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Thursday, 18 April, 2024
होममत-विमतये भ्रम है कि श्रम कानून न होने भर से निवेश बरसेगा और खुशहाली आएगी

ये भ्रम है कि श्रम कानून न होने भर से निवेश बरसेगा और खुशहाली आएगी

यह कहना गलत है कि श्रम कानूनों को हटा देने पर हमारे यहां विदेशी कंपनियों की लाइन लग जाएगी. श्रम कानूनों का सरलीकरण जरूरी है, लेकिन ये निवेश के रास्ते की अकेली समस्या नहीं है.

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लॉकडाउन से चोट खाई इकोनॉमी की मरहमपट्टी कर इसे अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए कुछ बड़े राज्यों को बिल्कुल ‘नायाब’ उपाय सूझा है. देश के तीन बड़े राज्यों (संयोग से तीनों बीजेपी शासित हैं) यूपी, मध्य प्रदेश और गुजरात ने अपने ज्यादातर श्रम कानूनों को तीन साल के लिए ताक पर रखने का फैसला किया है. राज्य सरकारों ने उद्योगों को श्रमिकों के प्रति उन सभी जिम्मेदारियों से लगभग मुक्त कर दिया है, जो उन्हें कानूनन माननी पड़ती थीं. उस पर सितम यह है कि अब काम के घंटे आठ से बारह (यूपी, एमपी गुजरात, असम के साथ ही पंजाब, हिमाचल और हरियाणा में भी) होंगे. काम के दौरान मजदूरों की सुरक्षा और सेहत की जिम्मेदारियों से भी उद्योगपति अब मुक्त होंगे.

सबसे बड़ा फैसला यूपी ने लिया है, जहां एक ही झटके में सिर्फ तीन को छोड़ कर 35 श्रम कानूनों को तीन साल के लिए रद्दी की टोकरी में डालने का अध्यादेश जारी कर दिया गया है. जो तीन कानून बचे हैं, वे हैं- बिल्डिंग और कंस्ट्रक्शन लेबर कानून, बंधुआ मजदूरी विरोधी कानून और पेमेंट ऑफ वेजेज कानून का पांचवां शेड्यूल.

श्रम कानूनों को ढीला करने का तर्क

यह सब रिफॉर्म और मजदूरों को रोजगार देने के नाम पर किया गया है. यूपी सरकार के आला अफसरों ने कहा कि लॉकडाउन के बाद बड़ी तादाद में मजदूर अपने घरों को लौट रहे हैं. उन्हें अपने ही घर में रोजगार देने और प्रदेश में निवेश को बढ़ावा देने लिए श्रम कानूनों को निलंबित किया जा रहा है. राज्यों की ओर से इन कानूनों को तीन साल तक ताक पर रखने के लिए मोटे तौर पर दो नैरेटिव बड़े जोर-शोर से पेश किए जा रहे हैं.

1. श्रम कानूनों को सस्पेंड करने जैसे रिफॉर्म से राज्यों में निवेश बढ़ेगा. उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी और रोजगार बढ़ेगा.

2. इस वक्त दुनिया की कई कंपनियां चीन से कारोबार समेटकर दूसरे देशों में जा रही हैं, लिहाजा हमें उन्हें भारत बुलाने की कोशिश करनी चाहिए. लेबर लॉ में सुधार उन्हें भारतीय मार्केट की ओर लुभाएगा और भारत एक बड़ा मैन्युफैक्चरिंग सेंटर बनेगा.

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अब यह देखना जरूरी है कि रिफॉर्म के लिए पेश की जा रही इन दलीलों में कितना दम है.

