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Saturday, 16 November, 2024
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भारत में तेजी से बढ़ता हिंसक युवा वर्ग राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से इसकी सबसे बड़ी समस्या है

‘जीवन में कुछ घटित होने का इंतजार करना’ ही अनेक युवा भारतीयों के लिए एक बड़ा काम है. हमारे लिए जरूरी है कि आने वाले समय के लिए अरब स्प्रिंग की परिणति से कुछ सबक सीखे जाएं.

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केले के एक टोकरे और नाशपाती के दो टोकरों को लेकर शुरू हुई बहस ही आगे जाकर क्रांति में तब्दील हो गई. दरअसल, हर सुबह की तरह ही कुछ स्थानीय अधिकारी ट्यूनीशिया के छोटे से शहर सिदी बौजिद स्थित बाजार पहुंचे थे और उन्होंने वहां बिना लाइसेंस के रेहड़ीवालों से सड़क खाली करने को कहा. जैसा अमूमन होता था, कुछ ने हल्की-फुल्की बहस की और कुछ ने तानों के रूप में अपनी प्रतिक्रिया जताई. नगर पुलिस ने जवाबी कार्रवाई करते हुए एक युवक से फल और तराजू छीन लिया. इस पर वह चिल्लाया, ‘अब मैं क्या करूं, क्या अपने फल तुम्हारी छाती से तौलूं ?’

फैदा हमदी, यानी जिस अधिकारी पर यह ताना मारा गया था, वह कतई डरने वालों में नहीं थी. वह काफी समय से ऐसे आक्रामक लोगों से निपटने की आदी हो चुकी थी और उसने इसका जवाब उसके चेहरे पर एक जोरदार थप्पड़ रसीद कर दिया.

उसी दिन बाद में उस फल विक्रेता मोहम्मद बुआजिजी ने खुद पर पेंट थिनर छिड़ककर आग लगा ली. उसकी 18 दिन बाद एक सैन्य अस्पताल में मौत हो गई लेकिन 2009 में उस दिन उसने जो आग जलाई थी, वह पूरे क्षेत्र में फैल गई.

इस हफ्ते, भारतीयों ने युवाओं की एक ऐसी भीड़ देखी जो बसों, ट्रेनों और अन्य सार्वजनिक संपत्तियों को आग लगाने पर उतारू है क्योंकि उसे सैन्य भर्ती पर नरेंद्र मोदी सरकार का फैसला नागवार गुजरा है, जिसमें चार साल के अनुबंध के साथ अन्य लाभों में कटौती की गई है. इस साल के शुरू में भारतीय रेलवे में भर्ती को लेकर भी इसी तरह के हिंसक प्रदर्शन हुए थे.

आर्थिक संघर्ष कहीं न कहीं इस तरह की युवा हिंसा के पीछे एक बड़ी वजह है, भारत के राजनीतिक परिदृश्य में देखें तो जातीय-धार्मिक उग्रवाद, संगठित अपराध और यौन हमले लगातार बढ़ते जा रहे हैं.

इस पर थोड़ा गौर करने की जरूरत है कि आखिर संघर्ष की वजह क्या है. विश्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि 15-24 आयु वर्ग के चार भारतीयों में से एक से भी कम श्रम बल का हिस्सा होते हैं और नौकरी के इच्छुक करीब 25 प्रतिशत युवाओं को कोई काम नहीं मिल रहा है.

दशकों से स्थिति लगातार बदतर होती जा रही है, खासकर एक ऐसे देश में जहां आधी से अधिक आबादी 25 से कम उम्र की है. भारत को हर महीने एक लाख रोजगार पैदा करने की जरूरत है जबकि इसकी अर्थव्यवस्था कभी भी इस मांग को पूरा करने की स्थिति में नहीं आई.

जैसा मानव विज्ञानी क्रेग जेफरी कहते हैं, ‘जीवन में कुछ घटित होने का इंतजार करना’ ही अनेक युवा भारतीयों का एकमात्र काम रह गया है.


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युवा, पुरुष और हिंसात्मकता

भारत की आज की स्थिति की तरह ही एक समय अरब स्प्रिंग के मुहाने पर खड़ा मध्य पूर्व एक जनसांख्यिकीय संकट से जूझ रहा था. पॉलिसी एक्सपर्ट नादेर कब्बानी की मानें तो मध्य पूर्व में इस सदी में लगातार बढ़ती युवा बेरोजगारी दुनिया में सबसे अधिक हो गई थी, जो 30 प्रतिशत के आंकड़े को छू रही थी. भले ही शैक्षिक स्थिति में अभूतपूर्व ढंग से सुधार हुआ हो लेकिन नौकरियों के अवसर नहीं बढ़े थे. मिस्र में अर्थशास्त्री रागुई असद और घाडा बरसून ने पाया कि बड़ी संख्या में काम की तलाश करने वालों को अनौपचारिक क्षेत्र में कम वेतन वाले अवसर ही मिल पा रहे थे.

