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Thursday, 25 April, 2024
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रेटिंग एजेंसियों पर सवाल उठाने की जगह कारणों पर विचार करें, यह पूरी इकोनॉमी का हेल्थ चेक-अप होता है

मूडीज ने कहा है कि भारत के बारे में उसकी मौजूदा रेटिंग का कोविड-19 से कोई लेनादेना नहीं है. भारत को लेकर उसका आकलन इसके पहले का है. आर्थिक सुधारों को आगे न बढ़ा पाने से भारत की रेटिंग खराब हुई है.

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जून महीने की शुरुआत में ग्लोबल रेटिंग एजेंसी मूडीज इनवेस्टर्स सर्विसेज ने जब निगेटिव आउटलुक के साथ भारत की सॉवरेन रेटिंग घटा दी तो सरकारी हलकों में इसे नजरअंदाज करने और फिर नकारने का अंदाज दिखा. लेकिन पिछले सप्ताह सरकार का दर्द छलक पड़ा. मुख्य आर्थिक सलाहकार के. सुब्रमण्यम ने साफ कहा कि भारत बेहतर रेटिंग का हकदार है और मूडीज इसकी सॉवरेन रेटिंग Baa2 से घटा कर Baa3 कर इंडियन इकनॉमी के साथ नाइंसाफी कर रही है. रेटिंग जारी होने के एक दिन बाद ही सुब्रमण्यम ने कहा था भारत की कर्ज चुकाने की क्षमता पर सवालिया निशान लगाने का कोई मतलब नहीं बनता है. सिर्फ भारत ही नहीं कम से कम 33 देशों की रेटिंग घटी है, यह सब कोविड-19 की वजह से हुआ है. हम पिछले 20 साल से रेटिंग एजेंसियों की रेटिंग का विश्लेषण कर रहे हैं और हमने पाया है कि इसका अर्थव्यवस्थाओं पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता.

आईना दिखाने पर आता है गुस्सा

मूडीज, एसएंडपी और फिच जैसी ग्लोबल रेटिंग एजेंसियों के प्रति दुनिया भर की सरकारें अक्सर ऐसा रवैया अपनाती हैं. रेटिंग सुधरने पर सरकारें इसे अपने आर्थिक सुधारों और देश की अर्थव्यवस्था की फंडामेंटल मजबूती से जोड़ कर देखती हैं. लेकिन खराब रेटिंग पर इन एजेंसियों को गलत साबित करने की कोशिश की जाती है. 2017 में जब मूडीज ने भारत की रेटिंग को अपग्रेड किया था, तो तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने अपनी सरकार की पीठ थपथपाई थी और कहा था कि यह नोटबंदी, जीएसटी, बेहतर मौद्रिक नीति और बैंकों के री-कैपिटलाइजेशन का नतीजा है. याद रहे उस दौरान मोदी सरकार पर नोटबंदी और जीएसटी के जरिये अर्थव्यवस्था को डांवाडोल करने के आरोप लगाए जा रहे थे.


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जब 2013 में भारत की रेंटिग घटाई गई थी तो बीजेपी नेता और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय वित्त मंत्री रहे जसवंत सिंह ने रेटिंग एजेंसियों की काबिलियत पर सवाल उठाते हुए कहा था कि स्टैंडर्ड एंड पूअर्स ने आइसलैंड को सबसे ऊंची AAA रेटिंग दी थी, लेकिन कुछ दिनों बाद ही इसकी इकोनॉमी ध्वस्त हो गई. रेटिंग एजेंसियां सब कुछ जानने का दिखावा करती हैं. लेकिन सरकारों से ज्यादा नहीं जानती हैं.

