कोरोनावायरस महामारी से बना संकट लगभग निश्चित रूप से एक नया वैश्विक क्रम तैयार करेगा और भारत अधिक मज़बूत बनकर उभर सकता है. लेकिन इसके लिए भारतीयों को आत्मतुष्टि के भाव को छोड़ना होगा जो इस भरोसे के कारण आता है कि अपने लंबे इतिहास के कारण हमारे राष्ट्र का उदय अपरिहार्य है.
यदि भारत बड़ी आबादी के कारण अपने महत्व से आगे विश्व स्तर पर एक गंभीर किरदार बनना चाहता है, तो नरेंद्र मोदी सरकार को वो सबकुछ करना होगा जोकि बड़ी शक्तियां करती हैं. इसमें अन्य बातों के साथ शामिल हैं- एक आधुनिक सेना में निवेश करना, अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाना, सहयोगी लोकतांत्रिक देशों के साथ साझेदारी को बढ़ावा देना और भारत के लोकतांत्रिक संस्थानों को सुदृढ़ करना. भारत को मज़बूत नेतृत्व और निर्णायक कार्रवाई की आवश्यकता है, केवल लोकलुभावनवाद और राष्ट्रवाद की खोखली बातों से काम नहीं चलेगा.
वैश्विक समुदाय पिछले दो दशकों से इंतजार कर रहा है कि भारत एशिया और उससे आगे बड़ी भूमिका निभाए.
भारत की वैश्विक संभावनाएं
शेष विश्व की भारत से उम्मीदों के कई कारण हैं- इसकी ऐतिहासिक सभ्यता, भू-सामरिक अवस्थिति, 50 करोड़ लोगों का विशाल श्रम बल, दुनिया की चौथी सबसे बड़ी सेना और एक विशाल उपभोक्ता बाज़ार. लेकिन भारतीय राजनीतिक नेताओं ने दुनिया की प्रमुख ताक़त होने संबंधी अपने बयानबाज़ी के अनुरूप भारत को एक मज़बूत शक्ति बनाने के लिए कदम नहीं उठाए हैं.
ये ऐसा ही है कि भारत एक बड़ी ताकत बनना चाहता है क्योंकि वह इसका हकदार है लेकिन वह अन्य प्रमुख शक्तियों के विपरीत बड़ी ज़िम्मेदारियों को निभाए बिना ये दर्जा हासिल करना चाहता है.
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जहां तक आर्थिक शक्ति, सैन्य शक्ति, वैश्विक निर्णयों को प्रभावित करने की क्षमता और अन्य राष्ट्रों की मान्यता जैसे वैश्विक शक्ति के कारकों की बात है तो अभी तक ये भारत की विशेषताओं के रूप में नहीं देखे गए हैं. यदि भारत आर्थिक रूप से 8-10 प्रतिशत की दर से विकास करता है, तो इसे वैश्विक कंपनियों के लिए एक बड़े उपभोक्ता बाजार के रूप में देखा जाएगा. तब इसके पास सैन्य आधुनिकीकरण में निवेश के लिए अधिक संसाधन भी होंगे और यह ऑस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका जैसे देशों और यूरोपीय संघ का पसंदीदा साझेदार बन सकेगा.
लेकिन मात्र 3-4 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा आज का भारत संरक्षणवादी और अंतर्मुखी है जिसके पास रक्षा में निवेश के लिए संसाधन नहीं हैं और इन सब कारणों से वह एक अवांछनीय साझेदार है.
आर्थिक कारक
आर्थिक विकास जहां सहयोगियों को आकर्षित करता है, वहीं यह प्रतिद्वंदियों को रोकने का काम भी करता है. ये कोई संयोग की बात नहीं है कि 1990 के बाद से ही भारत-चीन रिश्ते में व्यापार की एक बड़ी भूमिका रही है. जब भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हुआ तो चीनी कंपनियां भारतीय बाज़ार में अपनी पैठ बनाने के रास्ते तलाशने लगी.
भारत का आर्थिक विकास और सैन्य निवेश जितना अधिक होगा तथा अमेरिका और जापान जैसे देशों के साथ उसके संबंध जितने गहरे होंगे, चीन उसे उतना ही अधिक अपनी ओर खींचना चाहेगा.