इस पर मानव विज्ञानी एम क्लो मुलदरिग ने अवधारणा कहती है, ‘अरब देशों में युवाओं की एक पूरी पीढ़ी के लिए तो सामाजिक ताने-बाने की सबसे अहम कड़ी ही टूट गई थी— कि बच्चे एक दिन बड़े होंगे, समाज में उत्पादकता बढ़ाने में योगदान देना शुरू करेंगे और फिर अपने खुद के परिवारों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी संभालेंगे.’ इसके बजाये, मुलदरिग नोट करते हैं, ‘वयस्क होने की दहलीज पर खड़ी उनकी किशोर पीढ़ी एक गरिमाहीन, निर्रथक जीवन वाली स्थिति में आ गई थी.’

कई समाजों में ‘वयस्कता-पूर्व’ की स्थिति लैंगिक आक्रामकता की जहरीली संस्कृति को बढ़ाना देने वाली रही है. इस पर ट्यूनीशियाई पुलिस अधिकारी हमदी का गहन आकलन यही रहा था, ‘अगर किसी आदमी ने उसे मारा होता, तो ऐसा कुछ नहीं होता.’

स्कॉलर कॉलिन काहल का मानना है कि केन्या में 1991 से 1993 के बीच बड़े पैमाने पर जातीय हिंसा की जड़ें भी इसी तरह जनसांख्यिकीय दबावों में निहित थीं. काहल ने अपने आकलन में कहा था, ‘अर्थव्यवस्था की तेजी से बढ़ती श्रम शक्ति को समाहित करने की क्षमता घट गई क्योंकि निजी क्षेत्र में गिरावट आ गई और केन्या में रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत माने जाने वाले सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरियों की संख्या बढ़नी बंद हो गई.’

राजनीतिक विज्ञानी टेड गुर ने 1981 के एक अध्ययन में पाया कि जिन शहरों में युवा आबादी ज्यादा है, वहां अपराध दर ‘उस समय और उन जगहों की तुलना में अधिक पाई जाती है जहां उम्रदराज लोगों की जनसंख्या अधिक होती. गुर ने अपने आकलन में कहा, ‘युद्ध के बाद युवा पीढ़ी में उभार का अमेरिका और ब्रिटेन में व्यक्तिगत और संपत्ति अपराध की घटनाओं में वृद्धि की शुरुआत से निकट संबंध रहा है.’

भारत में हिंसक संघर्ष की जांच करने वाले 2005 के एक पेपर में शोधकर्ता हेनरिक उरदल का निष्कर्ष यही कहता है कि युवा वर्ग के उभार का सशस्त्र संघर्षों और दंगों के खतरों के साथ एक अहम सांख्यिकीय रिश्ता रहा है. उन्होंने कहा, ‘सशस्त्र संघर्ष का खतरा खासकर तब स्पष्ट तौर पर सामने आता है जब युवा वर्ग के उभार के साथ पुरुषों का अच्छा-खासा वर्चस्व भी हो. वैश्विक स्तर पर साक्ष्यों की समीक्षा में पाया गया है कि ‘अपेक्षाकृत बड़े युवा वर्ग के कारण सशस्त्र संघर्ष, आतंकवाद और दंगों का जोखिम काफी ज्यादा रहता है.’


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युवावस्था का स्याह पहलू

आर्थिक इतिहासकार काफी पहले से इस तथ्य पर ध्यान आकृष्ट कराते रहे हैं कि जनसांख्यिकीय बदलाव ही कई ऐतिहासिक संकटों के उभरने की वजह बना है. 1640-1641 में इंग्लिश स्टेट का पतन अभिजात्य वर्ग के बीच फूट, वित्तीय संकट और आर्थिक तनाव के कारण हुआ. समाजशास्त्री और राजनीतिक विज्ञानी जैक गोल्डस्टोन के मुताबिक, यह सब बढ़ने की एक बड़ी वजह जनसंख्या वृद्धि थी. यही नहीं, ऐसे जनसांख्यिकीय दबावों ने 1848 की क्रांतियों के जरिये यूरोपीय देशों में कई संकटों को जन्म दिया— जिससे ही अरब स्प्रिंग को अपना नाम मिला था.