तो क्या यह मान लिया जाए कि ग्लोबल रेटिंग एजेंसियों की रेटिंग को इतनी गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है? या फिर ये जो रेटिंग जारी करती हैं, उनका इकोनॉमी के जमीनी हालात से कोई लेना-देना नहीं है. क्या दुनिया की तमाम अर्थव्यवस्थाएं, बैंक, कंपनियां, निवेशक और कर्ज देने वाली संस्थाएं जिन ग्लोबल रेटिंग एजेंसियों को तवज्जो देती हैं. उन्होंने भारत का गलत आकलन किया है? क्या आज की तारीख में मूडीज समेत दूसरी रेटिंग एजेंसियां भारतीय अर्थव्यवस्था की जो कमजोरियां गिना रही हैं, वो भारत की ग्रोथ के आड़े नहीं आएंगीं. क्या उन्हें सिरे से खारिज किया जा सकता है.

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क्या मूडीज का आकलन गलत है?

मूडीज ने भारत की सॉवरेन रेटिंग घटाई है और जिससे किसी देश की कर्ज चुकाने की कमजोर क्षमता का पता चलता है. एक हद तक इसका भारत पर बहुत ज्यादा असर नहीं भी पड़ सकता है क्योंकि भारत कोई सॉवरेन बांड जारी नहीं करता है और विदेशी बाजार से कर्ज भी कम लेता है. लेकिन रेटिंग एजेंसियां सिर्फ सॉवरेन रेटिंग का ही आकलन नहीं करती हैं. दरअसल, उनकी रेटिंग पूरी इकनॉमी का हेल्थ चेक-अप होती है. सरकारें भले ही श्वेत-पत्र जारी न करें. लेकिन रेटिंग एजेंसियों की रेटिंग अर्थव्यवस्थाओं के लिए श्वेत-पत्र जैसी ही होती हैं. इसीलिए सरकारें इन रेटिंग्स को लेकर इतना सतर्क रहती हैं.

जिन चार वजहों से मूडीज ने भारत की रेटिंग घटाई हैं, वे हैं.

1. 2017 के बाद आर्थिक सुधारों की धीमी रफ्तार.

2. केंद्र और राज्य सरकारों की कमाई और खर्चे में बढ़ता असंतुलन.

3. पिछली कई तिमाहियों से आर्थिक विकास दर में लगातार गिरावट

4. देश के फाइनेंशियल सेक्टर के बिगड़ते हालात.

2014 में जब मोदी सरकार आई थी तो अर्थव्यवस्था में बड़े सुधारों की उम्मीद बंधी थी. मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया, साल में दो करोड़ नौकरियां पैदा करने के वादे के साथ चीन और जापान से भारी निवेश लाने का दावा किया गया था. इन्फ्रास्ट्रक्चर को बेहद मजबूत बनाने के वादों के साथ एक शानदार सफर की शुरुआत का अहसास कराया गया था. लेकिन सरकार के पहले दौर में अर्थव्यवस्था गोरक्षा जैसे एजेंडे और नोटबंदी-जीएसटी की गलतियों की भेंट चढ़ गई. इसका एक उदाहरण काफी होगा. मार्च, 2017 में यूपी समेत देश कई राज्यों में मवेशियों को बेचने पर लगी पाबंदी की वजह से एक ही महीने में भारत से भैंस के मांस का निर्यात लगभग 35 फीसदी घट गया. इस फैसले मांस और मवेशियों के कारोबार में लगे लोगों के सामने रोजी-रोटी संकट खड़ा हो गया.

कहां खो गया सुधार का एजेंडा?

मोदी सरकार के दूसरे दौर में बड़े सुधारों की उम्मीद थी. लेकिन तीन तलाक, अनुच्छेद 370, एनआरसी-सीएए और राम मंदिर जैसे एजेंडों को सिरे चढ़ाया गया. नतीजतन 2019-20 की आखिरी तिमाही में आर्थिक विकास दर घट कर 3.1 फीसदी पर पहुंच गई. यह लगातार नौवीं तिमाही गिरावट थी. पूरे 2019-20 में विकास दर 4.2 फीसदी रहने का अनुमान है. यह पिछले 11 साल का सबसे खराब प्रदर्शन है. जाहिर है यह आर्थिक सुधारों को रफ्तार न देने का नतीजा है. मूडीज की रिपोर्ट में इसकी ही तसदीक की गई है.


