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Sunday, 5 May, 2024
होममत-विमत‘अजेय चीन’ के मिथक को लद्दाख में तोड़ रहा है भारत, पेंटागन को भी यही करना चाहिए

‘अजेय चीन’ के मिथक को लद्दाख में तोड़ रहा है भारत, पेंटागन को भी यही करना चाहिए

उल्लेखनीय है कि सोवियत संघ के विघटन के दौर में भी पेंटागन की 1989 की रिपोर्ट उसकी ताकत का बखान कर रही थी. चीन की 'बढ़ती' शक्ति की बात खुद उसकी छेड़ी हुई है.

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चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) गुस्से में है. इसका एक कारण लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर बढ़ता तनाव हो सकता है लेकिन पीएलए की अधिकांश ब्रीफिंग और टिप्पणियां अमेरिका और उसके अधिकारियों की कार्रवाइयों पर केंद्रित होती हैं. इनमें अमेरिकी रक्षा मंत्री मार्क एस्पर का एक तरह से आसन्न संघर्ष की घोषणा करना और हवाई में उनका दिया भाषण शामिल हैं. दोनों में ही कुल मिलाकर ये संदेश दिया गया था कि अमेरिका उस शक्ति का सामना करने के लिए तैयार है जो ‘लगभग समकक्ष’ प्रतिद्वंदी को चुनौती देने का दुस्साहस कर सकता है और जो अन्य देशों के हितों का ज़रा भी सम्मान नहीं करता है.

और चीन पर पेंटागन की वार्षिक रिपोर्ट भी इसी तर्ज पर है जिसमें खतरे का विस्तार से वर्णन किया गया है. वैसे तो एस्पर के सहायक मंत्रियों ने भी बयान दिए हैं लेकिन पीएलए के प्रवक्ता कर्नल ली हुआमिन को गुस्सा दिलाने के लिए इतना ही काफी था. साथ ही चीनी मीडिया भी गुस्से में लाल-पीला होने लगा.

भारत के लिए मौजूदा संघर्ष को देखते हुए चीनी आक्रामकता संबंधी चेतावनियां अतिशयोक्तिपूर्ण लगती हैं. चीनी शक्ति की श्रेष्ठता की बातों ने खतरे से सीधे निपटने के भारत के फैसले को प्रभावित नहीं किया और अन्य देशों को इस पर गौर करने की आवश्यकता है. चीन निश्चित रूप से एक ऐसी ताकत है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता लेकिन वो कोई उतना खतरनाक ड्रैगन नहीं है जैसा कि पेंटागन या बीजिंग.


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जब एस्पर ने चीन को चिढ़ाया

ऐसा लगता है कि चीन की नाराज़गी एस्पर के दो टूक बयान को लेकर है कि ‘अमेरिका के सशस्त्र बलों के विपरीत पीएलए राष्ट्र या संविधान के प्रति जवाबदेह सेना नहीं है बल्कि वह एक राजनीतिक निकाय सीसीपी (चीनी कम्युनिस्ट पार्टी) के लिए काम करती है.’ चीनी रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता सीनियर कर्नल रेन गुओकियांग ने उनके बयान को ‘बेबुनियाद बकवास’ बताते हुए चीनी संविधान का उल्लेख कर पीएलए को ‘सीपीसी द्वारा गठित और उसके नेतृत्व वाला सशस्त्र बल’ करार दिया जिसका उद्देश्य दिलोजान से जनता की सेवा करना है.

ये सोचने वाली बात है कि उन अनाम चीनी सैनिकों के परिजनों की इस बारे में क्या राय होगी जो 15 जून को गलवान में मारे गए थे. एस्पर ने आगे ये भी कहा कि हिंद-प्रशांत ‘चीन के साथ महान प्रतिस्पर्धा का केंद्र’ है. ये एक विचारणीय बात है खासकर अब जबकि अमेरिका चीनी नौसेना को ‘दुनिया की सबसे बड़ी नौसेना’ करार दे चुका है.

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अमेरिकी सेना अब भी है श्रेष्ठतर

अमेरिकी कांग्रेस में पेश रिपोर्ट के अनुसार चीनी नौसेना के ‘समग्र युद्धक बल में 130 से अधिक प्रमुख पोतों समेत कुल करीब 350 जहाज़ और पनडुब्बियां हैं. इसके मुकाबले 2020 के पूर्वार्ध में अमेरिकी नौसेना के युद्धक बल में कुल करीब 293 जहाज़ शामिल थे’. लेकिन ये समग्र क्षमता का आकलन है, जहाज़-दर-जहाज़ तुलना नहीं. जैसा कि नौसेना विशेषज्ञों ने बताया है, गोपनीय संचालन की दृष्टि से दुनिया की सर्वश्रेष्ठ कोलंबिया क्लास की निर्माणाधीन पनडुब्बियों को आकलन में शामिल नहीं करें तो भी परमाणु चालित पनडुब्बियों की दृष्टि से अमेरिका की ताकत कहीं अधिक है.

