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Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतजी-20 की अध्यक्षता से सिर्फ प्रतिष्ठा मिलेगी, इसके बदले भारत को सुरक्षा और चीन पर नजर रखना चाहिए

जी-20 की अध्यक्षता से सिर्फ प्रतिष्ठा मिलेगी, इसके बदले भारत को सुरक्षा और चीन पर नजर रखना चाहिए

नई दिल्ली आज तक वाजिब आकलन नहीं कर पाया कि 1950 के दशक से ही तीसरी दुनिया के हक में अपनी सक्रियता से असलियत में क्या हासिल कर पाया

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इसमें कोई शक नहीं कि भारत के लिए जी-20 सम्मेलन कामयाब रहा. रूस-चीन गठजोड़ और पश्चिम के बीच मध्य में खड़े रहने के उसके रवैए की काफी सराहना हुई. कई टिप्पणीकारों का तो यह भी कहना है कि बाली में भारत ने जो भूमिका निभाई, वह नई ताकत के रूप में उसके उदय का संकेत देती है. कुछ उम्मीद यह भी है कि नई दिल्ली पूर्व और पश्चिम के उभरते टकराव के बीच संभावित पुल बन सकता है, खासकर गोलार्ध की दक्षिणी दुनिया के हक में, जिस पर स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जोर दिया. फिर भी, सावधानी बरतने की भी जरूरत है.

जी-20 में पुल बनने की भूमिका नई दिल्ली को कुछ प्रतिष्ठा दिला सकता है, लेकिन आशंका यह है कि इससे अपने प्रमुख सुरक्षा साझीदारों से भारत की दूरी बढ़ सकती है और देश की सुरक्षा जोखिम में पड़ सकती है और वह भी सिर्फ मध्य मार्ग अपनाने के भ्रम की वजह से.

एक जो, जी-20 की अध्यक्षता कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है, न ही किसी खासियत की मान्यता है या भारत के वैश्विक कद में इससे कुछ इजाफा होता है. याद रखें कि नई दिल्ली को अध्यक्षता का पद इंडोनेशिया से मिल रहा है, जिसे इटली से यह बागडोर मिली थी. ये दोनों देश वाकई महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वैश्विक शक्तियां नहीं हैं.

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ऐसे पदों की अहमियत बेहद थोड़ी होती है, खासकर जटिल गठजोड़ों के लिए, जिनमें कई महाशक्तियां और उनके हित जुड़े होते हैं. इसका सीधा-सा मतलब है कि कुछ हवा-हवाई ऐलानों के अलावा ज्यादा कुछ हासिल नहीं होता. फिर, एक तरफ अमेरिका और उसके सहयोगी और दूसरी तरफ चीन और रूस के बीच उभरती हुई महाशक्तियों की होड़ के मायने में जी-20 की प्रासंगिकता संदिग्ध है.

महाशक्तियों की होड़ में सब कुछ शामिल होगा और जी-20 भी नहीं बचेगा. इसका मतलब यह है कि न केवल भारत से पक्ष लेने के लिए कहा जाएगा, बल्कि मध्यमार्ग की तलाश में नई दिल्ली अपने सुरक्षा साझीदारों को नाखुश कर सकती है. यकीनन यह एक समस्या है क्योंकि भारत मध्यमार्ग अपनाने की खुशफहमी में अपने सुरक्षा हितों की अनदेखी कर बैठ सकता है.

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‘प्रतिष्ठा’ से आगे देखिए

मामला चाहे जी-20 का हो या संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का, नई दिल्ली का फोकस प्रतिष्ठा और हैसियत हासिल करने पर केंद्रित लगता है, जो कुछ वास्तविक ताकत के बदले महज नाम की होती है. जरा सोचिए, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के कार्यकारी बोर्ड की बहुचर्चित भारतीय ‘अध्यक्षता’ की, जो 2020 में कोविड महामारी के शुरुआती महीनों में हासिल हुआ था.

भारत वास्तव में कुछ पहल कर सकता था और खासकर उस वर्ष जून में गलवान घाटी में उसके हमलावर रुख के मद्देनजर चीन को परेशानी में डाल सकता था. अगर वह वायरस की संदिग्ध उत्पत्ति और जांच न होने देने के बीजिंग के प्रयासों पर प्रकाश डालता, तो उससे न केवल दुनिया भर के लोगों का भला होता, बल्कि चीन को परेशानी में झोंक कर भारतीय हितों की रक्षा में भी मदद मिलती. लेकिन भारत ने वास्तव में डब्ल्यूएचओ के कार्यकारी बोर्ड की अध्यक्षता में क्या किया, यह रहस्य बना हुआ है. लेकिन इससे तो यही अंदाजा लगता है कि भारत को सिर्फ पद की हैसियत की लालसा थी, न कि भारतीय हितों की रक्षा में कुछ करने की.