गोल्डस्टोन ने लिखा है, ‘इतिहास खंगालें तो पता चलता है कि राजनीतिक हिंसा में युवाओं की हमेशा एक प्रमुख भूमिका रही है. और स्पष्ट तौर पर देखा गया है कि युवा वर्ग की व्यापक मौजूदगी— खासकर कुल वयस्क आबादी के सापेक्ष 15 से 24 वर्ष के युवाओं का अनुपात असामान्य रूप से ज्यादा होना— का राजनीतिक संकटों के समय हिंसा से सीधे तौर पर जुड़ाव रहा है.’

इतिहासकार नॉर्म कोहन का अध्ययन बताता है कि ऐतिहासिक तौर पर युवा सहस्राब्दिवादी आंदोलनों के लिए तैयार थे, जिसमें कयामत के बाद एक हजार साल के लिए ईसा का आदर्श शासन स्थापित होने की कल्पना की गई है. प्रथम धर्मयुद्ध, जिस दौरान यहूदियों के खिलाफ बड़े पैमाने पर नरसंहार हुए— का सामाजिक इतिहास बताता है कि इन घटनाओं के पीछे युवाओं की केंद्रीय भूमिका थी.

यही बात आधुनिक विश्व को आकार देने वाले कई संकटों के संदर्भ में भी लागू होती है. हर्बर्ट मोलर का मत है कि नाजी-पूर्व जर्मनी में युवा वयस्कों का उच्च अनुपात फासीवाद की नींव रखने में मददगार बना. जर्मनी में फासीवाद का उदय वैसे समय में हुआ जब 1900 से 1914 के बीच जन्मे लोगों वाला ऐतिहासिक-अभूतपूर्व युवा वर्ग नौकरी के बाजार में आया. महामंदी के बीच और अमेरिका में आव्रजन अवसर बंद होने से न केवल उनका जीवन प्रभावित हुआ, बल्कि पूरी दुनिया की ही सूरत बदल गई.


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हिंसा से मिले सबक

वैसे अनुभव तो यही बताता है कि जो राष्ट्र-राज्य युवाओं के नेतृत्व वाली हिंसा को कुचलने में कामयाब भी हो जाते हैं, वहां इसकी अभिव्यक्ति के नए रास्ते तलाश लिए जाते हैं. अरब स्प्रिंग के बाद ट्यूनीशिया को लोकतांत्रिक सुधारों का अहम मॉडल बनने का तमगा मिला लेकिन असल में यह इस्लामिक स्टेट को सबसे ज्यादा जिहादी मुहैया कराने वाले के साथ-साथ यूरोप में अवैध प्रवासियों की बाढ़ की वजह साबित हुआ. सीरिया और लीबिया जैसे देशों में अरब स्प्रिंग ने एक उग्र गृहयुद्ध का रूप ले लिया, जिसकी शुरुआत आसानी से बहकावे में आकर हिंसा पर उतरने वाले युवा वर्ग की स्वत:स्फूर्त क्रांति के तौर पर ही हुई थी.

भारत में तमाम लोगों को बड़े पैमाने पर मध्य-पूर्व शैली का विद्रोह भड़कने की संभावना अतिशयोक्ति लग सकती है, आखिरकार भारतीय राज्य संरचना किसी दीर्घकालिक विद्रोह और नागरिक संघर्षों की स्थिति से बची रही है.

हालांकि, ऐसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं, जहां हिंसक युवाओं की लामबंदी राज्य पर भारी पड़ी हो. पूर्व पुलिस अधिकारी प्रकाश सिंह ने 2016 में हरियाणा हिंसा की आधिकारिक जांच में पाया कि खुद पुलिस बल जातिगत आधार पर बिखरा हुआ था. बड़े पैमाने पर संसाधनों का अभाव झेल रही भारत की पुलिस प्रणाली को पहले ही देश के बड़े हिस्से में कानून-व्यवस्था कायम रखने में एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है. ऐसे में नई चुनौतियों से निपटने की उसकी क्षमता सवालों के घेरे में है.

सामाजिक विज्ञानी राहिल दत्तीवाला और माइकल बिग्स के शोध से यह संकेत मिलता है कि हिंदू राष्ट्रवादी हिंसा को बढ़ावा मिलने के पीछे युवा वर्ग हो सकता है. कश्मीर और पूर्वोत्तर में युवा लामबंदी ने जातीय-धार्मिक हिंसा भड़काने में अहम भूमिका निभाई है. हिंसक अपराधों के साथ-साथ युवाओं से संबंधित गैंग-कल्चर भी काफी बढ़ा है.

भारत के इस युवा संकट को सुलझाना ही भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा प्रणाली का एकमात्र सबसे बड़ा उद्देश्य होना चाहिए, अन्यथा इतिहास गवाह है कि इसके नतीजे जानलेवा टकरावों और अराजकता के तौर पर सामने आते हैं.

(लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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