एक पल के लिए हमें बताया जाता है कि इमरान खान की सरकार गिरने से भारत खुश है, दूसरे ही क्षण, हमें पता चलता है कि ऐसी बात नहीं है. कम से कम एक तजुर्बेकार अभिनेत्री और सेवानिवृत्त मेजर ने तो निश्चित तौर इसे बहुत खुश न होने वाली बातों की सूची में डाल दिया है. बावजूद इसके, अपने पूर्वी पड़ोसी देश के लिए पूर्व प्रधानमंत्री का प्यार उमड़ रहा है, जिसे खलनायक बताने में उन्होंने तीन साल से ज्यादा का वक्त बिताया है.
गरीबों की ओपरा विनफ्रे ने हमें बताया कि कैसे इमरान खान में भले ही कई बुराइयां हो लेकिन भ्रष्ट नहीं हैं, हर रोज भ्रष्टाचार और घोटालों की खबरें चाहे क्यों न सामने आती रही हों. लेकिन हमें उन पर सिर्फ इसलिए भरोसा करना चाहिए क्योंकि वह पूर्व पीएम और उनकी पीर को पिछले 40 सालों से जानती हैं. फिर यहां ‘पांचवीं पीढ़ी वाले युद्ध’ के हिमायती मेजर (सेवानिवृत्त) गौरव आर्य हैं जो हमें भारत के प्रति खान के योगदान से अवगत कराते हैं. जाहिर है, खान ने भारत के हजारों करोड़ रुपये और बहुत-सी बुलेट बचाई हैं, जिसके बारे में शायद सपने में ही सोचा जा सकता था. अब, ये क्या बात हुई? ‘पाकिस्तानी आवाम (आम लोग) पाकिस्तानी फौज को गाली दे रही है’ जबकि इस सबके पीछे इमरान खान हैं. यह उन्हें भारत का सबसे अच्छा दोस्त बनाता है.
वैसे कुछ दिनों तक तो परस्पर यह भावना रहती है. लेकिन बाकी दिनों में भारत के प्रति यह प्रेम काफूर हो जाता है.
بھارتی میڈیا پر ہر وقت پاکستان کے خلاف ہرزہ سرائی کرنے والے میجر (ر)گاروو آریہ کے خیال میں عمران خان بھارت کا بہترین دوست ہے کیونکہ اس شخص کی وجہ سے پاکستان کے اندر پاکستان کی فوج کے خلاف گالی گلوچ ہو رہی ہے امید ہے کہ اب عمران خان سرعام بھارت کی خارجہ پالیسی کی تعریف نہیں کرینگے pic.twitter.com/M8yuIURiLO
— Hamid Mir (@HamidMirPAK) April 22, 2022
‘आजाद’ विदेश नीति
इमरान खान के कार्यकाल के आखिरी दिन जो शुरुआत हुई, वो जारी है—सार्वजनिक रैलियों और टेलीविजन पर संबोधन में वह पाकिस्तानियों को बताते फिर रहे हैं कि कैसे भारत ने एक सफल और संप्रभु विदेश नीति अपनाई है और पाकिस्तान में ऐसा नहीं है. वह पूरा जोर इस बात पर दे रहे हैं कि उन्हें ‘सत्ता से बाहर कर दिए जाने’ का पूरा खेल ही इसलिए हुआ क्योंकि वह एक स्वतंत्र विदेश नीति की दिशा में बढ़ रहे थे. कुछ भी हो, अमेरिका में सत्ता परिवर्तन की कहानी को भूलना नहीं चाहिए.
वैसे अब तो भारत की कूटनीतिक बाजीगरी की सराहना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी ज्यादा इमरान खान कर रहे हैं—कैसे पड़ोसी देश ने क्वाड का हिस्सा रहते हुए खुद को अमेरिका का रणनीतिक सहयोगी बताया और यूक्रेन में जारी युद्ध के मामले में खुद को तटस्थ करार दिया. जाहिर है, भारत प्रतिबंधों के बावजूद रूस से तेल आयात कर रहा है क्योंकि उसकी नीति पाकिस्तान की तरह नहीं, बल्कि ‘अपने लोगों का भला’ सोचने की है. खान के लिए, भारतीय बहुत ‘स्वाभिमानी लोग’ हैं और किसी से दबते नहीं है. कल पांचवीं पीढ़ी के योद्धा उन पर पलटवार करते रहे होंगे कि—’क्या तुमने हमें बेग़ैरत कहा?’ लेकिन इन दिनों पूर्व पीएम को नहीं बचाने को लेकर सैन्य कमान के खिलाफ उनमें असंतोष भरा हुआ है.
