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Wednesday, 15 May, 2024
होममत-विमतचुप चुप खड़े हो जरूर कोई बात है! बिहार में जातिगत गैर-बराबरी के आंकड़ों पर सन्नाटे के पीछे क्या बात है?

चुप चुप खड़े हो जरूर कोई बात है! बिहार में जातिगत गैर-बराबरी के आंकड़ों पर सन्नाटे के पीछे क्या बात है?

बात चाहे आर्थिक हालत की हो या फिर शिक्षा और रोजगार के अवसरों की — भारत में जाति ही इनको निर्धारित करने वाली धुरी बनी हुई है. जातिगत गैर-बराबरी की सच्चाई को समझने के लिए बिहार की ही तरह पूरे देश को एमआरआई की जरूरत है.

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पहले एक्स-रे रिपोर्ट आयी और अब एमआरआई भी हो गया. बिहार में जाति जनगणना के पहले दौर के आंकड़ें अगर इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण थे कि जाति-गणना ना सिर्फ संभव बल्कि उपयोगी है तो इस दूसरी खेप के आंकड़ों से ये बात आईने की तरह साफ हो गई है कि देश में आज की तारीख में मौजूद सामाजिक गैर-बराबरी के रंग और मिजाज को समझने के लिए अखिल भारतीय जाति जनगणना जरूरी है. हाल ही में जारी बिहार की जाति जनगणना के आंकड़े इस बात के अकाट्य प्रमाण हैं कि समाज की सच्चाइयों की समझ बनाने के लिहाज से जाति बहुत मायने रखती है. जाति से तय होता है कि पढ़ाई-लिखाई के मामले में आपको क्या और कैसे अवसर हासिल अवसर होंगे, जाति आर्थिक दशा पता बताने वाला संकेतक है और जाति से ये भी तय होता है कि किसी अच्छी नौकरी के दरवाजे आपके लिए खुलने जा रहे हैं या नहीं.

इन आंकड़ों पर शायद ही कोई नजर दौड़ाना चाहता है और ऐसा क्यों है, ये बात समझी जा सकती है. जाति जनगणना के फायदे और नुकसान को लेकर चली बहस जनगणना के नहीं बल्कि आरक्षण के गुण-दोष बताने पर केंद्रित थी. और, अब जबकि जाति जनगणना की दूसरी खेप के आंकड़े जारी हो गये हैं तो बहस इस बात को लेकर हो रही है कि आरक्षण 65 प्रतिशत हो जायेगा. या फिर, कोशिश नीतीश कुमार की एक चलताऊ सी (हालांकि उसे अविचारित और अभद्र कहा जायेगा) टिप्पणी को बहस के केंद्र में लाने की है ताकि जातिगत गैर-बराबरी का पूरा मामला लोगों की नजरों से ओझल हो जाये. मीडिया ने जब भी इस जनगणना के निष्कर्षों को रिपोर्ट करने की जहमत उठायी उसका जोर कुछ घिसे-पीटे या गोल-मटोल आंकड़ों के सहारे ये बताने पर रहा कि बिहार में गरीबी कितनी है और लोगों को किस हद तक शिक्षा हासिल है. ऐसे आंकड़े तो हमेशा ही मौजूद रहे हैं. जातिगत गैर-बराबरी की तस्वीर दिखाने वाले नये आंकड़ों पर कोई नजर ही नहीं दौड़ाना चाहता. लेकिन अगर ऐसा है तो क्या हमें इस बात पर अचरज करना चाहिए?

आइए, शुरूआत समझ बनाने की इस कोशिश से करें कि बिहार की जाति जनगणना के इन आंकड़ों में नया क्या है. इस जनगणना के पहली खेप के जो एक्स-रे नुमा आंकड़े आये थे उनमें बिहार की जनसंख्या को जातिवार बताया गया था. ऐसा आंकड़ा साल 1931 तक का था तो लेकिन उसके बाद का नहीं. पहली खेप के आंकड़ों से ये जाहिर हो गया कि ‘पिछड़ी जाति’ यानी OBC और EBC समुदाय के लोगों की तादाद उससे कहीं ज्यादा है जितना कि मानकर चला और बरता जा रहा था. और, ये भी जाहिर हुआ कि प्रभुत्वशाली ‘अगड़ी जाति’ के लोगों की संख्या अनुमान से कहीं ज्यादा कम है. इस हफ्ते जारी आंकड़े किसी एमआरआई की तरह हैं क्योंकि उनमें जातिवार लोगों की सामाजिक दशा की तस्वीर दिखायी गई है.

