरीदते हैं और बांग्लादेश को निर्यात करते हैं. ये अहम आर्थिक रिश्ते और दावे हैं. अडाणी को भूल जाइए.

सिक्के का दूसरा पहलू है ‘हिंदू कार्ड’ का अति इस्तेमाल. प्रधानमंत्री मोदी ने नेपाल और बांग्लादेश के दौरे के दौरान वहां के मंदिरों के जो दौरे किए वे इसकी मिसाल हैं. बड़ी हकीकत यह है कि हमारी सबसे लंबी सीमारेखा के पार विशाल मुस्लिम आबादी बसी है. हम जब उनसे कहते हैं कि वे अपने यहां के अल्पसंख्यकों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करें, तब वे हमारी तरफ सवालिया निगाह उठाते हैं. इसे ‘माकूल’ मौके पर कदम उठाने का सबसे बदतर मामला ही माना जाएगा कि जब बांग्लादेश उबल रहा है और हमारी कूटनीति हालात को संभालने में लगी है तभी असम ने पिछले बृहस्पतिवार को बांग्लादेश से आए एक हिंदू को ‘सीएए’ के तहत पहली नागरिकता दी.

पांच वर्षों से, और खासकर यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से भारत बहुध्रुवीय विश्व, रणनीतिक स्वायत्तता और कई देशों से संबंध बनाने की बातें कर रहा है. बेशक ये अच्छे विचार हैं, लेकिन हमारे पड़ोसी भी उन विचारों की बात कर सकते हैं, खासकर वे जो चीन की छत्रछाया में हैं जिसकी छतरी हमारी छतरी से कहीं ज्यादा बड़ी है. वे सब हमारे खिलाफ चीन को खड़ा कर सकते हैं, जैसे हम चीन के खिलाफ अमेरिका को खड़ा कर सकते हैं (चाहे कितने भी बढ़-चढ़कर और अटपटे ढंग से). यह सब-कॉन्टिनेंट हमारी रणनीतिक जागीर नहीं है. महा शक्तिशाली अमेरिका तक अपने पड़ोसी क्यूबा और थोड़ी दूर स्थित वेनेजुएला को दबाने में नाकाम रहा है.

पड़ोसी देशों के मामले में भारत की नीति के बुनियादी आधार को अभी भी उस दिशा में ढालने की जरूरत है जिसे वाजपेयी ने स्पष्ट किया था, मनमोहन सिंह ने अपनाया था और मोदी ने गति दी थी. जरूरत सिर्फ इस बात की है कि घरेलू सियासत और धर्म पर बेहिसाब ज़ोर देने से परहेज किया जाए और अपने पड़ोसियों के साथ अधिक विनम्र और सम्मानजनक व्यवहार किया जाए.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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