एक नए नामकरण INDIA, या इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इन्क्लूसिव एलायंस के तहत एकजुट हुए ‘अनसीट मोदी ब्रिगेड’, यानी ‘मोदी को कुर्सी से हटाओ’ वाली ब्रिगेड ने हाल ही में बेंगलुरु में अपनी दूसरी बैठक की. इसकी पहली बैठक पटना में हुई थी. हालांकि, तब से बहुत कुछ नहीं बदला है. ‘मोदी-मुक्त संसद’ का सपना देखने वालों ने भाजपा और खासकर उसके सबसे बड़े नेता नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए अपने चाकू की धार तेज कर ली है. लेकिन अलग-अलग कलेवर वाली 26 राजनीतिक दलों की इस भीड़ को पता होना चाहिए कि वे अपने लक्ष्य के करीब भी नहीं हैं. इनमें से कुछ पार्टियां कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए का हिस्सा थीं, जो दो बार भाजपा को सत्ता से हटाने में बुरी तरह विफल रही हैं.
नतीजों के बारे में अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है. न तो कांग्रेस और न ही अन्य पार्टियों के पास ऐसा कोई भी राष्ट्रीय नेता है जिसका कद और लोकप्रियता भाजपा के कई नेताओं के बराबर हो. इसके अतिरिक्त, जहां तक 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे की बात है, तो इन पार्टियों में एक-दूसरे या यहां तक कि कांग्रेस के साथ भी सामंजस्य बैठने की संभावना नहीं दिखती है. ज़्यादा से ज़्यादा, वे अपने-अपने राज्यों से चुनाव लड़ना चाहेंगे और कांग्रेस और अन्य सहयोगियों के वोट हासिल करने की उम्मीद करेंगे.
कांग्रेस को छोड़कर, यूपीए के नए अवतार में अन्य सभी दल इस बात को लेकर अत्यधिक चिंता और संदेह से भरे हैं, और यह सही भी है, कि अगर वे सुनिश्चित रिटर्न या लाभ के अपने क्षेत्र से बाहर निकलते हैं तो वे अपने संबंधित राज्यों में अपना समर्थन आधार खो देंगे. मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) एक ही समय में दो घोड़ों की सवारी करने की कोशिश करने वाली पार्टी का एक उत्कृष्ट उदाहरण है. ‘दलित आइकन’ के रूप में देखे जाने की उनकी अखिल भारतीय महत्वाकांक्षा ने उन्हें अन्य राज्यों में वोट या स्वीकृति नहीं दिलाई है; वास्तव में, इससे उनकी “कर्मभूमि” उत्तर प्रदेश में उनका समर्पित या डेडीकेटेड वोट बैंक ख़त्म हो गया.
इस तर्क का समर्थन करने के लिए दो कारण बताए गए हैं कि भाजपा विरोधी दलों की संयुक्त ताकत से भाजपा 2024 में संभावित रूप से सत्ता से बाहर हो सकती है. पहली है हाल ही में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मिली हार और दूसरी है 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की ऐतिहासिक हार, जब भारतीय अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन कर रही थी और देश की वैश्विक स्वीकार्यता ऊंची थी.
नया गठबंधन कहां गलत समझ रहा है
कर्नाटक में 2023 के विधानसभा चुनाव की स्थितियां अलग थीं, जहां भाजपा के सीधे मुकाबले में कांग्रेस थी और तत्कालीन बीजेपी मुख्यमंत्री की लोकप्रियता उनके पहले के बीजेपी मुख्यमंत्रियों जितनी नहीं थी. इसके अलावा, कांग्रेस जनता के बीच यह धारणा बनाने में भी सफल रही कि भाजपा सरकार भ्रष्टाचार को रोकने में विफल रही है. इसके अलावा कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री का एक चेहरा भी पेश किया गया था, हालांकि नतीजों के बाद पार्टी को अंदरूनी कलह को सुलझाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ा.
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2024 के लोकसभा चुनाव के मामले में, कर्नाटक के ये एक भी फैक्टर राष्ट्रीय स्तर पर लागू नहीं होते है. मुकाबला सीधा नहीं होने वाला है. कांग्रेस के पास प्रधानमंत्री पद का कोई चेहरा नहीं है. दरअसल, इसके अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने ऐलान किया है कि पार्टी को पीएम पद में कोई दिलचस्पी नहीं है. दरअसल, यह चुनाव तक अन्य पार्टियों को इस नए गठबंधन ‘INDIA’ में बनाए रखने की कांग्रेस की रणनीति मात्र है.’ जैसे ही वह इस नए यूपीए का नेतृत्व करने की अपनी इच्छा ज़ाहिर करेगी, कई साझेदार यह मंच छोड़ देंगे.
फिर 2004 के चुनाव परिणाम को 2024 में भाजपा को हराने के सफल मंत्र के रूप में प्रचारित करना भी काफी अतार्किक है, क्योंकि 2004 का मुकाबला भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए के बीच था. जहां भाजपा को 138 सीटें (22.2 प्रतिशत वोट) मिलीं, वहीं कांग्रेस ने 145 सीटें (26.5 प्रतिशत वोट) जीतीं, जो सात सीटों का मामूली अंतर था. भाजपा के दो मजबूत सहयोगियों, तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) को क्रमशः शून्य और पांच सीटें मिलीं; अन्य सभी एनडीए साझेदारों को सामूहिक रूप से 113 सीटों का नुकसान हुआ. यही वह कारक था जिसने वाजपेई सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया. कांग्रेस और अन्य 25 पार्टियों के लिए 2024 में तीन अंकों के आंकड़े तक पहुंचना न केवल असंभावित है, बल्कि असंभव भी है.
इसलिए, कांग्रेस के लिए सबसे अच्छा दांव यही होगा कि वह अपने अलग हो चुके यूपीए सहयोगियों को वापस लाने के प्रयासों को छोड़ दे और नए साथियों का गठबंधन बनाए. इनमें से कई पार्टियों का नेतृत्व एक ही परिवार के हाथों में है और उन पर भ्रष्टाचार व सार्वजनिक धन के गबन के आरोप लगे हैं. उनके कार्यों का बोझ कांग्रेस अपने कंधों पर उठाएगी.’
इसके अलावा, इनमें से किसी भी पार्टी की राष्ट्रव्यापी उपस्थिति नहीं है; वे एक सीमित वोट बैंक के साथ एक राज्य तक ही सीमित हैं. कांग्रेस एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसका अखिल भारतीय नेटवर्क है, भले ही वह काफी कमजोर हो चुकी है. यही कारण है कि पार्टी की वंशवादी संरचना और असफल नेतृत्व के बावजूद नए यूपीए ने अपने पूर्व अध्यक्ष को बरकरार रखा है, जो नए समूह को मिल सकने वाले फायदे में शायद ही कोई इजाफा करेगा. कांग्रेस को 2029 में अकेले चुनाव लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए, अगर वह तब तक जीवित रहने में सफल रहती है तो. इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद कुछ पार्टियां INDIA से अलग होकर एनडीए में शामिल हो जाएं.
(शेषाद्रि चारी ‘ऑर्गनाइज़र’ के पूर्व संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @seshadrihari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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