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Saturday, 9 August, 2025
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ट्रंप की पावर पॉलिटिक्स में भारत की एक कमजोरी—एक्सपोर्ट में कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो अनोखी हो

व्यापार शुल्क का इस्तेमाल पहले जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों ने उद्योग को बढ़ावा देने या रोकने के लिए किया था.

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जब से अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप दोबारा सत्ता में लौटे हैं, उन्होंने भारत को लेकर लगातार टैरिफ (व्यापार शुल्क) की धमकियां दी हैं. उनका रवैया सख्त है और भारत की असहजता साफ़ दिखाई देती है, हालांकि मोदी सरकार ने अब तक इस पर कोई सीधी आलोचना नहीं की है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्रंप की सत्ता में वापसी का स्वागत किया था, उनके पहले कार्यकाल की दोस्ती को याद करते हुए उम्मीद जताई थी कि इससे भारत को फायदा होगा. लेकिन इसके बजाय, भारत-अमेरिका संबंध एक अनिश्चित दौर में प्रवेश कर गए हैं.

तो ट्रंप की व्यापार शुल्कधमकियों के पीछे तर्क क्या है? भारत के पास क्या विकल्प हैं? क्या नई दिल्ली पलटवार कर सकती है?

आमतौर पर व्यापार शुल्क का आधार अर्थव्यवस्था होती है. देशों ने अक्सर अपनी घरेलू इंडस्ट्री की रक्षा के लिए व्यापार शुल्क का इस्तेमाल किया है. यही वो तरीका है जिससे 19वीं सदी के दूसरे हिस्से में अमेरिका में औद्योगीकरण शुरू हुआ. इसे समझने के लिए हम स्टील का उदाहरण लेते हैं.

1860 में, अमेरिका का ज़्यादातर स्टील ब्रिटेन से आता था. लेकिन 1900 के शुरुआती दशक में, पिट्सबर्ग में स्थित यूएस स्टील कंपनी, जो व्यापार शुल्क से संरक्षित थी, न सिर्फ घरेलू ज़रूरतों के लिए पर्याप्त स्टील बना रही थी, बल्कि यूरोप को निर्यात भी कर रही थी. जापान और दक्षिण कोरिया, जो आज स्टील के बड़े उत्पादक हैं, वहां भी स्टील इंडस्ट्री इसी तरह विकसित हुई थी.

1980 के दशक में शुरू हुए वैश्वीकरण के दौर में व्यापार शुल्क का चलन कम हो गया. आर्थिक नीति निर्माताओं का मानना था कि व्यापार शुल्क प्रतिस्पर्धा को रोकते हैं, जिससे आर्थिक विकास पर असर पड़ता है और अक्षमताएं बढ़ती हैं. भारत की ही मिसाल लें. केंद्रीय योजना के दौर में व्यापार शुल्क दीवारों से सुरक्षित भारत का स्टील घटिया होता था. भारत की स्टील इंडस्ट्री ने असली रफ्तार 1990 के दशक की शुरुआत में व्यापार शुल्क कम होने के बाद पकड़ी.

इसलिए, ये नहीं कहा जा सकता कि व्यापार शुल्क का इस्तेमाल औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए कभी नहीं हुआ या इसका उल्टा असर नहीं पड़ा. ट्रंप के व्यापार शुल्क तर्क में हैरानी की बात दो हैं.

व्यापार शुल्क का राजनीतिक उद्देश्य

सबसे पहले, ज़्यादातर विकासशील देशों ने अपने उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए व्यापार शुल्क का सहारा लिया है, जैसा कि दक्षिण कोरिया ने 1960 और 1970 के दशक में किया और जैसा अमेरिका ने 1865 के बाद किया, जब वह शायद अभी भी एक विकासशील अर्थव्यवस्था था. आर्थिक रूप से विकसित देशों ने आमतौर पर औद्योगिकीकरण को तेज करने के लिए व्यापार शुल्क का उपयोग नहीं किया है. उन्होंने ज़्यादा से ज़्यादा उद्योग-विशेष सब्सिडी का उपयोग किया है, न कि व्यापक व्यापार शुल्क दीवारों का निर्माण किया है.

