लगता है पीएम नरेंद्र मोदी ने 41 कोल ब्लॉक को निजी निवेश के लिए खोलने का ऐलान कर भारत को क्लीन एनर्जी से उल्टी दिशा में दौड़ा दिया है. जो देश इंटरनेशनल सोलर अलायंस का अगुआ हो और जिस देश का पीएम भारतीय संस्कृति में पर्यावरण रक्षा के तत्वों को दुनिया के तमाम मंचों पर विश्लेषित करता हो, वहां भारी प्रदूषण फैलाने वाले कोयले से बिजली उत्पादन की क्षमता को बढ़ावा देने का उसका फैसला चौंकाता है.
भारत में कोयला खनन में निजी कंपनियों को उतारने का फैसला ऐसे वक्त में लिया जा रहा है, जब विकसित और विकासशील दोनों तरह के देशों में क्लीन एनर्जी में भारी निवेश किया जा रहा है.
भारत की सोलर एनर्जी की दिशा में पहल
पांच साल पहले पेरिस के जलवायु सम्मेलन में पीएम नरेंद्र मोदी, फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांक्वा ओलांद और यूएन के पूर्व सेकेट्री जनरल बान की मून की अगुआई में इंटरनेशनल सोलर एलांयस का ऐलान किया गया था. दुनिया भर के 122 देश अब इसके सदस्य हैं और इसके जरिये 2030 तक सोलर एनर्जी के लिए 1000 अरब डॉलर खर्च किए जाएंगे. खुद भारत ने 2022 तक इसमें अपनी स्थापित क्षमता 100 गीगावाट तक ले जाने की ठानी है.
हाल में पीएम ने सोलर अलायंस को दुनिया के लिए एक गिफ्ट बताया था. माना जाता है कि इस अलांयस के जरिये पीएम नरेंद्र मोदी ने भारत को इंटरनेशनल डिप्लोमेसी में एक केंद्रीय भूमिका में भी रखने की कोशिश की है. लेकिन पिछले दिनों देश की कोयला खदानों को प्राइवेट सेक्टर के लिए खोलने के ऐलान के बाद क्लीन एनर्जी, खासकर सौर ऊर्जा पर भारत की प्रतिबद्धता को लेकर सवाल खड़े होने शुरू हो गए हैं.
2010 में भारत दुनिया की सबसे तेज रफ्तार वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक था. माना जा रहा था कि भारत का तेज आर्थिक विकास इसकी ऊर्जा जरूरतों को काफी बढ़ा देगा और कोयला और पेट्रोल जैसे पारंपरिक ऊर्जा स्रोत पर्यावरण संरक्षण की बढ़ती जरूरत के साथ मेल नहीं खाएंगे. इसलिए क्लीन एनर्जी को बढ़ावा मिलना चाहिए. इसमें सौर ऊर्जा की अहम भूमिका होगी क्योंकि भारत के बड़े हिस्से में धूप भरपूर रहती है.
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तेज रफ्तार चाल धीमी क्यों पड़ी?
2010 में भारत में सौर ऊर्जा की स्थापित क्षमता सिर्फ 10 गीगावाट की थी लेकिन 2019 में यह बढ़ कर 30 गीगावाट तक पहुंच गई. इन 10 वर्षों में भारत में सोलर इलेक्ट्रिसिटी सबसे सस्ती एनर्जी हो गई. 2015 में सोलर एलायंस के ऐलान के बाद तो देश के सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता में जबर्दस्त इजाफा हुआ. सिर्फ तीन साल में ही यानी 2016 से 2019 के बीच सौर ऊर्जा की स्थापित क्षमता पांच गुना बढ़ गई.
लेकिन इस गति को ब्रेक लगी. अब पिछले दो-तीन साल से देश सौर ऊर्जा के विकास में बेहद धीमा चल रहा है. लिहाजा यह सवाल लाजिमी है कि आखिर इस धीमेपन की वजह क्या है?