विमानवाहक पोतों की दृष्टि से भी अमेरिका कहीं अधिक मज़बूत स्थिति में है. चीन के पास सिर्फ दो विमानवाहक पोत हैं जो पारंपरिक तरीके से संचालित होने के कारण प्रभावक्षेत्र के हिसाब से पीछे छूट जाते हैं, साथ ही उन पर मौजूद टेक्नोलॉजी के मामले में भी वे अमेरिकी विमानवाहक पोतों के मुकाबले कमतर हैं. लेकिन चीन के पास छोटे फ्रिगेट, कोर्वेट और द्रुतगामी युद्धक पोतों का जबरदस्त बेड़ा है जो कि उसे अपने दावे वाले समुद्रों में अत्यंत प्रभावशाली बनाता है.

इसके अलावा अमेरिका के पास स्वदेश में 40 और विदेशों में नौ नौसैनिक अड्डे हैं. इसके अलावा उसे कई ठहराव बंदरगाहों की भी सुविधा प्राप्त हैं जिनमें भारतीय तट से लगे बंदरगाह भी शामिल हैं. इसके विपरीत चीन के पास स्वदेश में तीन बड़े नौसैनिक अड्डे हैं और विदेश में एकमात्र नौसैनिक अड्डा ज़िबूती में है. हालांकि पेंटागन के अनुसार, चीन एक दर्जन अन्य नौसैनिक अड्डों की योजना पर काम कर रहा है जिनमें पाकिस्तान और म्यांमार के नौसैनिक अड्डे शामिल होंगे.


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चीन ने तेज़ छलांग लगाई है

हालांकि, जैसा कि कांग्रेस में पेश रिपोर्ट में कहा गया है, चीन की जहाज़ निर्माण क्षमता ज़बरदस्त है. उदाहरण के लिए, 2016 में अमेरिका के पांच की तुलना में उसके बनाए 18 नौसैनिक पोत सेवा में शामिल किए गए थे. लेकिन इस मामले में भी चीनी नौसैनिक पोतों के खरीदारों में पाकिस्तान और बांग्लादेश ही प्रमुख हैं. हालांकि थाइलैंड, मलेशिया, नाइजीरिया, अल्जीरिया और मिस्र भी खरीदारों में शामिल हैं. इन देशों में से किसी की भी नौसैनिक ताकतों में गिनती नहीं होती है, हालांकि इनमें से दो भारत के पड़ोसी ज़रूर हैं.

नौसेना से इतर बात करें तो पीएलए के पास क्षेत्र की तीसरी सबसे बड़ी हवाई ताकत है, हालांकि पाकिस्तान जैसे खस्ताहाल देश भी चीनी जेएफ-17 विमानों के उत्पादन के बजाए अमेरिकी एफ-16 विमानों की खरीद को प्राथमिकता देते हैं. इसी तरह पीएलए दुनिया की सबसे बड़ी सेना है लेकिन उसने 1979 के बाद किसी युद्ध में भाग नहीं लिया है. चीन के युद्धक रॉकेट बल में परमाणु आयुधों की संख्या का दोगुना विस्तार किया जाने वाला है, हालांकि उसका भंडार अभी 200 के छोटे स्तर पर है (भारत के पास करीब 150 परमाणु आयुध हैं). कुल मिलाकर, रैंड कॉर्पोरेशन के 2017 के विश्लेषण के अनुसार चीन अब अपनी चौहद्दी में अमेरिका को चुनौती देने की स्थिति में है. लेकिन इसके आगे, उसकी स्थिति बहुत कमज़ोर है. संक्षेप में, इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि चीन का इरादा लगातार अपनी ताकत बढ़ाते जाने का है लेकिन अभी तक वह इस स्थिति में पहुंचा नहीं है.