दूसरा, दुनिया यह भूल चुकी थी कि व्यापार शुल्क का उपयोग राजनीतिक उद्देश्यों के लिए कैसे किया जा सकता है. आधुनिक इतिहास में, व्यापार शुल्क को लेकर सबसे नाटकीय टकराव चीन में 1840 और 1850 के दशकों में हुए दो अफीम युद्धों में हुआ था, जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने उपनिवेशीय भारत से अफीम के निर्यात के लिए चीनी बाज़ारों को खोलना चाहा था और चीनी सम्राट ने इसका विरोध किया था. स्पष्ट कर दें कि ट्रंप व्यापार शुल्क के आधार पर युद्ध की धमकी नहीं दे रहे हैं, लेकिन उन्होंने इनका उपयोग दंडात्मक रूप से किया है — ब्राज़ील पर व्यापार शुल्क बढ़ाकर उन्होंने लूला सरकार और वहां की अदालतों को निशाना बनाया, क्योंकि उन्होंने ट्रंप के सहयोगी पूर्व राष्ट्रपति जैर बोल्सोनारो पर मुकदमा चलाया. उन्होंने रूस को भी व्यापार शुल्क की धमकी दी, लेकिन वह यूक्रेन के खिलाफ युद्ध खत्म न करने की सज़ा के तौर पर था.

यह एक बेहद अहम सवाल उठाता है — क्या व्यापार शुल्क का व्यापक रूप से राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जा सकता है?

राजनीति विज्ञान की एक प्रसिद्ध किताब पावर एंड इंडिपेंडेंस: वर्ल्ड पॉलिटिक्स इन ट्रांजिशन, जो करीब पचास साल पहले प्रकाशित हुई थी, में रॉबर्ट केओहेन और (हाल ही में दिवंगत) जोसेफ नाई ने एक तर्क दिया था, जो आज बहुत प्रासंगिक है. यह तर्क भारत के लिए भी खास महत्व रखता है.

केओहेन और नाई मानते थे कि व्यापार शुल्क, प्रतिस्पर्धा को सीमित करके, आर्थिक अक्षमताएं पैदा करते हैं. लेकिन उन्होंने कहा कि सत्ता और राजनीति की दुनिया अक्सर अलग तरह से काम करती है, न कि आर्थिक दक्षता के तर्क से.

हालांकि वे ट्रंप से नैतिक रूप से असहमत हैं, केओहेन और नाई ने Foreign Affairs (जुलाई-अगस्त 2025) में प्रकाशित अपने हालिया लेख “दि एंड ऑफ दि लॉन्ग अमेरिकन सेंचुरी” में ट्रंप के व्यापार शुल्क का अनुभवजन्य विश्लेषण किया है. उन्होंने लिखा, “व्यापार शक्ति का विरोधाभास यह है कि व्यापार संबंधों में सफलता ही अक्सर एक कमज़ोरी बन जाती है,” और जोड़ा, “जब कोई देश व्यापार घाटे में होता है, तो वह उस देश पर व्यापार शुल्क लगा सकता है जिसके साथ उसका घाटा है. इससे उसकी सौदेबाज़ी की स्थिति मजबूत हो जाती है.”

इस तर्क के उपयोग के लिए अमेरिका के वर्तमान व्यापार संबंधों पर विचार करें. सबसे पहले भारत को लें. 2024 में भारत-अमेरिका वस्तु व्यापार $129.2 बिलियन का था. भारत का अमेरिका को निर्यात $87.4 बिलियन था, और आयात $41.8 बिलियन. यानी भारत के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा 45.7 बिलियन डॉलर का था.