दरअसल, सोलर एनर्जी के क्षेत्र में तेज दौड़ने के लिए बनाई गई नीतियां ही अब इसके लिए स्पीड ब्रेकर बन गई हैं. ऊर्जा पर बनी संसद की स्थायी समिति ने हाल ही में ही क्लीन एनर्जी का टारगेट पूरा न कर पाने के कारण नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (New and renewable energy ministry) की खिंचाई की है. इसमें सोलर ऊर्जा उत्पादन क्षमता बढ़ाने की कोशिश में पिछड़ने का साफ तौर पर जिक्र है.
घटने लगी है क्षमता
देश में पिछले दो-तीन साल में सोलर एनर्जी पैदा करने की क्षमता में काफी कमी आई है. 2017-18 में यह क्षमता 9.4 गीगावाट की थी. 2018-19 में यह घट कर 6.5 गीगावाट पर आ गई और 2019-20 में तो यह गिर कर और नीचे यानी 2.9 गीगावाट पर पहुंच गई. 2022 तक भारत को 100 गीगावाट के अपने लक्ष्य को हासिल करना है लेकिन अब तक कुल 31 गीगावाट की स्थापित क्षमता ही हासिल हो सकी है.
अहम सवाल यह है कि क्या दो साल में हम 69 गीगावाट की स्थापित क्षमता हासिल कर लेंगे? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि शुरुआत में अच्छी रफ्तार पकड़ने के बावजूद सोलर एनर्जी में अपनी स्थापित क्षमता बढ़ाने में हम किन वजहों से चूक रहे हैं? इसकी तीन-चार मोटी वजह है, जिन्हें समझना जरूरी है.
सरकार ने सोलर एनर्जी को बढ़ावा देने के लिए नेशनल इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 2003 और नेशनल टैरिफ पॉलिसी 2006 के तहत री-न्यूबल परचेज एग्रीमेंट यानी (RPO) की व्यवस्था की है. इसके तहत राज्यों की बिजली वितरण कंपनियों और बिजली की बड़ी उपभोक्ता कंपनियों के लिए अपनी खपत की 17 फीसदी बिजली सोलर एनर्जी के तौर पर खरीदना जरूरी कर दिया गया. लेकिन नियामक एजेंसियां इस नियम को सख्ती से लागू नहीं कर पाईं.
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दूसरे, सोलर एनर्जी खरीदने वाली राज्य की बिजली वितरण कंपनियां, सोलर पावर सप्लायर्स के पैसे देने में देरी करने लगीं. पिछले साल जुलाई तक राज्य बिजली वितरण कंपनियों पर सोलर पावर सप्लायर्स कंपनियों का 9736 करोड़ रुपये बकाया था. जिन राज्यों ने सोलर एनर्जी खरीदने में सबसे ज्यादा दिलचस्पी दिखाई थी, वही सबसे बड़े बकायेदार बन कर उभरे. सोलर पावर सप्लायर कंपनियों का राज्यों पर जितना बकाया है, उसमें आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, तेलंगाना और कर्नाटक की 75 फीसदी हिस्सेदारी है.
दूसरी बड़ी समस्या है सोलर पावर को सबसे सस्ता बनाने पर सरकार का जोर. सरकार ने सोलर पावर कंपनियों के लिए बिजली बेचने के रेट बांध दिए हैं. यह रेट प्रति यूनिट 2.40 पैसे रखी गई है. इससे ज्यादा पर राज्य की बिजली वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) सोलर पावर खरीदने की लिए तैयार नहीं हैं. सौर ऊर्जा से बिजली बनाने वाली कंपनियों के लिए इस रेट पर बिजली बेच कर बाजार में टिके रहना मुश्किल है. पिछले साल जून में आंध्र प्रदेश के सोलर पावर प्लांट्स ने कई दिनों तक अपने उत्पादन में 70 फीसदी की कटौती की.
जीएसटी की मार
भारी सब्सिडी और दूसरी सहूलियतें देने के बाद अचानक सरकार 2017 में सोलर एनर्जी से बिजली बनाने वाली कंपनियों को जीएसटी के दायरे में ले आई. सौर एनर्जी के ज्यादातर प्रोजेक्ट 2017 से पहले के थे, इसलिए उत्पादक कंपनियों ने लागत में टैक्स नहीं जोड़ा था. जब कंपनियों ने एतराज किया तो सरकार ने कहा कि आप टैक्स दे दीजिये, बाद में इसकी भरपाई कर दी जाएगी. 2017 से 2019 के बीच इन कंपनियों ने जीएसटी के तौर पर सरकार को 8000 करोड़ रुपये दिए. लेकिन राज्य सरकारों ने इसकी भरपाई करने से मना कर दिया. मामला अपीलीय ट्रिब्यूनल में पहुंच कर उलझ गया. इससे भी उत्पादक कंपनियों का मन खट्टा हुआ.