निकट भविष्य में भारत की विदेशी रणनीति का केंद्रीय प्रश्न यह है कि चीन के सैन्य खतरे और एशिया तथा उसके बाहर अपने राजनीतिक पांव फैलाने की उसकी कोशिशों के खिलाफ देश के हितों की रक्षा कैसे की जाए. भारत जो कुछ भी करता है उसे इसी चश्मे से देखा जाना चाहिए. लेकिन भारत ने अक्सर राष्ट्रीय सुरक्षा के बजाय अंतरराष्ट्रीय हैसियत को अहमियत दी है. वह वैश्विक भूमिका की मृगतृष्णा में फंस गया है जिससे आर्थिक या सुरक्षा संबंधी कोई लाभ बमुश्किल ही मिलता है. बदतर तो यह कि इससे अक्सर यह माना लिया जाता है कि ऐसी भूमिका से भारत अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कड़े और महंगे विकल्प चुनने से दूर हो जाएगा.

नई दिल्ली अभी तक इसका उचित मूल्यांकन नहीं कर पाई है कि 1950 के दशक के बाद से तीसरी दुनिया के हक में की सक्रियता से वास्तव में उसे क्या हासिल हुआ है. कोरियाई युद्ध में भारत की मध्यस्थता या गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नाम) या जी-77 में उसकी अगुआई से भारतीय हितों को क्या फायदा हुआ? 1962 और 1971 की तरह मुसीबत के समय में, भारत को इस हकीकत से रू-ब-रू होना पड़ा था कि तीसरी दुनिया की अग्रणी ‘शक्ति’ के नाते उसकी सुरक्षा के मद में मामूली मदद भी नहीं मिली. उस वक्त केवल वही दोस्त मायने रखते थे जो सैन्य और कूटनीतिक रूप से भारत की मदद करने को तैयार थे, न कि वे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा और अनगिनत शांति प्रस्तावों में भारत के साथ मतदान किया था.

भारतीय विदेश नीति के विद्वानों ने सही ही बताया है कि बाहरी दुनिया के संदर्भ में भारत के नजरिए में आए कुछ बदलावों के बावजूद, बहुत कुछ पहले जैसा बना हुआ है. इसकी एक वजह तो यही है कि हमेशा हैसियत पर फोकस जारी रखना है, भले ही उसकी अहमियत का खास आधार ही बदल गया हो.

संकट और परीक्षा

हैसियत की तलाश में बुनियादी रूप से कुछ भी गलत नहीं है. लेकिन यह ऐसी विलासिता है, जो अपनी सुरक्षा को लेकर पूरी तरह आश्वस्त देशों को शोभा देती है. समस्या तब खड़ी होती है जब ऐसी कोशिश राष्ट्रीय सुरक्षा की खास जरूरतों के आड़े आती है। हैसियत खुद-ब-खुद अंतरराष्ट्रीय राजनीति के उबड़-खाबड़ रास्ते में कोई सुरक्षा प्रदान नहीं करती है.
कम से कम आजादी के शुरुआती दशकों में, भारत अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित देश था. उसमें अपनी रक्षा करने की ताकत थी, भले ही उसे अक्सर बर्बाद कर दिया गया हो. वह स्थिति अब नहीं है. पिछले तीन दशकों में भारत की सुरक्षा स्थिति उत्तरोत्तर बिगड़ती गई है, क्योंकि यह चीन की तुलना में लगातार कमजोर हुआ है.

इसका मतलब यह है कि भारत ऐसी किसी भी विदेश नीति के पीछे नहीं भाग सकता है जो उसे चीन की ताकत से खुद को सुरक्षित करने के सबसे मौलिक हित से भटकाता है.

ऐसा नहीं है कि नई दिल्ली को अपनी सुरक्षा स्थिति के खराब होने का एहसास नहीं है. असल में, यही भारत की अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ बढ़ती निकटता, क्वाड की सदस्यता और दूसरी सक्रियताओं का आधार है. दरअसल, जब भारत बाली में मध्यस्थ की भूमिका निभा रहा था, तब भारतीय नौसेना जापान के तट पर अपने क्वाड भागीदारों के साथ मालाबार सैन्य अभ्यास में जुटी हुई थी. ये भारतीय सुरक्षा के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण साझेदारियां हैं और भारत को इन सुरक्षा साझीदारों के बीच किसी भी चीज को आड़े नहीं आने देना चाहिए.

1950 के दशक में भारत की जो भी हैसियत थी, उसे 1962 में गहरा झटका लगा, जब वह अपने क्षेत्र की रक्षा नहीं कर पाया. भारत की सुरक्षा की स्थिति आज बहुत खराब है, जिसका अर्थ है कि उसमें भूल-चूक की बहुत कम गुंजाइश है. दरअसल, भारत को उस ओर ठोस ध्यान देने की दरकार है कि उसके राष्ट्रीय सुरक्षा हित में वास्तव में क्या सबसे अहम है. मध्यस्थ या पुल बनने या गोलार्द्ध के दक्षिण का नुमाइंदा बनने से कुछ भी महत्व का हासिल नहीं हो सकता है.

लेखक नई दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @RRajagopalanJNU  है. व्यक्त विचार निजी हैं.

(अनुवाद: हरिमोहन मिश्रा)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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