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चीन की कठिनाइयां

महामारी की मार झेल रही दुनिया में चीन के लिए रफ्तार बनाए रखना मुश्किल होगा. चीन कृषि भूमि के बाढ़ में डूबने के कारण एक बड़े खाद्यान्न संकट का सामना कर रहा है जिसके कारण दुनिया के दूसरे सबसे बड़े गेहूं उत्पादक देश को भारी मात्रा में आयात करने पर बाध्य होना पड़ा है. सुरक्षित भंडार खोले जाने के बावजूद वहां घरेलू सोया की कीमतें 30 फीसदी तक बढ़ गई हैं. चीन अपने दम पर खाद्यान्न की ज़रूरतें पूरी नहीं कर पा रहा है और उसका अमेरिकी मक्के का आयात 2014 के बाद के अपने उच्चतम स्तर पर है.

रिपोर्टों में कहा जा रहा है कि महामारी के बाद चीन में 80 मिलियन लोग बेरोज़गार हो गए हैं जबकि इस साल रोज़गार ढूंढने वालों की लाईन में 8.7 मिलियन अतिरिक्त लोग जुड़ जाएंगे. विशेषज्ञ एक और अधिक गंभीर बात की ओर ध्यान खींचते हैं. चाइना कंस्ट्रक्शन बैंक और बैंक ऑफ चाइना जैसे बड़े बैंकों के मुनाफे में पिछले एक दशक की सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई है. आधिकारिक आंकड़ों में सकल घरेलू उत्पाद में 6.8 प्रतिशत गिरावट की बात की जा रही है, पर वास्तविक आंकड़ा इससे अधिक रहने की संभावना है और ये सब 559 बिलियन डॉलर का सहायता पैकेज लागू किए जाने के बाद या उसके बावजूद हो रहा है.

सरकार द्वारा भारी मात्रा में कर्ज लिए जाने के कारण स्टैंडर्ड एंड पूअर ने जीडीपी के मुकाबले कर्ज का अनुपात 273 फीसदी तक पहुंच जाने का अनुमान लगाया है. विशेष रूप से कॉर्पोरेट ऋण की मात्रा बहुत अधिक है जिससे बुरे ऋण और बैंकों पर दबाव का एक दुष्चक्र बन सकता है. इसके अलावा भी कई नकारात्मक घटनाक्रम सामने आए हैं जैसे आंकड़ों से महामारी के कारण बेल्ट एंड रोड (बीआरई) परियोजनाओं में देरी का संकेत मिलना, जिनमें पाकिस्तान की परियोजनाएं भी शामिल हैं, सऊदी अरब द्वारा 10 बिलियन डॉलर की रिफाइनरी जैसी मेगा परियोजनाओं को रद्द किया जाना और प्रमुख शक्तियों का चीन से ‘जुड़ाव खत्म करने’ पर खुल कर ज़ोर देना.


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पेंटागन का गलत आकलन

इनमें से किसी भी बात का ये मतलब नहीं है कि चीन भरभरा कर गिरने वाला है. लेकिन इससे एस्पर की बात ज़रूर सही साबित होती दिखती है कि चीन बाहर से मज़बूत पर अंदर से कमज़ोर है. यदि ऐसा है तो वर्चस्व के प्रयास की गति या उसकी प्रभावशीलता उतनी नहीं हो सकती जितना की पेंटागन के आकलन में दिखाया गया है.

ये बात याद करने योग्य है कि सोवियत संघ के विघटन के दौर में भी पेंटागन की 1989 की रिपोर्ट उसकी क्षमताओं का बखान कर रही थी. इसलिए शिन्हुआ के आरोप में थोड़ी सच्चाई हो सकती है कि अमेरिका के ‘खतरा दिखाने’ का उद्देश्य कांग्रेस से अधिक धन जारी करवाना है लेकिन खतरे की बात को खुद पीएलए के आक्रामक कार्रवाइयों ने ही हवा दी है.

यहां समस्या ये है कि ‘चीनी खतरे’ को बढ़ा-चढ़ाकर बताना उसे हदों में रखने के प्रयासों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है, खासकर जब चीन की ‘बढ़ती’ ताकत की बात सबसे पहले चीन से ही शुरू हुई हो. यह धारणा आगे ‘कूटनीतिक निषेध’ के उद्देश्यों से इस्तेमाल की जा सकती है.

विश्लेषकों को अजेय चीन के मिथक को तोड़ने की जरूरत है, हालांकि बेहद वास्तविक खतरे को खारिज किए बिना. कुछ मायनों में भारत के सशस्त्र बल लद्दाख सीमा पर यही काम कर रहे हैं- वे दृढ़ता से रक्षा कर रहे हैं, इस बात को स्वीकार करते हुए कि हमारा सामना एक शक्तिशाली दुश्मन से है जिससे हमने कभी दोस्ती की उम्मीद की थी.

(लेखिका राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय की पूर्व निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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