हमारी रि-एजुकेशन जारी है. उसी अमेरिका, जिसने खान के मुताबिक, उन्हें खाली हाथ लौटा दिया था, की अब भारत के साथ उसके संबंधों के लिए प्रशंसा की जा रही है. इस बीच, पूर्व विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी की नजर में भारत सत्ता परिवर्तन की साजिश का एक हिस्सा रहा है क्योंकि पड़ोसी देश पाकिस्तान में ‘लचर सरकार’ चाहता है. अब, ऐसे में क्या इमरान खान को हटाया जाना भारतीय विदेश नीति की एक और सफलता नहीं है? हम हतप्रभ हैं.
प्रधानमंत्री के तौर पर राष्ट्र के नाम अपने अंतिम संबोधन में खान भारतीय विदेश नीति के बारे में बात करते हुए लगभग रो पड़े.
मोदी सरकार धन्य हो गई और भारतीय मीडिया को तो ऐसा लग रहा होगा कि उसने 2022 का विश्व कप जीत लिया है. और ऐसा हो भी क्यों ना. भारतीय मीडिया में कुछ ऐसी सुर्खियां छाई रहीं—‘कोई भारत को हुक्म नहीं दे सकता—इमरान खान ने कैसे मोदी सरकार की स्वतंत्र विदेश नीति को सराहा’ और ‘इमरान खान ने एक बार फिर भारत की विदेश नीति की सराहना की.’ ऐसी सुर्खियां किसी एक अन्य पाकिस्तानी राजनेता, जो इमरान खान न हो, को मिलने पर इमरान खान और उनके चाटुकार उन्हें गद्दारी का प्रमाणपत्र देने कूद पड़ते. पूर्व प्रधानमंत्रियों नवाज शरीफ या आसिफ अली जरदारी के बयान अपने आप में ‘भारतीय धन’ या ‘रॉ का हाथ होने’ के प्रमाण बन जाएंगे. वे ऐसी हेडलाइन के प्रिंटआउट प्रेस कॉन्फ्रेंस में लाते और कहते—‘देखो भारत कैसे जश्न मना रहा है’, ‘देखो भारत कितना खुश हो रहा है.’ किसी भी स्थिति में भारत की खुशी हमेशा चिंता का विषय रही है; इसकी नाखुशी, का कोई बहुत असर नहीं पड़ता है. इसलिए इमरान खान की ओर से हमें यही बताया गया कि उन्हें हटाए जाने से सबसे ज्यादा खुश पड़ोसी देश था. यह किसने बताया? निश्चित तौर पर सिमी गरेवाल या मेजर आर्य ने तो नहीं. वैसे अब तक, हमें यह भी पता चल गया है कि वह भारतीयों को किसी और से ज्यादा जानते हैं.
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दुश्मन अब ‘दोस्त’
हमें इमरान खान की तरफ से यह भरोसा दिलाया जाना बदस्तूर जारी है कि भारत की आजाद विदेश नीति कितनी काबिले-तारीफ है, और साथ ही यह भी कि कैसे वह ‘भारत विरोधी’ नहीं हैं, ऐसा लगता है कि मानो पिछले साढ़े तीन साल का वक्ता कभी गुजरा ही नहीं था. नवाज शरीफ जैसे लोगों ने भारत के साथ रिश्ते सामान्य बनाने पर जोर देकर हमेशा ही बड़ी राजनीतिक कीमत चुकाई है. फिर इमरान खान आए जो लगातार भारत का विरोध करते थे और अब अचानक उसके खिलाफ न होने का दावा कर रहे हैं. यह देखते हुए कि उन्होंने पीएमओ में और इससे पूर्व विपक्ष में रहने के दौरान जिस तरह भारत विरोधी राग छेड़ रखा था, मैं तो उनके इस दोहरे चरित्र के झांसे में नहीं आने वाली हूं. यह उसी तरह जायज है जैसे प्रधानमंत्री कार्यालय के अंदर रहते हुए ‘राष्ट्रीय सम्मान’ के लिए सलवार कमीज पहनने का दावा करना, लेकिन खुद्दारी के लिए अमेरिकियों के खिलाफ लड़ते समय पोलो, नाइके का इस्तेमाल करना.
उस समय जब पुलवामा के जवाब में बालाकोट एयर स्ट्राइक और अनुच्छेद 370 खत्म किए जाने के बाद इमरान खान के पत्र और फोन कॉल सीमा पार से कनेक्ट नहीं हो पा रहे थे, तब भारत के साथ सामान्य द्विपक्षीय संबंध कायम करने का कभी कोई सही समय नहीं था. और अब यह कहना सुविधाजनक है कि ‘दरअसल मैं तो भारत के साथ अच्छे संबंध चाहता था, लेकिन दिल्ली में सरकार नरेंद्र मोदी की थी’—वही नरेंद्र मोदी जिनके बारे में आप भविष्यवाणी कर रहे थे कि उनकी चुनावी जीत कश्मीर विवाद को हल कर देगी, और जो उन्होंने किया भी.
