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Monday, 6 May, 2024
होममत-विमतनदी जल-विवाद पर भगवंत मान की सरकारी नौटंकी राष्ट्रवाद के गहरे संकट की बानगी है

नदी जल-विवाद पर भगवंत मान की सरकारी नौटंकी राष्ट्रवाद के गहरे संकट की बानगी है

सतलुज-यमुना लिंक नहर परियोजना के मसले पर सरकारों, राजनीतिक दलों और नागरिक संगठनों की नाकामी हमारे राष्ट्रवाद के एक गहरे संकट का लक्षण है.

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कॉमेडी (प्रहसन) गहरे और अनचीन्हे सच सामने लाती है. कॉमेडियन से नेता बने भगवंत मान ने अनजाने में ही सही, ऐसा कर दिखाया है. उन्होंने करदाताओं की कमाई फूंककर हाल ही में एक सरकारी प्रहसन (कॉमेडी) का आयोजन किया था और इस प्रहसन ने हमारे राष्ट्रवाद के एक गहरे संकट को उजागर कर दिया.

आयोजन ‘मैं पंजाब बोलदा हां’ नाम से किया गया था. इसमें पंजाब के मुख्यमंत्री ने कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के अपने तमाम प्रतिस्पर्धियों को आने का न्योता दिया था कि वे आयें और सतलज-यमुना लिंक नहर परियोजना जैसे विवादित मसले पर ‘खुली बहस’ हो जाये. सुप्रीम कोर्ट ने हाल में पंजाब सरकार को एक कहते हुए एक अल्टीमेटम जारी किया था कि वह सतलुज-यमुना लिंक नहर परियोजना के अपने हिस्से के निर्माण-कार्य को पूरा करने का कानूनी फर्ज निभाएं ताकि हरियाणा को सतलज से अपने हिस्से का पानी मिल सके.

बीते वक्त में शिरोमणि अकाली दल और कांग्रेस दोनों ही ने अदालत के आदेश को अमल में लाने से इनकार किया है तो अब गेंद पंजाब की आम आदमी पार्टी की सरकार के पाले में है. अदालत के अल्टीमेटम ने जब एक किनारे ला खड़ा किया तो भगवंत मान ने सूबे की सभी बड़ी पार्टियों को बहस की खुली चुनौती दे डाली ताकि इन पार्टियों का पाखंड जग-जाहिर हो जाये और वे (भगवंत मान) सूबे के लोगों के सामने जाहिर कर सकें कि मौजूदा स्थिति के गड़बड़झाले के लिए उनसे पहले के नेता जिम्मेदार हैं. लेकिन विपक्ष के नेताओं ने भगवंत मान की खुली चुनौती पर कान ना देते हुए आयोजन का बहिष्कार किया.

पंजाब के मुख्यमंत्री पर इसका कोई असर नहीं हुआ. वे अपने भव्य आयोजन में खाली कुर्सियों के सम्मुख विपक्षी नेताओं को बेनकाब करने के अपने काम में जुटे रहे.

दोमुंहेपन की रीत

परेशानी की बात सिर्फ ये ही नहीं कि नौटंकी नुमा एक ऐसे मजमे पर दोनों हाथ खोलकर पैसे स्वाहा किये गये जो ना तो ‘सार्वजनिक’ था और ना ही जहां सही अर्थों में कोई बहस ही हुई. मुझे ज्यादा परेशान करने वाली बात ये लगी कि मसले पर दोमुंहेपन का रूख अख्तियार करने की जो परिपाटी चली आ रही है उसी राह अब एक और राजनीतिक पार्टी लग गई है.

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हरियाणा में आम आदमी पार्टी के लिए चुनावी संभावनाएं मौजूद हैं. इस नाते पार्टी दोनों राज्यों के किसानों के बीच मध्यस्थता की कोशिश कर सकती थी. लेकिन पार्टी ने मसले पर अपने प्रतिस्पर्धी कांग्रेस और बीजेपी की राह चलना ठीक समझा. गुजरे वक्त में इन दोनों ही पार्टियों ने अपनी पंजाब और हरियाणा की इकाइयां को मसले पर एक-दूसरे के खिलाफ रूख अपनाने की छूट दी और अपने मतदाताओं को लुभाये रखने के लिए प्रतिस्पर्धी कट्टरवाद का गैर-जिम्मेदाराना खेल खेला.

पंजाब और हरियाणा की राजनीति ने प्रतिस्पर्धा दावेदारियों के बीच मध्यस्थता करने की अपनी बुनियादी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया है. कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कायम कावेरी जल-विवाद के मसले पर यही बात राष्ट्रीय पार्टियों की भूमिका के बारे में कही जा सकती है.

इस स्थिति के साथ परेशान करने वाली एक और बात हैः केंद्र में काबिज ‘राष्ट्रवादी’ सरकार का मसले पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना. हर कोई जानता है कि हरियाणा की दावेदारी के पक्ष में साफ-साफ और बारंबार आये अदालत के फैसले पर कभी भी अमल नहीं किया जायेगा. यह एक ऐसा मसला है जिसे लेकर भारत संघ के दो राज्य टकराने की मुद्रा में आमने-सामने खड़े हैं और ये भी आशंका बनी रहती है कि इन दो पड़ोसी राज्यों के लोगों के बीच इस मसले को लेकर वैमनस्य का माहौल न पैदा हो जाये. यह विवाद दोनों सूबों की सरकार के प्रतिनिधियों के बीच राजनीतिक मध्यस्थता के जरिए हल किया जा सकता है.