हालांकि, भारत अमेरिका के दस सबसे बड़े व्यापार भागीदारों में भी नहीं है. अमेरिका के चार सबसे बड़े व्यापार भागीदार हैं — कनाडा, मैक्सिको, चीन और यूरोपीय संघ. इन सभी को ट्रंप के व्यापार शुल्क गुस्से का सामना करना पड़ा है. और चीन को छोड़कर बाकी सभी को समझौता करना पड़ा है या वे समझौते की दिशा में बढ़ रहे हैं. ये व्यापार अधिशेष वाले देश (अमेरिका के मुकाबले) अमेरिकी बाज़ार पर ज़्यादा निर्भर हैं, जबकि अमेरिका उनके बाज़ारों पर कम.

क्या भारत भी चीन की तरह अमेरिका का सामना कर सकता है? अमेरिका के मुकाबले भारत का व्यापार अधिशेष होने के बावजूद, चीन व्यापारिक कमज़ोरी से आंशिक रूप से बच सकता है क्योंकि उसके पास वर्तमान में “रेयर अर्थ्स” जैसे कीमती खनिजों पर लगभग अपरिवर्तनीय नियंत्रण है. औद्योगिक क्षेत्र की नई तकनीकों के लिए रेयर अर्थ्स बेहद ज़रूरी हैं. भारत के निर्यात में ऐसा कुछ भी नहीं है जो अपरिवर्तनीय हो. इसलिए, भारत का व्यापार अधिशेष उसे कमजोर बनाता है.

दूसरा, शक्ति संतुलन के लिहाज से चीन के साथ भारत के टकरावपूर्ण संबंधों का प्रबंधन करने के लिए अमेरिका का समर्थन ज़रूरी है. पहले सोवियत संघ भारत की सुरक्षा स्थिति के प्रबंधन में मदद करता था. आज रूस पहले की तुलना में कमज़ोर है. साथ ही, पश्चिमी देशों (जिसमें अमेरिका भी शामिल है) का मुकाबला करने के लिए रूस अब चीन से गठजोड़ कर रहा है.

अगर भारत ने पिछले साढ़े तीन दशकों में चीन जितनी तेज़ी से आर्थिक और सैन्य विकास किया होता, तो उसे अमेरिका का समर्थन लेने की ज़रूरत नहीं होती. भारत अपने दम पर खड़ा हो सकता था. लेकिन आज चीन का सामना करने और अपनी व्यापक सुरक्षा स्थिति को संभालने के लिए भारत को अमेरिका जैसे ताकतवर सहयोगियों की ज़रूरत है.

शक्ति का असंतुलन

डॉनल्ड ट्रंप की विदेश और आर्थिक नीति को शक्ति की राजनीति चला रही है. अब अमेरिका के द्विपक्षीय संबंधों को लोकतंत्र के बड़े सिद्धांत नहीं, बल्कि हित तय करते हैं. दुश्मनों और तथाकथित सहयोगियों – जैसे पश्चिमी यूरोप, जापान और दक्षिण कोरिया – सभी को शक्ति की राजनीति की एक ही प्रमुख सोच का सामना करना पड़ता है.

जब तक अदालतें उन्हें व्यापार शुल्क नीति को राष्ट्रपति स्तर पर बनाने से रोककर अमेरिकी कांग्रेस को यह जिम्मेदारी नहीं देतीं, या जब तक MAGA उपभोक्ताओं को उनके व्यापार शुल्क से नुकसान नहीं होता और वे उन्हें नीति बदलने के लिए मजबूर नहीं करते, भारत को एक असंतुलन या सापेक्षिक कमजोरी की स्थिति से ही जवाब विकसित करना होगा.

अंतरराष्ट्रीय संबंधों को इस तरह नहीं होना चाहिए. लेकिन अक्सर वे ऐसे ही होते हैं. ट्रंप अंतरराष्ट्रीय संबंधों में पावर पॉलिटिक्स की फिलहाल ताज़ा मिसाल हैं.

आशुतोष वार्ष्णेय इंटरनेशनल स्टडीज़ और सोशल साइंसेज़ के सोल गोल्डमैन प्रोफेसर और ब्राउन यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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