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Sunday, 3 November, 2024
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अमेरिका-चीन द्विध्रुवीय प्रतिस्पर्द्धा में भारत फ्रंटलाइन पर, गलत सहयोगियों को चुनने का विकल्प नहीं

गुटनिरपेक्षता की सभी बातों के बावजूद भारत ने हथियारों के लिए मॉस्को पर अत्यधिक निर्भरता के साथ खुद को कमजोर बना लिया है.

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युद्ध कभी-कभी बड़ी स्पष्टता प्रदान कर सकते हैं. यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के एक साल बाद, आने वाले दशक या दशकों के लिए वैश्विक राजनीति का आकार पहले से कहीं अधिक स्पष्ट है. यह चीन और यूएस के बीच दिपक्षीय प्रतिस्पर्द्धा को दिखाता है, जिसमें वाशिंगटन की तरफ पश्चिम और इंडो-पैसिफिक के अधिकांश भाग और चीन के साथ ग्लोबल साउथ के होने की संभावना है. रूस-यूक्रेन युद्ध ही अब इस प्रतियोगिता का अखाड़ा बन गया है और चाहे कोई भी जीते, परिणाम इस वैश्विक संघर्ष को और गहरा ही करेगा.

कोई तरीका नहीं है जिससे कि रूस इस युद्ध को जीत सकता है क्योंकि यहां तक कि युद्ध के मैदान पर अगर किस्मत उसका साथ दे भी देती है तो यह केवल यूक्रेन के लिए अधिक से अधिक पश्चिमी समर्थन जुटाएगा. यहां तक कि वर्तमान पश्चिमी संयम भी कम हो जाएगा. दूसरी तरफ, रूस-चीन के रिश्ते नजदीकी हो गए हैं और मॉस्को की बीजिंग पर निर्भरता बढ़ती जाएगी.

इस प्रकार, वैश्विक राजनीति अनिवार्य रूप से दो पक्षों के बीच द्विध्रुवीय प्रतियोगिता से प्रभावित होगी. लेकिन विभिन्न तटस्थ और गुटनिरपेक्ष देशों का तकनीकी रूप से एक तीसरा पक्ष भी है, पर वे इस प्रतियोगिता के परिणाम के लिए अप्रासंगिक हैं, जैसे कि वे शीत युद्ध के दौरान थे. यही कारण है कि रूस-चीन का समर्थन करने वाले ग्लोबल साउथ के बारे में पश्चिम में सभी चिंता दिखाने वाले रणनीतिक डेजा वु की भावना रखते हैं. शीत युद्ध के दौरान भी ग्लोबल साउथ शामिल था लेकिन अमेरिकी जीत और रूस की हार में उसने काफी कम योगदान दिया. वे इस द्विध्रुवीय प्रतियोगिता के परिणाम के लिए उतने ही अप्रासंगिक हैं जितना कि उसमें उनकी अरुचि. कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे दोनों पक्षों में से किसके साथ हैं, इसका उनके बीच शक्ति संतुलन पर बहुत कम प्रभाव पड़ेगा.

फिर भी, यह समझ में आता है कि दोनों पक्षों ने ग्लोबल साउथ पर लड़ाई लड़ी, क्योंकि वैश्विक लड़ाई में, कोई भी यह नहीं चाहता कि दूसरे को बढ़त का मौका मिले.

और यहां तक कि इस प्रतिस्पर्द्धा में ग्लोबल साउथ का इसमें रुचि न लेना समझ में आता है क्योंकि इसमें उनका बहुत कुछ दांव पर नहीं लगा है. इसके अलावा, तटस्थ होने और दोनों पक्षों द्वारा उनके लिए लड़ने से राजनीतिक और भौतिक लाभ हुए हैं. ऐसा माना जा सकता है कि इन प्रवृत्तियों को दोहराया जा सकता है.