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जाने-माने अर्थशास्त्री दीपक नैयर ने मिंट में लिखे अपने लेख में कहा है, ‘मोदी सरकार गिरते निवेश, सेविंग्स और निर्यात जैसी बुनियादी समस्याओं को नहीं सुलझा पाई और ये स्लोडाउन की वजह बन गईं. 2014 में तेल और दूसरे कमोडिटी के दामों में तेज गिरावट का फायदा उठाने में यह नाकाम रही. ऊंची ब्याज दरों ने निवेश को बुरी तरह प्रभावित किया और मजबूत एक्सचेंज रेट ने निर्यात का गला घोंट दिया.’

जुलाई 2019 और फरवरी 2020 के बजट में सरकार से बोल्ड सुधारों की उम्मीद थी. लेकिन इसके बदले कमजोर कदम उठाए गए. इससे न तो मांग पैदा हो पाई और न रोजगार. इन हालातों ने सरकार के टैक्स राजस्व को घटा दिया. सरकार को आरबीआई के सरप्लस की मदद लेनी पड़ी. रेवेन्यू में कमी से केंद्र और राज्य दोनों के वित्तीय हालात खराब हुए. इस बीच, एक बड़ा संकट खड़ा हुआ और वह था एनबीएफसी सेक्टर का डूबना. आईएलएंडएफएस संकट के बाद पूरे एनबीएफसी सेक्टर में लिक्विडिटी की भारी कमी हो गई. छोटे कारोबारियों और ऑटो समेत कई उद्योगों को कर्ज देने वाला एनबीएफसी सेक्टर खुद ही भारी कर्ज तले दब गया. इस साल जून तक एनबीएफसी कंपनियों पर 2.5 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है.

सही दिशा की ओर अब भी नहीं बढ़ रहे कदम

ऐसी बदहाली के बावजूद सरकार कह रही है कि भारत बेहतर रेटिंग का हकदार है. सरकार रेटिंग एजेंसियों की डाउग्रेडिंग को यह कह कर झटकना चाह रही है कि सिर्फ भारत की नहीं 33 देशों की डाउनग्रेडिंग हुई है और इसकी वजह कोविड-19 है. लेकिन, मूडीज ने साफ तौर पर कहा है कि भारत के बारे में उसकी मौजूदा रेटिंग का कोविड-19 से कोई लेना-देना नहीं है. भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर उसका आकलन इसके पहले का है. आर्थिक सुधारों को आगे न बढ़ा पाने की वजह से ही भारत की रेटिंग खराब हुई है.

दिग्गज अर्थशास्त्रियों के मुताबिक इतना होने के बावजूद सरकार चेती नहीं है और लगातार गलत कदम उठा रही है. दीपक नैयर के मुताबिक सरकार इस वक्त मांग में इजाफा के उपाय के बजाय पूर्ति (सप्लाई) को दुरुस्त करने में लगी है. यह गलत नीति है, क्योंकि सप्लाई साइड की प्रतिक्रिया देर से होती है. वहीं खर्च पर जोर दिया जाए तो मांग तेजी से बढ़ती है और इससे इकनॉमी को तुरंत रफ्तार मिलती है. अब भी सरकार खर्च करने में मुट्ठी भींच कर रखे हुए है. जबकि दुनिया भर के देश इस वक्त राजकोषीय घाटे की चिंता छोड़ कर दनादन खर्च बढ़ा रहे हैं ताकि मांग बढ़े, लोगों को रोजगार मिले और इकोनॉमी जल्दी से पटरी पर आए.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने हिंदी साहित्य पर शोध किया है.यह उनके निजी विचार हैं)

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