इसके विपरीत भारत का आर्थिक विकास और सैन्य क्षमताओं के कमज़ोर पड़ने पर चीन के भारत को उकसाने की आशंका बढ़ जाएगी, जैसा कि इस समय हो रहा है.
पिछले तीन वर्षों में चीन ने दो बार जमीनी वास्तविकताओं को बदलने के इरादे से वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर भारत के साथ तनातनी की है.
इस समय तो भारत को मज़बूती से पांव जमाए रखने और सीमा के उन बिंदुओं पर दबाव बनाने की ज़रूरत है जहां चीन रक्षात्मक स्थिति में है. लेकिन दीर्घावधि में, भारत को आर्थिक विकास और सीमा पर आधारभूत ढांचे को मज़बूत करने के लिए संसाधन जुटाने की ज़रूरत होगी.
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चीन को कड़ा संदेश देने के लिए भारत को हिंद महासागर में अपनी सैनिक क्षमताओं को भी बढ़ाना होगा.
धीमे विकास का असर
आर्थिक मोर्चे पर भारत की प्रगति की राह में कई समस्याएं मौजूद हैं. आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार 2010-11 के 8.5 प्रतिशत से घटकर कोविड-19 संकट से पूर्व फरवरी 2020 में 4.5 प्रतिशत रह गई थी.
हालांकि आर्थिक सुस्ती कोविड महामारी फैलने से बहुत पहले 2016 में ही आनी शुरू हो गई थी, जब अर्थव्यवस्था को नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के राष्ट्रव्यापी कार्यान्वयन की दोहरी मार झेलनी पड़ी थी. इसका अर्थव्यवस्था के विभिन्न सेक्टरों पर बुरा असर पड़ा और शीर्ष कंपनियां निवेश से हाथ खींचने, कर्मचारियों की छंटनी करने तथा देखो और इंतजार करो की नीति अपनाने के लिए बाध्य हो गईं.
अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि कोविड-19 के कारण भारत की जीडीपी वृद्धि दर और गिरकर 2020-21 में 1.5 प्रतिशत के स्तर पर आ जाएगी. कई विश्लेषक तो ऋणात्मक वृद्धि तक की आशंका जता रहे हैं.
व्यापक आर्थिक संकट पर मोदी सरकार की प्रतिक्रिया छिटपुट और दीर्घावधि की रिकवरी के लिए अपर्याप्त रही है.
लंबा रास्ता तय करना है
कई विश्लेषकों, जिनमें मोदी सरकार के भीतर और बाहर दोनों के ही लोग शामिल हैं, का मानना है कि सरकार के कोरोनावायरस लॉकडाउन खत्म करते ही भारतीय अर्थव्यवस्था में फिर से उछाल आ सकेगा.
हालांकि कई अर्थशास्त्री और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां इस राय से सहमत नहीं हैं. तीनों अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों– मूडीज़, स्टैंडर्ड एंड पूअर्स और फिच– ने हाल ही में भारत की रेटिंग कम करके उसे सबसे निचले निवेश ग्रेड में डाल दिया है.
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साथ ही इन एजेंसियों ने उन बातों पर भी ज़ोर दिया है, जो कई अर्थशास्त्री कई वर्षों से कह रहे हैं कि 2016 की आर्थिक सुस्ती के बाद से मोदी सरकार ने आर्थिक सुधारों का काम नहीं किया है. उनका कहना है कि आर्थिक विकास निरंतर कमज़ोर रहा है, भारत के वित्तीय सेक्टर पर दबाव बढ़ रहा है और ‘सरकार की राजकोषीय स्थिति में बड़ी गिरावट आई है’.
पड़ोसी देशों को आकर्षित करने, प्रतिद्वंदियों का मुकाबला करने और गठबंधनों को मज़बूत करने के लिए भारत को जीडीपी और कुशल श्रम बल को बढ़ाते हुए आर्थिक रूप से मज़बूत बनना पड़ेगा और साथ ही उसे विदेशी निवेश का स्वागत करने और सरकारी नियंत्रणों को कम करने की भी ज़रूरत है.
(लेखिका वाशिंगटन डी.सी. स्थित हडसन इंस्टीट्यूट में रिसर्च फेलो और इंडिया इनिशिएटिव की निदेशक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
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