इससे भी बदतर, भारत अब अनुमानित रूप से ब्रिक्स में सबसे अलग-थलग है. जरूरत के मद्देनजर रूस अब चीन के पाले में है, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका भी तेजी से और खुले तौर पर रूस और चीन के साथ हैं. यदि एशिया में कोई संघर्ष होता है जो चीन को ताइवान, भारत या जापान के खिलाफ खड़ा होने पर मजबूर करता है, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील चीन के साथ जाएंगे.


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फ्रांस, जर्मनी, और अपना फायदा

भारत के लिए, पश्चिमी गठबंधन के भीतर भी, कुछ को दूसरों की तुलना में अधिक महत्व देना चाहिए. जाहिर है, भारत काफी संख्या में राजनयिक भागीदार चाहता है. लेकिन इसमें कई ऐसे हैं जिनकी क्षमता और चीन के खिलाफ जाने की इच्छा संदिग्ध है. उदाहरण के लिए, यूरोप, विशेष रूप से फ्रांस और जर्मनी.

यूरोप के ग्रुप के लिए रूसी खतरे से निपटने में उनकी कायरता नॉर्डिक देशों और सेंट्रल यूरोपियन्स दोनों के लिए निराशा की वजह रही है. पूर्व चांसलर एंजेला मर्केल के नेतृत्व में जर्मनी ने छोटी यूरोपीय शक्तियों के हितों के साथ समझौता करके पुतिन के साथ दोस्ती करने की रणनीति अपनाई, जैसे, उदाहरण के लिए, रूस के साथ नॉर्डस्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन का समर्थन करके जिसने यूक्रेन को अलग-थलग कर दिया, जिससे रूसी हमले की संभावना और ज्यादा बढ़ गई. फ्रांस भी इस मामले में अलग नहीं रहा. यहां तक कि जब पुतिन ने यूक्रेन की सीमा पर अपनी सेनाएं इकट्ठी कीं, तब फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन पुतिन को खुश करने की पूरी कोशिश कर रहे थे, हालांकि आखिरकार कोई फायदा नहीं हुआ.

ऐसा नहीं है कि फ्रांस और जर्मनी की स्थिति का कोई सामरिक तर्क नहीं था. बस इतना ही था कि, यूरोपीय मूल्यों और वैश्विक मानदंडों के बारे में उनकी सभी बातों के बावजूद, यह पूरी तरह से खुद के हितों को को साधने का सबसे संकीर्ण प्रयास था. दोनों को रूसी ऊर्जा और अन्य संसाधनों का लाभ मिला. पुतिन के साथ जाने से उन्हें खुद के महान शक्ति होने का अहसास हुआ, और संभवतः अमेरिका से स्वायत्तता की भावना भी कुछ हद तक पूरी हुई.

शीत युद्ध के दौरान जब रूसी टैंकों ने बर्लिन को घेर लिया था जबकि रूसी सेना मध्य यूरोप में तैनात थी, उसके विपरीत महत्वपूर्ण बात यह है कि रूस उनके लिए सीधा खतरा नहीं था. अब, फ्रांस और जर्मनी और रूस के बीच कई मध्य यूरोपीय शक्तियां खड़ी हैं. दूरी मायने रखती है क्योंकि यह खतरे की भावना को कम करती है और देश के हितों को साधने की अन्य इच्छाओं को बढ़ाती है.

और यूरोप के लिए, चीन और भी दूर है, और खतरे की भावना विशुद्ध रूप से एक बौद्धिक और उससे भी कम नैतिक मात्र है. फ्रांस के पास हिंद महासागर का क्षेत्र है लेकिन ये चीन के निकट नहीं हैं, क्योंकि ये प्रशांत और दक्षिणी हिंद महासागर में दूर तक फैले हैं. रूस की तुलना में चीन पर बहुत अधिक निर्भर होने के कारण, प्रमुख यूरोपीय शक्तियों विशेष रूप से जर्मनी ने चीन पर आर्थिक दांव खेले हैं जिनसे पीछे हटना मुश्किल है. भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर सही कह रहे हैं कि यूरोप की समस्याएं दुनिया की नहीं हैं, लेकिन उसी तर्क से एशिया की समस्याएं भी यूरोप की समस्याएं नहीं हैं.