सेफगार्ड ड्यूटी लगाना गलत कदम साबित हुआ
सरकार ने सोलर ऊर्जा का उत्पादन करने वाले उपकरणों, बैटरी और मॉडयूल का निर्माण करने वाली घरेलू कंपनियों को संरक्षण देने के लिए 2018 में चीन और मलेशिया से आने वाले सोलर उपकरणों, बैटरी और मॉड्यूल पर सेफगार्ड ड्यूटी लगाना शुरू कर दिया. इससे सोलर एनर्जी से बिजली पैदा करने वाली कंपनियों की लागत बढ़ गई. जबकि घरेलू कंपनियां चीन और मलेशियाई कंपनियों की गुणवत्ता की बराबरी करने में नाकाम साबित हो रही हैं.
इसके अलावा वे सोलर एनर्जी कंपनियों की जरूरतों को पूरा करने लायक उत्पादन भी नहीं कर पा रही हैं. महंगा होने के बावजूद भारत की सोलर एनर्जी कंपनियों को चीनी और मलेशियाई उत्पादों से काम करना पड़ रहा है. चीन से सीमा विवाद के बाद एक बार फिर भारत ने वहां से आयातित सोलर बैट्री, मॉड्यूल और दूसरे उपकरणों पर 20 फीसदी की सेफगार्ड ड्यूटी लगाने का ऐलान किया है.
आम उपभोक्ताओं को लुभाने की कोशिश भी नाकाम
भारत ने घर की छतों पर सोलर पैनल लगा कर 2022 तक 40 हजार मेगावाट की क्षमता जोड़ने का लक्ष्य रखा है. इस लक्ष्य को पाने के लिए शुरू में सरकार ने सारे रूफ-टॉप सोलर प्रोजेक्ट पर 30 फीसदी तक सब्सिडी देनी शुरू की. लेकिन जल्दी ही यह सब्सिडी सिर्फ गैर लाभकारी संस्थानों और सरकारी भवनों की छतों पर लगने वाले सोलर पैनलों तक सीमित कर दी गई.
इसके अलावा बाहर से आने वाले फोटो वोल्टिक मॉड्यूल पर सेफगार्ड ड्यूटी लगाने से भी ये महंगे हो गए. सरकार जिन उपभोक्ताओं को सौर ऊर्जा का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित कर रही थी, वे अब इस एनर्जी से दूर होने लगे. इस तरह आम उपभोक्ताओं के बीच सोलर एनर्जी को लोकप्रिय बनाने की सरकार की योजना भी धराशायी हो गई.
अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकार फिर कोयला खनन के दोहन की नीति पर उतर आई है. यानी क्लीन ऊर्जा की दिशा में भारत की महत्वाकांक्षा सीधे पलटी खाती दिख रही है.
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने हिंदी साहित्य पर शोध किया है.यह उनके निजी विचार हैं)
[भारत में कोयला खनन में निजी कंपनियों को उतारने का फैसला ऐसे वक्त में लिया जा रहा है, जब विकसित और विकासशील दोनों तरह के देशों में क्लीन एनर्जी में भारी निवेश किया जा रहा है.]
