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Saturday, 21 December, 2024
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स्वजातीय शादियां बना रहीं हैं भारत को बीमार, बढ़ा रही हैं असमानता

भारत के लोग 70 पीढ़ियों से अपनी ही जातियों में शादी कर रहे हैं. अगर ये जारी रहा, तो देश को किन समस्याओं का सामना करना पड़ेगा?

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विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के निर्देशन में नितिन कुमार भारती द्वारा भारत में वर्गीय और जातीय असमानता के रिश्तों पर किए गए शोध को अपने एमफिल रिसर्च से जोड़ते हुए अपने पिछले लेख में मैंने उच्च जातियों के अमीर होते चले जाने की वजहें बताई थीं.

चूंकि जाति-व्यवस्था, बाबासाहब डॉ. बी. आर. आंबेडकर के अनुसार, अपने आप में ही ‘श्रेणीगत असमानता’ है, इसलिए यह देखना दिलचस्प है कि सामाजिक असमानता कैसे आर्थिक असमानता को मजबूत कर रही है और कैसे बढ़ती आर्थिक असमानता जाति-व्यवस्था को प्रभावित कर रही है? मौजूदा लेख में इस बात की पड़ताल की गई है कि बढ़ती आर्थिक असमानता का जाति-व्यवस्था पर क्या असर होगा.

हालांकि, आजादी की लड़ाई के समय और बाद में भी कई विद्वानों का मत रहा कि जैसे-जैसे आर्थिक विकास की गाड़ी आगे बढ़ेगी, वैसे वैसे जाति-व्यवस्था जैसी सामाजिक असमानताएं भी समाप्त होती चली जाएंगी. विकास के इस अवधारणा को ‘आधुनिकीकरण मॉडल’ कहा जाता है. इस मॉडल को यदि साधारण शब्दों में समझा जाये तो आर्थिक विकास की वजह से लोगों के निर्णय लेने की प्रक्रिया में जाति, धर्म जैसे चीजें आड़े नहीं आएंगी, जिससे आगे चलकर जाति-व्यवस्था कमजोर हो जाएगी.

नितिन भारती के शोध के अनुसार भारत में लगभग 5-6 प्रतिशत शादियाँ ही अंतर-जातीय हो रही हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि लगभग 94-95 प्रतिशत शादियाँ अभी भी अपनी ही जाति में हो रही हैं. यह स्थिति तब है, जब विभिन्न राज्य सरकारें अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित करने के लिए आर्थिक मदद तक देती हैं. नितिन नें शादियों के बारे में अनुमानित आकड़ा इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे (IHDS) और नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS) से निकाला है.

सिर्फ जाति नहीं, शिक्षा और रोजगार से भी तय हो रहे हैं रिश्ते

यह अध्ययन बताता है कि भारत में होने वाली शादियों में लड़की की उम्र लड़के की उम्र से औसतन पांच वर्ष कम होती है. यहां आज भी लाइफ पार्टनर चुनने में अभिभावक की ही मुख्य भूमिका होती है, जो कि अपनी सजातीय शादियों की मुख्य वजह है.

चूंकि, भारत में शादियों में लड़की के लिए दूल्हा, लड़की का पिता देखता ही है, इसलिए लड़की के पिता की शिक्षा का उसके होने वाले पति की शिक्षा से सीधा संबंध देखने में आ रहा है. अगर लड़की का पिता ज्यादा शिक्षित है, तो इस बात की ज्यादा संभावना है कि वह अपना दामाद भी ज्यादा शिक्षित ही ढूंढे़गा.

शिक्षा के बाद रोजगार एक दूसरा महत्वपूर्ण कारक है, जो कि शादियां तय करने में मुख्य कारक बनकर उभरा है. यानी शादी के लिए सजातीय होना ही काफी नहीं है. अगर लड़की का पिता पढ़ा-लिखा है, तो वह अपनी जाति में भी पढ़ा लिखा और रोजगार वाला दूल्हा ही ढूंढे़गा.