पुतिन का जुआ, भारत का स्टैंड

यह सच हो सकता है कि मॉस्को की पूरी तरह से चीन पर निर्भर होने में कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन पुतिन के जुए ने उनके पास कोई विकल्प नहीं छोड़ा है. विशेष रूप से जब भारत की बात आती है, तो मास्को अपने पारंपरिक संबंधों को बनाए रखने के लिए जो कुछ भी कर सकता है वह करना चाहता है. सवाल यह है कि क्या चीन पर निर्भरता को देखते हुए रूस बहुत कुछ कर सकता है. यूक्रेन पर उसके हमले से पहले ही, चीन के समर्थन के लिए मास्को की आवश्यकता स्पष्ट रूप से एक बाधा रही है.

उदाहरण के लिए, मॉस्को ने वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के पार चीन की आक्रामकता को लेकर भारत के समर्थन में एक भी शब्द नहीं कहा है और चीन की आलोचना तो दूर की बात है. यदि और सबूत की जरूरत है, तो भारत-पाकिस्तान संघर्ष और भारत-चीन विवाद के मामले में रूस की स्थिति में अंतर पर ध्यान दें.

यह सच है कि रूस ने अभी तक इसे भारत के साथ अपने हथियारों के सौदे के सम्मान में आड़े नहीं आने दिया है, हालांकि भारतीय अधिकारियों ने कहा है कि रूस से आपूर्ति यूक्रेन से युद्ध के कारण प्रभावित हुई है. रूस को अपने स्वयं के हथियार उद्योग को बनाए रखने के लिए भारतीय हथियार बाजार की आवश्यकता है, जो उसे नई दिल्ली के साथ अपने संबंध बनाए रखने के लिए अतिरिक्त प्रोत्साहन प्रदान करता है. क्या यह रूस को भारत को हथियारों की आपूर्ति जारी रखने के लिए पर्याप्त होगा, यह देखना बाकी है. हालांकि, इतिहास संदेह के कुछ कारण सुझाता है. 1962 के चीन-भारत युद्ध में, सोवियत संघ ने नई दिल्ली के साथ मिग-21 सौदे को पूरा करने की गति धीमी कर दी थी क्योंकि उसे चीन की अधिक आवश्यकता थी. उसे आज चीन की और भी ज्यादा जरूरत है.

चीनी विश्लेषक पहले से ही चीन-भारत विवाद की स्थिति में मास्को के अपने पक्ष में होने का दबाव बनाने का सुझाव दे रहे हैं. बहुत संभव है कि बीजिंग ऐसी सलाह पर ध्यान दे, अगर उसने अभी तक ऐसा नहीं किया है. इसके बावजूद, भारत ने गुटनिरपेक्षता, रणनीतिक स्वायत्तता और नॉन-अलाइनमेंट की सभी बातों के बावजूद हथियारों के लिए मास्को पर अपनी अत्यधिक निर्भरता के साथ खुद को कमजोर बना लिया है. इसे भारत की सबसे खराब रणनीतिक गलतियों में गिना जाना चाहिए.

यह इस वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में भारत की स्थिति में एक महत्वपूर्ण अंतर की ओर इशारा करता है. भारत अब अग्रिम मोर्चे पर है, जिसका अर्थ है कि अब उसके पास युद्ध से दूर रहने का विकल्प नहीं है. दूसरा अपने सहयोगियों को चुनने की भी गलती करने का विकल्प इसके पास नहीं है. भारत के पास गलती करने का विकल्प घटता जा रहा है और भारत को सभी विकल्पों का उपयोग करने का जोखिम नहीं उठाना चाहिए.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), नई दिल्ली में इंटरनेशनल पॉलिटिक्स के प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @RRajagopalanJNU है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)

(इस लेख़ को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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