दुनिया के तमाम देशों की इकनॉमी के साथ ही भारत की इकनॉमी लिए भी यह बेहद मुश्किल दौर है. लिहाजा देश के अंदर आर्थिक गतिविधियों को तेज करना सरकार की पहली प्राथमिकता है. लेकिन सरकार को इसके लिए पुख्ता कदम उठाने होंगे. भारत को रिफॉर्म, रिवाइव और रोजगार बढ़ाने की नीति पर जोर देना होगा, जो 1930 की मंदी में अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मंदी से निकालने के लिए अपनाई गई थी. लेकिन भारत में कुछ राज्यों लगता है कि श्रम कानूनों को हटा कर घरेलू और विदेशी निवेशकों को अपने यहां उद्योग लगाने के लिए आकर्षित किया जा सकता है.

निवेश और रोजगार की कई शर्तें

हकीकत यह है कि श्रम कानूनों का सरलीकरण होना चाहिए लेकिन सिर्फ श्रम कानूनों को खत्म कर देने से रोजगार पैदा करने की रणनीति में बड़ी खामी है. निवेश आकर्षित करने के लिए मजबूत इंडस्ट्रियल इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत होती है. मसलन- उद्योगों के लिए बिजली की अच्छी सप्लाई, फ्रेट कॉरिडोर, स्पेशल इकोनॉमिक जोन, ड्राई पोर्ट, वेयरहाउस, टैक्स होलीडे, सस्ती जमीन और स्किल्ड मैनपावर. और यह किसी से छिपा नहीं है कि भारत के जो राज्य श्रम कानूनों को ढीला बना रहे हैं, वहां इंडस्ट्रियल इन्फ्रास्ट्रक्चर की क्या हालत है?


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लगभग ब्राजील जितनी आबादी वाले यूपी में इंडस्ट्री की हालत बेहद खराब है. भारत सरकार के इंडस्ट्रियल सर्वे के मुताबिक 2017-18 में यूपी में 15 हजार से कुछ ही ज्यादा फैक्टरियां थीं और इनमें सिर्फ आठ लाख से कुछ ज्यादा लोग काम कर रहे थे. जिस राज्य की आबादी लगभग 21 करोड़ है, वहां यह ऊंट के मुंह में जीरा नहीं तो क्या है?

जहां तक विदेशी निवेशी का सवाल है तो भारत में अक्टूबर 2019 से लेकर दिसंबर 2019 तक आने वाले एफडीआई में यूपी की हिस्सेदारी महज 0.35 फीसदी है. एमपी की हिस्सेदारी है 0.29 फीसदी. गुजरात के हिस्से 8.15 फीसदी एफडीआई आया था. यानी इंडस्ट्रियल इन्फ्रास्ट्रक्चर की खराब हालत देखकर विदेशी निवेशक भी यूपी, एमपी से छिटके हुए हैं.

स्किल्ड मैनपावर का अभाव

यूपी जैसे राज्य में श्रम कानून उद्योगों के लिए मुख्य अड़चन नहीं है. अड़चन है स्किल्ड मैनपावर की कमी. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यूपी में सबसे अधिक आईटीआई हैं, लेकिन स्किल डेवलपमेंट ट्रेनिंग का आलम यह है कि यहां के स्किल ट्रेंड लोगों में सिर्फ 20 फीसदी को ही रोजगार मिल पाता है. ज्यादातर आईटीआई की स्थिति खराब है, उनमें अब भी उन ट्रेड की पढ़ाई होती है, जिनकी आज की तारीख में बाजार में मांग ही नहीं है. यही वजह है ज्यादातर इंडस्ट्रीज गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक, पंजाब या दिल्ली-एनसीआर की ओर जाती हैं, जहां यहां की तुलना में बेहतर स्किल्ड मैनपावर मौजूद है.


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श्रम कानूनों को हटाने की कोशिश के पीछे दूसरा बड़ा नैरेटिव चीन को लेकर है. कहा जा रहा है कि कोरोनावायरस संकट फैलाने में चीन की कथित भूमिका, अमेरिका से तू-तू मैं और ट्रेड वॉर की वजह कई अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियां यहां से निकलता चाहती हैं. वे भारत जैसे देशों में अपना मैन्युफैक्चरिंग बेस ले जाना चाहती हैं, जहां सस्ते श्रम पर मैन्युफैक्चरिंग हो सके. यह भी कहा जा रहा है कि चीन की कंपनियां भी भारत में निवेश करने के लिए उत्सुक है. लेकिन हकीकत यह है कि चीन मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से ज्यादा सर्विस सेक्टर में पैसा लगाने को उत्सुक है.

