युद्ध में रणनीतिक होड़ कुछ कामयाबियों और नाकामियों की आती-जाती हवा के रुख से आसानी से दब नहीं सकती. समस्या हमेशा सही अंदाजा लगाने की होती है, ताकि जानकार फैसले किए जा सकें कि कितनी और किस तरीके से बल का प्रयोग करना चाहिए. रूस ने यूक्रेन का मोर्चा तबाह करने के लिए तोप और मिसाइल ताकत का इस्तेमाल किया और करीब-करीब समूचे डॉनबास इलाके पर कब्जा जमा लिया. एक असहज रणनीतिक चुप्पी फैली हुई है और लंबे टकराव की फिजा साफ-साफ बनी हुई है.
यही वक्त है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस मुद्दे पर अपना रुख स्पष्ट करे और भारत वैश्विक शांति बहाल करने के इस प्रयास में अगुआई कर सकता है.
बड़े पैमाने के एटमी युद्ध का खतरा
ऊपरी तौर पर तो यह दिखता है कि रूस की सैन्य कामयाबियों ने एटमी हथियारों के इस्तेमाल की आशंका को घटा दिया है.
हालांकि, उनके इस्तेमाल का खतरा तब तक बना हुआ है, जब तक उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) यूक्रेन को राजनैतिक और रणनीतिक समर्थन जारी रखता है. एटमी हथियारों के इस्तेमाल के छुपे खतरे को हल्के में नहीं लेना चाहिए, भले उसकी आशंका सबसे कम आंकी जा रही हो. परंपरागत युद्ध पर भरोसा, कामयाबी का ख्याल, दोनों पक्षों की जीत और हार में ही एटमी हथियारों के खतरे के बीज छुपे हैं. यूक्रेन के पास कोई एटमी हथियार नहीं हैं और यह भी संभावना नहीं के बराबर है कि नाटो जवाब में एटमी हथियारों का इस्तेमाल करेगा. लेकिन दूसरी तरफ रूस की एटमी धमकी के जवाब में नाटो का जवाब क्या होना चाहिए और एटमी हथियारों के इस्तेमाल के बारे में क्या रुख होना चाहिए? इसका कोई आसान-सा जवाब नहीं है. दरअसल, पारंपरिक युद्ध में जुडऩे से लेकर जवाबी एटमी कार्रवाई और यहां तक कि औपचारिक विरोध तथा कड़े आर्थिक प्रतिबंध तक संबंधित पक्षों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए कोई सुखद अंत का वादा नहीं करते.
पारंपरिक युद्ध में उलझने या जवाबी एटमी कार्रवाई दोनों में एटमी हथियारों के अकल्पनीय इस्तेमाल का खतरा है, जो समूची मानव जाति के वजूद के लिए खतरा बन सकता है. हालांकि न्यूक्लियर विंटर का सिद्धांत अमेरिका और रूस ने अभी स्वीकार नहीं किया है, लेकिन उसकी वैज्ञानिक सच्चाई बनी हुई है. सच यह है कि इस सिद्धांत ने भारी एटमी हमलों पर आधारित एटमी रणनीति के खतरे के प्रति आगाह किया है, क्योंकि उसके दीर्घावधिक पर्यावरण नतीजे आत्मघाती हो सकते हैं-सिर्फ संबंधित पक्षों के लिए ही नहीं, पूरी मानवता के लिए.
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भारत को जरूर अगुआई करनी चाहिए
अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अपनी आवाज उठानी चाहिए और यूक्रेन युद्ध को फौरन खत्म करने की अपील करनी चाहिए. उसे ऐसे वक्त में कतई चुप नहीं रहना चाहिए, जब बड़ी महाशक्तियों की राजनीति वैश्विक शांति के लिए खतरा बन रही है और बदतर यह कि पूरी मानव जाति के लिए खतरा बन रही है. भारत को पहल करनी चाहिए क्योंकि वह बढ़त की स्थिति में है. भारत की घोषित विदेश नीति किसी भी खेमे से जुडऩे की छवि से बचने की कोशिश करती रही है. हालांकि भारत के चीन से रिश्ते खट्टे हैं और उसमें सुधार वैश्विक राजनीति में नई दिल्ली के रुख पर ही निर्भर है.