नये आंकड़ों में एक खास बात है कि वे किसी परिवार की आर्थिक दशा की तस्वीर दिखाते हैं और ऐसा करने के लिए इन आंकड़ों में बताया गया है कि किसी परिवार की आमदनी कितनी है, वह परिवार कितने कंप्युटरों और वाहनों का मालिक है, परिवार के प्रत्येक सदस्य ने किस स्तर तक पढ़ाई की है और परिवार के किन-किन सदस्यों को रोजगार हासिल है. आंकड़ों में ये सारी बातें जाति-समुदाय के हिसाब से भी मौजूद हैं और हर जाति के हिसाब से भी. यों आंकड़े अभी जारी नहीं हुए तो भी आंकड़ों का ऐसा ही खाका सूबे के हर जिले, प्रखंड, गांव तथा इससे आगे बढ़ते हुए प्रत्येक परिवार के स्तर पर उपलब्ध होना चाहिए. अपने आप में यह समाजशास्त्रीय आंकड़ों का एक भरपूर भंडार है जिसका इस्तेमाल नीति-निर्माताओं और शोधकर्ताओं के हाथों दशकों तक होना है. चूंकि ये आंकड़े सिर्फ पिछड़े या वंचित समूहों तक सीमित नहीं बल्कि इनमें अगड़ी जाति के लोगों के बारे में भी सूचनाएं दी गई हैं तो ऐसे में अब हमारे पास बिहार की आबादी की एक ऐसी त्रिविमीय सामाजिक तस्वीर मौजूद है जिसके सहारे विभिन्न जातियों के लोगों की आर्थिक हैसियत (इकोनॉमिक स्टेटस), शैक्षिक परिलब्धि (एजुकेशनल अटेन्टमेंट) और हासिल रोजगार (एम्प्लॉयमेंट सेक्योर्ड) के बारे में पता किया जा सकता है. अंग्रेजी वर्णमाला के ई-वर्ण से शुरू होने वाले इन तीन मानकों को ध्यान में रखकर आप चाहें तो इस त्रिविमीय तस्वीर को ई-3 का नाम भी दे सकते हैं.

समाजशास्त्रीय आंकड़ों का खजाना

तालिका-1 में प्रत्येक परिवार की आर्थिक दशा का पता देते आंकड़ों को दर्ज किया गया है. इन आंकड़ों के बीच जो आपसी संबंध झांक रहा है उसे स्कूली किताबों में हर बच्चे को किसी फार्मूले की तरह पढ़ना होता है: तालिका को देखिए और आपको जल्दी ही स्पष्ट हो जायेगा कि जो जाति वर्णाश्रमी ढांचे के भीतर जितनी ‘पिछड़ी’ मानी जाती है उसकी आर्थिक दशा भी उतनी ही गई-गुजरी है. ये बात प्रत्येक जाति-समुदाय ( सामान्य, पिछड़ा वर्ग, अत्यंत पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति) के लिए सही है और इन जाति-समुदायों के भीतर शामिल प्रत्येक जाति के लिए भी. चूंकि विश्लेषण का ज्यादातर हिस्सा, लोगों ने अपनी जो आमदनी बतायी, उसी को आधार बनाकर किया गया है (और, यह सटीक नहीं हो सकता क्योंकि लोग अपनी आमदनी कम करके बताते हैं) इसलिए परख के लिहाज से आमदनी के आंकड़ों का मिलान वाहनों (चार पहिया और दोपहिया वाहन) और कंप्युटरों (इंटरनेट सुविधा वाले और बिना इंटरनेट सुविधा वाले) की मिल्कियत के आंकड़ों से कर लेना ठीक होगा. आमदनी के वर्ण पट्ट को देखने से पता चलता है कि गरीबी सभी जाति-समुदायों में मौजूद है. यहां तक कि ‘अगड़ी’ जातियों के भी एक चौथाई लोग गरीब हैं और इन गरीब लोगों के परिवारों की आमदनी 6000 रुपये प्रति माह से कम है. BC (पिछड़ा वर्ग) और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) कोटि के ऐसे गरीब परिवारों की तादाद कुछ ज्यादा यानी 33 प्रतिशत है तो अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) वर्ग में ऐसे परिवारों की संख्या 43 प्रतिशत है.

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  • आर्थिक दशा बताते आंकड़ों के बीच आपसी संबंध स्कूली किताबों में बताये गये फार्मूले की तरह सीधा हैः जाति की सीढ़ी पर जो जितना नीचेआमदनी के मामले में वह उतना पीछे.