ऐसा करने की संवैधानिक और नैतिक जिम्मेवारी केंद्र सरकार की है. स्थिर सरकार और जन-समर्थन वाले राष्ट्रीय नेता का पहला कर्तव्य बनता है कि वह पहलकदमी करे और मसले को सुलझाये. लेकिन सुलझाने की दिशा में मजबूत कदम उठाने की बात तो छोड़ दें, हमारे प्रधानमंत्री ने इस मसले पर अभी तक कोई पहल कदमी ही नहीं की, बिल्कुल वैसे ही जैसे कर्नाटक-तमिलनाडु विवाद या फिर मैतेई-कुकी संघर्ष पर वे चुप्पी साधे रहे. प्रधानमंत्री के बचाव के पक्ष में आप सिर्फ एक ही बात कह सकते हैं कि उनसे पहले के प्रधानमंत्रियों ने भी इस मसले को सुलझाने की दिशा में कोई गंभीर प्रयास नहीं किया.


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लोकलुभावन बातों का तोता रटंत

मुझे सबसे ज्यादा परेशानी पंजाब के नागरिक-समाज (सिविल सोसायटी) के रूख को देखकर हुई. पंजाब में प्रगतिशील तेवर के नागरिक-संगठन और बुद्धिजीवियों की लंबी परंपरा रही है जिसने राजसत्ता की मनमानियों से लोहा लिया और किसी भी संकीर्ण मतवाद के घरे में ना बंधने का साहस दिखाया है. पंजाब के नागरिक-समाज और बुद्धिजीवियों ने धार्मिक कट्टरता पर ही नहीं बल्कि संकीर्ण किस्म के राष्ट्रवाद पर भी सवाल करने का साहस दिखाया है. हरियाणा का नागरिक-समाज इन मायनों में कमजोर कहा जायेगा. लेकिन जब बात जल-विवाद की आती है तो दोनों ही राज्यों के बुद्धिजीवी अपनी सूबाई सरकार और पार्टियों की लोकलुभावन लाइन को किसी रट्टू तोते की तरह दोहराने लगते हैं.

मसले पर गौर करने की एक महत्वपूर्ण बात ये भी है कि हरियाणा और पंजाब दोनों ही राज्यों में किसान-आंदोलन मजबूत है. दोनों राज्यों के किसानों की ऐतिहासिक एकजुटता दो साल पहले हुए किसान-आंदोलन की कामयाबी की बुनियादी बनी. नदी जल-विवाद का असर दोनों ही पर होना है. दोनों ही सूबों की सरकारें और राजनीतिक दल किसानों के नाम पर ही कानूनी और राजनीतिक लड़ाइयां लड़ते हैं. किसान स्वयं इन्हें राजनीतिक खेल खेलने से रोक नहीं सकते लेकिन किसानों के संगठन और किसानों के हमदर्द बुद्धिजीवी निश्चित ही ऐसा खाका तैयार कर सकते हैं जिसे आधार बनाकर हितों की परस्पर टकराती दावेदारियों के बीच सुलह कराई जा सके. मैंने बारंबार सुझाव दिया है कि ऐसी सुलह मुमकिन है. लेकिन अभी तक कोई भी संगठन या मंच जोखिम उठाने को तैयार नहीं, यहां तक कि इस दिशा में चर्चा कराने की कोशिशें तक नहीं हुई हैं.

एकता बनाम विविधता का युग ?

सतलुज-यमुना लिंक नहर परियोजना के मसले पर सरकारों, राजनीतिक दलों और नागरिक संगठनों की नाकामी एक गहरे संकट का लक्षण है. गहरी विविधताओं से भरे भारत सरीखे राष्ट्र को रचने-गढ़ने और बनाये रखने के लिए लगातार दो सिरों से प्रयास करते रहना जरूरी है. एक तरफ आपको इस देश की बहुविध विविधताओं की पहचान करनी और उनका सम्मान करना होता है क्योंकि राष्ट्र-निर्मायक इकाइयों के रूप में उन्हें आपस में जोड़ा जाना है. दूसरी तरफ, लगातार ऐसे मजबूत सूत्र तलाशने होते हैं जिनके सहारे इन इकाइयों को आपस में एक में गूंथा जा सके और ऐसे सूत्रों को लगातार दृढतर करते चलना होता है.