कश्मीर के लिए इमरान खान के योगदान का आलम यह है कि दो शुक्रवार 30 मिनट धूप में खड़े रहो और तीसरे में कहीं लापता हो जाओ. यह भारत के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर एक ब्लैक ट्विटर डिस्प्ले चित्र लगाना भी रहा है, जो भले वीरता पुरस्कार के योग्य न हो लेकिन हमारे इतिहास की किताबों में एक अध्याय के तौर पर तो जरूरी है ही. पूर्व प्रधानमंत्री ने तब भी बेवजह बयानबाजी का कुछ अलग ही अंदाज अपनाया जब उन्होंने भारत के साथ व्यापार पर प्रतिबंध हटाने का फैसला किया और फिर इस पर यू-टर्न ले लिया—जब तक अनुच्छेद 370 निरस्त करने का फैसला नहीं बदलता, तब तक कोई व्यापार नहीं होगा. यह जानते हुए भी कि चीनी उस समय भारत की नहीं बल्कि पाकिस्तान की सबसे बड़ी जरूरत थी. लेकिन प्रधानमंत्री इमरान खान इन फैसलों पर वाणिज्य मंत्री इमरान खान से कहां संतुष्ट होने वाले थे. अब कल्पना कीजिए, इसका ग्रीन सिग्नल दोनों देशों के बीच चल रही बैकचैनल वार्ता के परिणामस्वरूप मिला.
इंडियाफोबिया था, और फिर मोदीफोबिया भी था—मोदी का सीना, मोदी की कोविड-19 नीति, मोदी की फिर से जीत, काठमांडू में मोदी की नवाज शरीफ से गुपचुप मुलाकात और अब मोदी की विदेश नीति. संभ्रात तरीके से उड़ाए गए उपहास में कोई कसर नहीं रखी गई, ‘बड़ी जगह पर पहुंचा मामूली आदमी’, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर अनगिनत बयान, भारत में उन्हें जानने वाले लोग उन्हें भी ‘जानते’ है आदि. रहे-बचे हम लोग? हमें तो कुछ पता नहीं होता है. भारत विरोधी यह सारी बयानबाजी एक नाकाम सरकार चलाने के लिए एक ढाल बन गई थी, जिसका खेल तो जाने कब खत्म हो गया होता अगर ‘कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण’ और फिर कोविड-19 की स्थिति नहीं आती. भारत तो इमरान खान की खुद को छिपाने की कोशिशों में वरदान ही साबित हुआ है.
‘इंडिया, आई लव यू’, लेकिन अब क्यों?
आगे भी उसके आशीर्वाद की जरूरत है. दुनिया के बाकी हिस्सों की तरह ही भारत में भी पाकिस्तानी तानाशाह खासी ख्याति अर्जित कर लेते हैं. कोई तर्क दे सकता है कि यह दर्जा तो पाकिस्तान के किसी ‘विश्वसनीय शासक’ को हासिल होगा. यहां तक कि जनरल परवेज मुशर्रफ के पद से हटने के बाद भी भारतीय मीडिया उन पर बहुत मेहरबान रहा और उन्हें बतौर स्पीकर तमाम सम्मेलनों में आमंत्रित किया जाता रहा, जिससे उन्हें एक बड़ा श्रोता वर्ग मिला. अब इमरान भी खुद को उसी तरह का अटेंशन पाने के योग्य समझते हैं, जो किसी छोटे-मोटे तानाशाह से तो कम नहीं हैं. भारत के प्रति उमड़े प्यार की वजह भी इसी में निहित है—प्रधानमंत्री पद छिनने के बाद यही तो उनका ठौर-ठिकाना होगा. पाकिस्तान में रहते हुए भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर सवालों का दबाव बढ़ता जा रहा है. इसलिए भविष्य के बारे में कुछ तो अच्छा सोचना होगा, और इससे बेहतर भविष्य क्या हो सकता है जिसमें आप अपने अतीत को भुना सकें—मेरे दोस्त हैं, मैंने क्रिकेट खेला है, मैं भारत को सबसे अच्छी तरह जानता हूं. भूल जाइए कि हालिया अतीत नीतियों में प्रतिध्वनित नहीं होता है. तब तक, हम यही बीन बजाते हैं कि भारत दुनिया से नहीं दबता है, जैसे कि यह पाकिस्तान की कोई सफलता है. या शायद ऐसा है?
भारत के लिए यह प्यार दोधारी तलवार है. एक ओर, इमरान खान संकेत देते हैं कि कैसे एक प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें एक संप्रभु विदेश नीति अपनाने का खामियाजा भुगतना पड़ा, जबकि सेना के सीधे दखल के बगैर भारत यह करने में सफल रहा. भले ही वह संबोधित आम लोगों को कर रहे हों, लेकिन उनका असली निशाना सेना है. एक पंजाबी कहावत के शब्दों में इमरान खान की रणनीति एकदम देसी सास वाली है—’कहना धी नु सुनाना नूह नु (बेटी को सुनाकर बहू को ताना मारना)’
(नायला इनायत पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @nalainayat है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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