हम पारिवारिक मासिक आमदनी 50,000 हजार या इससे ज्यादा बताने वाले, आर्थिक लिहाज से सबसे सुविधा-सम्पन्न परिवारों वाले हिस्से पर नजर दौड़ाते हैं तो जाति-समूहों के बीच यह अन्तर बहुत ज्यादा बढ़ा दीख पड़ता है. अनुसूचित जाति तथा अत्यंत पिछड़ा वर्ग(EBC) समूह में ऐसे ‘धनी’ परिवारों की तादाद महज 2 प्रतिशत है. ‘पिछड़ा’ यानी BC वर्ग के परिवारों में ऐसे परिवारों की तादाद कुछ ज्यादा यानी 4 प्रतिशत है लेकिन सामान्य (जेनरल) अथवा ‘अगड़ी’ जाति समूह में ऐसे परिवारों की संख्या ऊपर की ओर उछाल मारती हुई 10 प्रतिशत पर पहुंची दिखाई देती है. आमदनी के ये आंकड़ें लैपटॉप की मिल्कियत (हासिल वस्तुगत शैक्षिक सुविधा के संकेतक के रूप में) और वाहनों की मिल्कियत (आर्थिक संपदा के संकेतक के रूप में) के आंकड़ों से करने पर संगत जान पड़ते हैं. दिलचस्प बात ये है कि ‘अगड़ी’ जातियों में कायस्थ जाति के लोग सबसे ज्यादा धनी हैं ना कि भूमिहार और राजपूत जैसी भूस्वामी जातियों के लोग. ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (OBC) में यादव जाति के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है लेकिन इस जाति के लोग कुर्मी या बनिया जाति (ये बिहार में पिछड़ा वर्ग में हैं) और यहां तक कि कुशवाहा जाति के लोगों की तुलना में गरीब हैं.

शिक्षा से संबंधित जातिवार आंकड़ों में ऐसी गिरावट आमदनी के आंकड़ों की तुलना में कहीं ज्यादा तेज है. तालिका संख्या-2 में ऐसी डिग्रियों से संबंधित सूचना दी गई है जिनके सहारे सम्मानजनक नौकरी मिलने की संभावना होती है. इसमें एमए, एमSC या एम.कॉम जैसी स्नातकोत्तर डिग्रियां शामिल हैं साथ ही इंजीनियरिंग, मेडिकल की डिग्री भी और पीएचडी या सीए सरीखी उच्चतर योग्यता की डिग्रियां भी. शिक्षा हासिल करने के मामले में सदियों से चले आ रहे विशेषाधिकार और मनाही का असर इन आंकड़ों में बड़ा स्पष्ट दिखायी दे रहा है. ऊपर जिन डिग्रियों का जिक्र आया है, अगड़ी जाति के व्यक्ति की तुलना में किसी दलित जन के लिए उसे हासिल कर पाने की संभावना 10 गुणा कम है. विभिन्न जातियों के हिसाब से देखने पर यह अन्तर बहुत बढ़ा-चढ़ा दिखायी देता है. बिहार में 10,000 लोगों के किसी समूह में कायस्थ जाति (परंपरागत रूप से पढ़ाई-लिखाई के काम से जुड़ी जाति) के 1089 लोगों के पास इन नौकरी-दिलाऊ डिग्रियों के होने की संभावना है लेकिन अनुसूचित जाति समूह की सबसे वंचित जाति में शुमार मुसहर जाति के प्रत्येक 10,000 व्यक्तियों के समूह में ऐसे डिग्रीधारी लोगों की संख्या आपको महज 01 मिलेगी.


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  • गरीब सब जातियों में मगर उच्च वर्ग मुख्य रूप से अगड़ी जातियों का आय एवं संपदा (%में)

आंकड़ों से निकलता एक दिलचस्प निष्कर्ष ये है कि भूमिहार जाति के लोग ब्राह्मण जाति के लोगों की तुलना में ज्यादा पढ़े-लिखे हैं हालांकि इन दोनों ही जातियों में पढ़े-लिखे लोगों का अनुपात कायस्थों के मुकाबले आधा है. परंपरागत सवर्ण/शूद्र का फर्क शिक्षा के हासिल अवसरों के मामले में अब भी बड़ा अंतर पैदा करता दिख रहा है. पिछड़ा वर्ग में ऊंचे स्तर की डिग्री वाले लोगों की संख्या सामान्य श्रेणी में शामिल लोगों की तुलना में एक तिहाई से भी कम है. अत्यंत पिछड़ा वर्ग में शामिल लोगों में ऐसी ऊंची डिग्री वाले लोगों का अनुपात पिछड़ा वर्ग के लोगों की तुलना में आधा है. इस मामले में पिछड़ा वर्ग के भीतर शामिल जातियों में भी आपसी अन्तर बहुत ज्यादा का दिखायी दे रहा है. ऊंची डिग्री वाले लोगों की तादाद यादवों में 0.82 प्रतिशत है तो कुर्मियों में ऐसे लोगों की संख्या तीन गुणा ज्यादा यानी 2.4 प्रतिशत.