कुल मिलकर इस शोध से यह निष्कर्ष निकलता है कि सभी जातीयों में शादियां अब केवल जाति के ही आधार पर नहीं हो रही हैं, बल्कि शिक्षा और रोजगार भी मजबूत आधार बन कर उभरा है. लेकिन इससे यह भी निष्कर्ष नहीं निकलता कि शादियों में जाति का कोई मतलब नहीं गया है, क्योंकि उक्त शोध के अनुसार केवल 5-6 प्रतिशत ही अंतरजातीय शादियां हो रही हैं. सवाल उठता है कि इस तरह की सजातीय शादियों के परिणाम क्या होंगे?

सजातीय शादियों के दुष्परिणाम

भारत में उभर रही खास तरीके की सजातीय शादियों का व्यापक दुष्परिणाम राजनीति, अर्थव्यवस्था से लेकर स्वास्थ्य के क्षेत्र में दिखाई देगा.

राजनीति की बात करें तो उच्च जातियों के कुछ सुपर अमीर परिवारों का ऐसा नेटवर्क तैयार होगा कि वह लोकतन्त्र की सभी संस्थाओं पर काबिज हो जाएगा. भारत की उच्च न्यायपालिका में ऐसे परिवारों का एक नेटवर्क दिखाई भी देने लगा है, जहां से अमूमन सारे न्यायधीश नियुक्त किए जा रहे हैं. कमोबेश यही हाल राजनीतिक पार्टियों का भी हो सकता है, जो कि बिना इन खास उच्च जातीय-वर्गीय परिवारों की मदद के, सत्ता हासिल ही नहीं कर पाएंगी, क्योंकि अखबार, मीडिया आदि पर ऐसे ही कुछ परिवारों का प्रभुत्व स्थापित हो जाएगा. ऐसी परिस्थिति में कोई भी पार्टी, भले ही वह सामाजिक न्याय या फिर समाजवाद का झण्डा उठाए हुए हो, राजनीतिक सत्ता हासिल करके, वास्तविकता में इन्हीं इलीटों के हित में ही कार्य करेगी.

अर्थव्यवस्था की दृष्टि से अगर शादियों को देखा जाये तो ये घर-परिवार की धन-सम्पति पर गहरा प्रभाव डालती हैं. भारत में शादियों से जुड़ी दहेज प्रथा, जो कि कानूनन अपराध होने के बावजूद तेजी से बढ़ रही है, धन-सम्पदा के कुछ एक परिवारों के हाथों में इकट्ठा होते चले जाने में मदद कर रही है. उच्च वर्गों में व्याप्त सजातीय शादियां धन-सम्पदा के वितरण में रुकावट पैदा कर रही हैं, जिसका आने वाले समय में अर्थव्यवस्था पर अच्छा खासा दुष्प्रभाव पड़ता हुआ दिखाई देगा. भारत में अब इलीट मेट्रिमनी डॉट कॉम जैसी साइट्स हैं, जो अमीर परिवारों के बीच रिश्ता करा रही हैं. इन शादियों के विज्ञापन में जाति एक इंपॉर्टेंट फैक्टर नजर आता है.

अपनी जाति के अंदर ही, कुछ चुने हुए अमीर परिवारों के बीच हो रहीं सजातीय शादियां आने वाली पीढ़ियों में भी असमानता को हस्तांतरित कर रही हैं. इससे हो यह रहा है कि आने वाली पीढ़ियों में कुछ लोग बहुत ही अमीर पैदा होंगे, तो ढेर सारे बहुत गरीब. जो अमीर पैदा होंगे, वो शिक्षा, स्वास्थ्य आदि का बेहतरीन इस्तेमाल करेंगे, जबकि निम्न जाति-वर्ग में पैदा होने वाले वैसी ही सुविधाओं से महरूम रहेंगे.