हमारे आजादी के आंदोलन ने इस दोहरी जरूरत को समझा था. हमारे राष्ट्रवाद अद्वितीय रूप से सकारात्मक है. इसके भीतर एकता की भावना एक ऐसे उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष से उपजी जो ना तो गोरी चमड़ी के लोगों के खिलाफ था ना ही ब्रिटिश-जन के खिलाफ. इस राष्ट्रवाद ने भारतीयों को अपने पड़ोसी मुल्कों के खिलाफ खड़ा करना जरूरी नहीं समझा. आखिरकार, स्वतंत्र भारत चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रवेश देने के मसले पर दृढ़ समर्थन देने वाले देशों में अग्रणी बनकर उभरा था. हमारे राष्ट्रवाद ने हमें पूरी दुनिया मतलब एशिया से लेकर अफ्रीका और लातिनी अमेरिका तक में चल रहे उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलन और संघर्षों से जोड़ा.

राष्ट्रीय आंदोलन के हमारे नेताओं ने समरूपता में एकता की यूरोपीय धारणा को खारिज किया. लेकिन साथ ही, उन्हें राष्ट्रीय एकता की गहरी फिक्र थी. यों राष्ट्रवाद की विचारधारा को लेकर रबीन्द्रनाथ टैगोर आशंकित थे तो भी उन्होंने ना सिर्फ राष्ट्रगान रचा बल्कि भारतीय राज्य के लिए एकता का दर्शन भी दिया. जवाहरलाल नेहरू की किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया सिर्फ बौद्धिक उपक्रम नहीं बल्कि एकता के सूत्र तलाशने की एक राजनीतिक परियोजना भी है. छुआछूत के खिलाफ गांधी का ‘धर्मयुद्ध’ और हिन्दी को बढ़ावा देने के उनके प्रयास भारत को एकता के सूत्र में जोड़ने की उनकी चिंता से ही उपजे थे.

आज हमने इस विरासत से किनारा कर लिया है. विविधता में एकता के सूत्र के साथ जुड़ी चिंता हमारे राजनेताओं में दो-फांक हो गई है. कुछ का जोर विविधता को तिलांजलि देकर एकता कायम करने पर है जबकि कुछ अन्य राजनेताओं का सारा जोर विविधता पर है, वे एकता कायम करने की जरूरत को भुला बैठे हैं. राजनीतिक और बौद्धिक कर्मयोग भ्रष्ट होकर विभाजित हो गया है. हम एक लंबे सफर में ‘विविधता में एकता’ से शुरू होकर ‘विविधता और एकता’ के ठौर से होते हुए अब आखिरकार विविधता बनाम एकता के मुकाम पर आ पहुंचे हैं.

आज देश में एक ऐसी राजनीतिक धारा मौजूद है जो तमाम विविधताओं को तजने की कीमत पर समरूपता (युनिफार्मिटी) को बढ़ावा देकर एकता कायम करने पर तुली है. युरोपीय तर्ज के राष्ट्र-राज्य की यह नकल आज राष्ट्रवाद की प्रमुख धारणा बन चली है. हमारा राष्ट्रवाद लगातार बहिर्मुखी, आक्रामक और ‘एकोहं द्वितीय नास्ति’ की राह पर बढ़ा जा रहा है. इस राष्ट्रवाद की पहचान हैः टीवी स्टूडियो में बैठकर पड़ोसी मुल्कों के खिलाफ जबानी जंग करना या फिर पाकिस्तान से आये मेहमान क्रिकेटरों का अपमान करना. राष्ट्रीय एकता कायम रखने की और उसके तरीके तलाशने के लिए अपने भीतर झांकने और सोचने की रीत जैसे खत्म हो चली है. गाजा पट्टी को मटियामेट करते इजरायल को देख परपीड़ा में मजे लूटने के लिए हमारे पास खूब सारा समय (और ना के बराबर समझ) है लेकिन मणिपुर के हालात को समझने के लिए जरा भी समय नहीं. हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान राष्ट्रवाद की इस नौटंकी का घोष-वाक्य है !

अफसोस की बात है कि राष्ट्रवाद के ऐसे राजनीतिक विरूपण को लेकर हमारी प्रतिक्रिया उसी चीज की प्रतिच्छवि हो चली है जिसका हमें विरोध करना है. अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी(बीजेपी) समरूपता में एकता कायम करना चाह रहे तो हम इसकी प्रतिक्रिया में ना सिर्फ समरूपता का विरोध करते हैं बल्कि ऐसा करते हुए हम एकता की जरूरत को भी तिलांजलि दे डालते हैं. देश की विविधताओं को बुलडोजरी राष्ट्रवाद के चक्के से बचाने की फिक्र में हम बहुसंस्कृतिवाद की अमेरिकी भाषा बोलने लग जा रहे हैं. अगर आरएसएस-बीजेपी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का छाप-तिलक लगाये हुए हैं तो हम इसकी प्रतिक्रिया में राष्ट्रवाद को ही एक अजीब सी शय समझने लग जाते हैं. अगर वे लोग ‘राष्ट्रवाद खतरे में है’ के मिथ्या संशय से ग्रस्त हैं तो हम लोग राष्ट्रवाद को लेकर आत्म-तुष्ट विमुग्धता में जी रहे हैं.

इस दोहरेपन से उबरना और विविधता में एकता के जरिए राष्ट्र-निर्माण करने के अपने अनोखे मॉडल पर फिर से दावा ठोकना हमारे समय का सबसे महत्वपूर्ण काम है.

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से एक हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन : ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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