जाति-जनगणना से निकलती एक महत्वपूर्ण समझ मुसलमान समुदाय के भीतर मौजूद गैर-बराबरी से संबंधित है. आर्थिक और शैक्षिक दशा से संबंधित आंकड़ों से जाहिर होता है कि मुसलमानों में जो ‘सैयद’ हैं उनकी स्थिति हिन्दुओं में ‘अगड़ी’ जाति वालों से मेल में है. हालांकि शेख और पठान को गलत ही सामान्य श्रेणी के भीतर रखा गया है क्योंकि इन जातियों के मुसलमानों की आर्थिक और शैक्षिक दशा हिन्दुओं के ‘पिछड़ा’ वर्ग के लोगों की दशा से मेल में है. ‘मलिक’ जाति के मुसलमानों को फिलहाल ‘पिछड़ा’ वर्ग में रखा गया है जबकि उनकी माली और तालिमी तस्वीर सामान्य श्रेणी के लोगों से मेल खाती है. इससे पता चलता है कि आरक्षण की नीतियों की नोक-पलक सुधारने के लिहाज से जाति-जनगणना अत्यंत प्रासंगिक है.

इस लेख के आखिरी सिरे पर आइए, जरा अब नौकरी से संबंधित आंकड़ों पर गौर कर लें. लेख में ऊपर आर्थिक दशा और प्राप्त शैक्षिक अवसर के मामले में जो अन्तर हमने लक्ष्य किया वह तालिका-3 से उभरती नौकरी से संबंधित तस्वीर से एकदम मेल में है. बिहार में संगठित क्षेत्र में नियमित वेतन, भविष्य निधि तथा पेंशन वाली नौकरी करने वाले लोगों की संख्या 3 प्रतिशत से भी कम है. अगड़ी जाति में ऐसे लोगों की संख्या 7 प्रतिशत है जबकि पिछड़ी जाति (BC) में यही आंकड़ा नीचे फिसलकर 2.8 प्रतिशत पर और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) में 1.7 प्रतिशत पर पहुंच जाता है.

  • शिक्षा में विशेष सुविधा-सम्पन्न लोग अगड़ी जातियों केः स्नातकोत्तर एवं अन्य ऊंची डिग्रीधारकों की जातिवार तालिका (% में)

अगर संगठित क्षेत्र की नौकरियों को सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों में बांटकर देखें तो अन्तर बहुत ज्यादा का और स्पष्ट दिख पड़ता है. अगड़ी जाति के लोगों की संख्या इन दोनों ही श्रेणी की नौकरियों में बढे-चढ़े अनुपात में दिखायी देती है, निजी क्षेत्र की नौकरियों में तो यह अन्तर बहुत ज्यादा का है. यहां भी कायस्थ जाति के लोगों की आनुपातिक संख्या सरकारी और निजी दोनों ही क्षेत्र की नौकरियों में बाकियों की तुलना में ज्यादा है. पिछड़ी जाति के लोगों का संख्यात्मक अनुपात निजी क्षेत्र की नौकरियों में तुलनात्मक रूप से कम है. अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के बड़े समुदाय के भीतर जो ऊपरला तबका है (बिहार में इसे पिछड़ा वर्ग या BC कहा जाता है) उसे अपने से बड़ी तादाद वाले अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) की तुलना में निजी क्षेत्र में आनुपातिक रूप से ज्यादा नौकरियां हासिल हैं. संगठित क्षेत्र के भीतर सरकारी नौकरियों (1.13 प्रतिशत) और निजी क्षेत्र की नौकरियों (0.51 प्रतिशत, जी! एक प्रतिशत भी नहीं बल्कि आधा प्रतिशत से भी कम) में मौजूद दलित जन की तादाद को देखने से शीशे की तरह साफ हो जाता है कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था नहीं होती तो दलित जन किस दशा में होते.

आरक्षण में OBC का कोटा बढ़े या नहीं, इस बहस में पड़ने से पहले आइए, हम इन आंकड़ों को पढ़े, पचायें और समझें कि उनके निहितार्थ क्या हैं. और, इसके बाद हमारा काम बनता है पूरे देश के लिए ऐसे ही एक्स-रे और एमआरआई रिपोर्ट की मांग बुलंद करने का.

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से एक हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन : ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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