भारत में नीति-निर्माताओं के बीच इस बात को लेकर काफी सरगर्मी है कि चीन में अपना कारोबार कर रही दुनिया की कई बड़ी कंपनियां यहां अपना मैन्यूफैक्चरिंग बेस बनाना चाह रही हैं. लिहाजा उन्हें यहां बुलाने के लिए आकर्षक ऑफर दिए जाने की जरूरत है. लेकिन क्या ये कंपनियां सचमुच भारत आना चाहती हैं. अप्रैल 2018 से अगस्त 2019 के बीच चीन में काम करने वाली सिर्फ तीन कंपनियां भारत आई थीं. इस बीच ऐन लॉकडाउन के दौरान जब भारत ने देखा कि पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना की हिस्सेदारी एचडीएफसी बैंक में एक फीसदी से ज्यादा हो गई है, तो इसने चीन से ऑटोमेटिक रूट से आने वाले एफडीआई रूल ही बदल दिए. भारत को लगा कि कहीं चीनी कंपनियां भारतीय कंपनियों को हड़प न लें. ऐसे में चीनी कंपनियां क्यों भारत आना चाहेंगी?

सस्ती मजदूरी से औद्योगिक विकास का सीधा रिश्ता नहीं

साफ है कि यूपी, एमपी और गुजरात सरकारों ने श्रम कानूनों को निलंबित करने के लिए जो तर्क दिए हैं, उनकी बुनियाद कितनी खोखली है. इतिहास ने बार-बार यह साबित किया है कि श्रम कानूनों को कमजोर करने से निवेश नहीं आता है और न ही इससे उद्योग मजबूत होते हैं. ब्रिटिश काल में सस्ती मजदूरी और कमजोर श्रम कानून के बावजूद भारत का टेक्सटाइल उद्योग ब्रिटिश टेक्सटाइल उद्योग के सामने इसलिए टिक नहीं पाया कि यहां मिलों का आधुनिकीकरण नहीं हो रहा था. मशीनीकरण और इनोवेशन में ये लगातार पिछड़ रहे थे. बाद के दिनों में कानपुर की टेक्सटाइल इंडस्ट्री इसलिए बरबाद हो गई क्योंकि मिल मालिकों ने इससे पैदा मुनाफा दूसरे बिजनेस में लगाना चाहा. मॉर्डनाइजेशन और इनोवेशन में उन्होंने निवेश ही नहीं किया.

हाल के दिनों में मजदूरों के शोषण पर टिकी सप्लाई चेन को लेकर भी दुनिया की दिग्गज प्रोडक्ट कंपनियों की भारी आलोचना हुई है और कंज्यूमर्स ने उनके प्रोडक्ट के बहिष्कार की धमकी दी है. GAP और H&M जैसी कंपनियों के डेनिम, जिंस और दूसरे टेक्सटाइल प्रोडक्ट के खिलाफ दुनिया भर में आवाज उठ चुकी है. भारत, बांग्लादेश, इंडोनेशिया में इन कंपनियों की सस्ती मजदूरी वाली फैक्टरियों में महिला कर्मचारियों के शोषण, बाल मजदूरी और कम वेतन को लेकर विकसित देशों के जागरुक कंज्यूमर्सस में खासा गुस्सा दिखा है. ऐसी कंपनियां नहीं चाहेंगी कि उनके प्रोडक्ट का बहिष्कार हो, इसलिए वे ऐसी जगहों पर निवेश करने से बचना चाहेंगी, जहां लचर श्रम कानून मजदूरों के शोषण का जरिया बन सकते हैं.