कोयला खदानें निजी कंपनियों को बेच देने के पीछे मोदी जी की एक स्पष्ट भ्रष्ट सोच है ।
सबसे पहला मुद्दा तो यह है कि सरकारी कोयला खदानों में भ्रष्टाचार बहुत होता है और सरकार को बड़ा नुकसान उठाना पड़ता है । कोयले की हर रैक में निर्धारित मात्रा से 50 प्रतिशत अधिक कोयला भरा जाता है और वह अतिरिक्त मात्रा तौल में दिखती ही नहीं है । यानी कि व्यापारी और अफसर मिल कर सरकार को चूना लगाते हैं ।
सबसे बड़ी बात यह है कि इस सरकारी लूट में फकीर के झोले में एक छदाम भी नहीं पड़ती है ।
कोयला खदानों को निजी क्षेत्र को सौंप देने से यह लूट रुकने वाली नहीं है । बल्कि , और बढ़ जाएगी । तब , कोयला खदानें दिन-रात काम करेंगी और सरकार को पता ही नहीं चलेगा कि कितना कोयला निकाला गया है । सरकार को रायल्टी का नुकसान होगा ।
लेकिन , निजी क्षेत्र में कोयला खदानों के जाने से व्यापारी की लूट समाप्त हो जाएगी । तब , पूरी रैक का सही तौल होगा और व्यापारी को पूरा पैसा चुकाना पड़ेगा ।
इस तरह निजी क्षेत्र जो काला धन कमायेगा , उसमें से कुछ रकम वह फकीर के झोले में भी डाल देगा ।
यह है मोदी जी की भ्रष्ट सोच ।
मैं इसे भ्रष्ट सोच इसलिए बोल रहा हूँ कि खदानों को सरकारी क्षेत्र में रखते हुए भी लूट को रोका जा सकता है ।
इसके लिए जरूरत देश के भ्रष्ट भ्रष्टाचार निरोधक कानून को स्वच्छ बनाने की है ।
ज्ञातव्य है कि देश में आज हर सरकारी कर्मचारी को रिश्वत खाने का लाइसेंस मिला हुआ है ।
ज्ञातव्य है कि पिछले 6 सालों में देश में किसी भी सरकारी अधिकारी के द्वारा रिश्वत खाने की एक भी FIR देश के किसी भी थाने में दर्ज नहीं हुई है । इसलिए , पुलिस वालों सहित देश का हर सरकारी कर्मचारी रिश्वत खा रहा है ।
लेकिन , यदि मोदी जी भ्रष्ट भ्रष्टाचार निरोधक कानून को संशोधित कर युक्तियुक्त बना दें तो एअर इंडिया और भारत संचार निगम से लेकर हर सार्वजनिक उपक्रम लाभ में चलने लगेगा । तब , सरकारी उपक्रमों में भ्रष्टाचार नहीं होगा ।
लेकिन , समस्या यह है कि तब फकीर के झोले में चंदा कौन डालेगा ?
इस समस्या का मोदी हल यह है कि पहले सरकारी उपक्रमों में भ्रष्टाचार को बढ़ाओ और फिर धीरे से सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में सरका दो ताकि फकीर का झोला हमेशा भरा रहे ।
मोदी जी का सूत्र दोहा है __
भ्रष्टी नियरे राखिये , आँगन कुटी छवाय ।
कौ जाने किस भेस में भामाशा मिल जाय ।।
जय श्री मोदी जी ।
?
सोलर प्लांट लेने के लिए मैं तैयार हूं कहीं कोई खबर ही नहीं मिल रहा है कि मैं उसे प्राप्त कर सकती कृपया आप सोलर प्लांट लगाने का उपाय बताएंगे
सोलर प्लांट लगवाने की स्वीकृति, नेट मिटरिंग सप्लाई विधुत विभाग और समस्त सोलर प्लांट इकाई, स्वीकृति ठेकेदारों द्वारा ही लगवाना है इन दोनो की जोड़ी से ठेकेदारो की मनमानी,भ्रामक जानकारी और विधुत विभाग के नाम पर लाइजनिंग फीस के, ठेकेदारों द्वारा मन माना शुल्क लिया जा रहा है। जो उपभोक्ता सोलर प्लांट लगवा रहे है ये बात अच्छी तरह जानते है।
सोलर प्लांट लगवाने की स्वीकृति, नेट मिटरिंग सप्लाई विधुत विभाग और समस्त सोलर प्लांट इकाई, स्वीकृति ठेकेदारों द्वारा ही लगवाना है इन दोनो की जोड़ी से ठेकेदारो की मनमानी,भ्रामक जानकारी और विधुत विभाग के नाम पर लाइजनिंग फीस के, ठेकेदारों द्वारा मन माना शुल्क लिया जा रहा है। जो उपभोक्ता सोलर प्लांट लगवा रहे है ये बात अच्छी तरह जानते है।