धीरे-धीरे हम एक ऐसी व्यवस्था की तरफ बढ़ते चले जाएंगे, जो काफी हद तक आज भी कायम है, जहां किसी खास परिवार में जन्म लेना ही जीवन की दिशा तय कर देगा. ऐसी व्यवस्था की एक एक्स्ट्रीम सिचुएशन की तरफ इशारा करते हुए युवाल नोवा हरारी अपनी किताब ‘इक्कीसवीं सदी के इक्कीस चैप्टर’ में संभावना व्यक्त करते हैं कि हो सकता है कि कुछ सुपर अमीर परिवार के लोग बायो टेक्नोलॉजी में हो रहे शोध की मदद से अपने लिए ऐसी महंगी दवाएं ईजाद करा लें, जिससे कि उनकी आयु ही बहुत लंबी हो जाये. (पढ़िए हरारी की किताब की बिल गेट्स द्वारा की गई समीक्षा.)

सजातीय शादियों का स्वास्थ्य पर असर

जनवरी 2015 में जातिगत असमानता के मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर चिकित्सा जगत की विश्व प्रसिद्ध शोध पत्रिका ‘द लैंसेट’ में बहस हुई. उसका सार यह निकला कि आर्थिक असमानता के साथ-साथ जातिगत असमानता भी मानव स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डाल रही है. उक्त बहस के अनुसार उच्च जाति के लोगों की तुलना में निचली जाति के लोगों में बुढ़ापा जल्दी आ जाता है, जेनेटिक बीमारियों, बचपन का परिवेश और सामाजिक अवसर इसके पीछे के तीन कारण चिन्हित किए गए, जिनके मूल में जाति-व्यवस्था है. जाति को टिकाए रख रहीं सजातीय शादियां, जेनेटिक बीमारियों को जिंदा रखने में सहायक हैं. इससे जुड़ा सामाजिक भेदभाव जहां बचपन को खराब करता है, वहीं इसे संबंधित गरीबी लोगों की उम्र कम कर रही है. क्योंकि लंबे समय तक गरीबी का सामना करने से निचली जातियों के लोग की जीवन प्रत्यासा अपने आप कम हो जाती है.

इसे सीधे शब्दों में यूं समझा जाए कि ऊंची जातियों के लोग ज्यादा समय तक जिंदा रहेंगे, जबकि नीचे की जातियों के लोग कम उम्र पूरा करके ही गुजर जाएंगे.

इस क्रम में यदि निचली जाति के नेताओं और बुद्धिजीवियों को उदाहरण के लिए लिया जाये तो वे अपने समकक्षीय उच्च जातीय नेताओं की तुलना में जल्दी मर गए. इस तरह की घटना को किसी षड्यंत्र से जोड़ देने की प्रवृत्ति के कारण सामाजिक आंदोलनों का ध्यान भी इस तरफ नहीं जा पा रहा है.

इसके अलावा, एक ही जाति के अंदर शादियां करने से लोगों में जेनेटिक बीमारियों की चपेट में आने का ज्यादा खतरा रहता है. शोध पत्रिका लैंसेट के ही अनुसार, सजातीय शादियों से कुछ जातियों मधुमेह, तनाव, मानसिक बीमारियों, हृदय की बीमारियों, स्पाइनल कॉर्ड की बीमारियां, जन्मांधता और कुछ खास कोशिकीय बीमारियां होने का ज्यादा खतरा रहता है.

जाति के अंदर शादी: दो हजार साल पुरानी बीमारी

भारत की जाति-व्यवस्था पर जेनेटिक्स में हुए हालिया शोध बताते हैं कि आज की जाति-प्रथा के मौजूदा स्वरूप की शुरुआत लगभग दो हजार साल पहले हुई. लगभग 70 जनरेसन पूर्व हमारे पुरखों ने अलग-अलग बिरादरी में शादी विवाह करना बन्द कर दिया, जिससे सजातीय विवाह से लैस जाति-प्रथा के मौजूदा स्वरूप का जन्म हुआ.

उपरोक्त बहस को मद्देनजर रखते हुए, अब सवाल उठता है कि क्या लोग दो हजार साल पहले की गयी अपने पूर्वजों की गलती को सुधारने के लिए तैयार हैं? हालांकि, नितिन भारती इस दिशा में आश्वस्त हैं, लेकिन उनका शोध इस दिशा में गवाही नहीं देता.

(लेखक जेएनयू के राजनीतिक अध्ययन केंद्र से ‘बढ़ती आर्थिक असमानता’ पर पीएचडी कर रहे हैं)

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