इस मुश्किल दौर में जिन राज्यों ने श्रम कानूनों को कमजोर करने का कदम उठाया है, वे अर्थशास्त्र के एक बुनियादी सिद्धांतों को भूल गए हैं. वो यह कि काम के ज्यादा घंटों से ज्यादा उत्पादन करने वाले मजदूर भी तो आखिर उपभोक्ता हैं. उनकी उपभोग क्षमता घटेगी तो अर्थव्यवस्था में भी मांग घटेगी. खराब परिस्थतियों में काम करने वाले ज्यादा बीमार पड़ेंगे. उनके स्वास्थ्य पर सरकार को ज्यादा खर्च करना पड़ेगा. गरीबी के कारण उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा, अच्छी स्किल नहीं मिल पाएगी. इससे बेरोजगारी और बढ़ेगी. ऐसे में मांग और खपत बढ़ाने की कोई जुगत काम नहीं करेगी. यानी एक दुश्चक्र पैदा होगा और अर्थव्यवस्था का इससे निकलना मुश्किल होगा, चाहे सरकारें कितनी भी कोशिश क्यों न कर ले.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने हिंदी साहित्य पर शोध किया है)

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9 टिप्पणी

  1. ये मोदी जी इन्हें कोई लेना देना नही है मजदूर मरे ये जिये। इनकी मैन मानो होनी चाहिए। और बाकी चमचे CM भी इन्ही के ही हैं। कुछ नही होने वाला 12 घण्टों की मजदूरी के बाद बचे सो चुके होंगे और सुबह बच्चों को सोया छोड़ कर वापिस ड्यूटी। रिटायर होने के बाद बच्चे पुछेंगे मम्मी ये अंकल हमारे घर क्यों रहने लगे।
    प्रजातन्त्र खोखला हो गया है। पूँजीतन्त्र का राज है। ओरंगजेब ओर मोदी दोनो में अधिक अन्तर नहीं है। उसके राज में जो उसके खिलाफ बोलता था उसे वो मरवा देता था और मोदी जी के खिलाफ बोलने पर वो उठवा लेते हैं।
    किसी की भी हिम्मत नही है बोलने की। इकठे होकर आवाज उठाने वालों को ये देश द्रोही बना देते हैं। अन्ध भक्तों को जो दिखाया सुनाया जाता है उनके लिए उस के अलावा सब झूठ है।

  2. BJP sarkar ye to sabit kar chuka hai ki Majdoor virodhi hai rahat packet se lekar saram kanun tak BJP ka niti bilkul galat hai

  3. इस साइट का काम ही है नकारात्मकता फैलाना। पता नही इसके पत्रकारों की आंख में क्या बीमारी है इनको सिर्फ गंदगी ही दिखती है। मेहनत करके खाने वाले के लिए कोई दिक्कत नही है, और जिनको हराम का खाना है उनके लिए केजरीवाल ज़िंदाबाद है ही। मज़दूरों में तो तरह तरह की अफवाहें फैला दी गयी। और जिस राज्य से ये पलायन कर रहे हैं वो क्या कर रहे थे। जब तक ठीक था इनको निचोड़ लिया, अब खिलाने के वक़्त आया तो हाथ ऊपर कर दिया क्योंकि ये वोट बैंक नही हैं। धिक्कार है इन सरकारों पर।

  4. हमे मालूम होना चाहिए कि ऑक्सफैम जैसी संस्थाओं ने अमीर एवम् गरीब के बीच जो बढ़ती खाई है उससे हमे चेताया है। 1990 के दशक से आर्थिक उदारीकण हो या फिर हरित क्रांति इनसे बेशक गरीबी निवारण में सहायता मिली है लेकिन संविधान में समता के मूल्य को स्थापित करने में अभी हम बहुत दूर हैं। देश में कुछ पूंजीपतियों की बढ़ती आय एवम् जीडीपी का ज्यादा हिस्सा सेवा क्षेत्र से आना इस बात का संकेत है कि प्राथमिक एवम् द्वितीयक क्षेत्र में सुधार जितने होने चाहिए थे नहीं हुए इसी कारण मजदूरों एवम् कृषि में लगे लोगों की आर्थिक हालत दयनीय है। अब अगर राज्यो द्वारा श्रमिक कानूनों में परिवर्तन किए गए तो भारत और इंडिया के बीच की खाई और गहरी होगी। सर्वहारा वर्ग की आर्थिक चिंताएं देश में अलग तरह के समीकरण उत्पन्न कर सकती है एवम् भारत के विश्व के पटल पर छाप छोड़ने के सपने को और धूमिल कर सकती है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों को स्थाई आर्थिक सुधारों की ओर ध्यान देना चाहिए ताकि मजदूरों के हितों को ध्यान में रखते हुए अर्थव्यवस्था को सुधारा जा सके।

  5. हमे मालूम होना चाहिए कि ऑक्सफैम जैसी संस्थाओं ने अमीर एवम् गरीब के बीच जो बढ़ती खाई है उससे हमे चेताया है। 1990 के दशक से आर्थिक उदारीकण हो या फिर हरित क्रांति इनसे बेशक गरीबी निवारण में सहायता मिली है लेकिन संविधान में समता के मूल्य को स्थापित करने में अभी हम बहुत दूर हैं। देश में कुछ पूंजीपतियों की बढ़ती आय एवम् जीडीपी का ज्यादा हिस्सा सेवा क्षेत्र से आना इस बात का संकेत है कि प्राथमिक एवम् द्वितीयक क्षेत्र में सुधार जितने होने चाहिए थे नहीं हुए इसी कारण मजदूरों एवम् कृषि में लगे लोगों की आर्थिक हालत दयनीय है। अब अगर राज्यो द्वारा श्रमिक कानूनों में परिवर्तन किए गए तो भारत और इंडिया के बीच की खाई और गहरी होगी। सर्वहारा वर्ग की आर्थिक चिंताएं देश में अलग तरह के समीकरण उत्पन्न कर सकती है एवम् भारत के विश्व के पटल पर छाप छोड़ने के सपने को और धूमिल कर सकती है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों को स्थाई आर्थिक सुधारों की ओर ध्यान देना चाहिए ताकि मजदूरों के हितों को ध्यान में रखते हुए अर्थव्यवस्था को सुधारा जा सके।

  6. Mera yah manana hai ki rojgar ki samasyaon ko khatm karne ke liye Sarkar ko sthaniya swarojgar Kanoon banana chahie jisse ki ki najdeek ke shramikon ko najdeek ke udyog mein ya companiyon mein kam karne ka pura pura Labh mile .

  7. Tumhare Patrakar Ko World Economy Ki Samajh Nahi Hai..Itni Badi Aabadi Hai To Rojgar Paida Karna Hi Hoga..Sabko Sab Kuch Mile Aur Kam Bhi Na Karna Pade Ye Aaj Ke Globalization Me Sambhav Nahi Hai..Bangladesh Pe Research Karne Ko Bolo Us Pattalkar Ko Jaha Nadi Par Pul Tak Nahi Hai Gdp 8% Hai….Chaina Me 1975 Me Kya Tha Kuch Nahi…Tumhare Khabar Sarkar Virodhi Ho To SamJh Aata Hai..Par Tum Desh Ka Virodh Karne Lagte Ho

  8. Saharanpur UP Me aaj Ki Date Me 11 ghante Kam Ho Raha Hai, Aur Hum Mazduro Ki Halat Bhaut Kharab Hai, Dikhawe K liye Social Distancing Aur Handsanetizer Sab Hai Per Mera Bhagwan Janta Hai ki ITC Wale Khoon Pi Rhe Hai…. Plz Kuch Karo , Hum Bina Karona K Mar Jaye Ge.

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