आदर्श तो यह होता कि भारत के रिश्ते अमेरिका और चीन आज जैसे हैं, उससे बेहतर होने चाहिए. रिश्तों की इस बनावट का चाहे जैसा तेवर हो, उससे भारत को वैश्विक राजनीति में तीसरी ताकत की तरह आगे बढऩे का मौका मिल जा सकता है. ऐसा गुट रजामंद अंतरराष्ट्रीय कायदों का उल्लंघन करके बल प्रयोग को रोकने की मांग करना होगा और शांति की आवाज का प्रतिनिधित्व करना होगा. उसे रूस और नाटो से यूक्रेन युद्ध के मामले में किसी फौरी उकसावे में पहले एटमी हथियारों का इस्तेमाल न करने का आह्वान करना चाहिए. ऐसे कदम के बाद सभी एटमी ताकतों से पहले इस्तेमाल न करने का वैश्विक वादा लेना चाहिए.
ऐसे आंदोलन को अपनी आवाज देने वाले देशों की संख्या इतनी ज्यादा हो सकती है कि उससे महाशक्तियों के बीच जारी संघर्ष में फर्क पड़ सकता है. ऐसी ताकत दरअसल गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नाम) की शक्ल में मौजूद है. हालांकि अपने मुख्य क्षेत्र वैश्विक शांति से वह मौन हो गया है. इस निष्क्रियता की वजह आंदोलन में मतभेद हैं. भारत को इस मतभेद को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए. गुटनिरपेक्षता को दोबारा जिंदा करने का अपील भारत के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) शिवशंकर मेनन फॉरेन अफेयर्स पत्रिका में लिखे अपने लेख में दे चुके हैं. भारत के सत्ता प्रतिष्ठान को गंभीरता से इस पर विचार करना चाहिए.
भारत में अभी भी कोई सुरक्षा रणनीति नहीं
यह विचार अहिंसा के प्रति भारत की राजनैतिक प्रतिबद्धता पर आधारित है. रूस के आक्रमण को भारत का अनदेखा करना अहिंसा के प्रति बेवफाई की राजनैतिक कार्रवाई है, जो व्यावहारिक राजनीति में जायज कही जा सकती है. विदेश नीति के ऐसे रुख से वैश्विक शांति का मकसद नहीं सधता है और यह सहयोग पाने की भारत की क्षमता के लिए भी अनुकूल नहीं है. तीसरी ताकत में बड़ी भूमिका निभाना दरअसल एक राजनैतिक आकांक्षा और पसंद है. यूक्रेन युद्ध राजनैतिक व्यावहारिकता के लिए खतरे की घंटी की तरह देखा जाना चाहिए और भारत की भूमिका सोची-समझी पसंद के नाते होनी चाहिए. उसका वक्त अब आ गया है.
यह पसंद राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (एनएसएस) का हिस्सा होनी चाहिए, जो लंबे समय से लंबित है. इसके लिए बनाई गई एनएसए की अगुआई वाली कमेटी बेशक उसके काबिल नहीं है. उसके एक महत्वपूर्ण सदस्य, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) की नियुक्ति सात महीने गुजर जाने के बाद भी नहीं हो सका है. इस कमेटी की ऐसी जिम्मेदारी के लिए नाकाबिलियत तभी समझ में आ गई थी, जब उसे इसकी रूप-रेखा को तैयार करने को कहा गया था. यही काम तो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड (एनएसएबी) का है. अगर वह हो नहीं चुका है, तो कम से कम अब उसे यह दायित्व सौंप देना चाहिए. एनएसएबी को बहु-विषयक संस्था के रूप में पेश करने की जरूरत होगी, जो फिलहाल वह नहीं है.
भारत के राजनैतिक रुझान से संबंधित फैसले अमल करने वालों पर नहीं छोड़ा जा सकता, जो तब-अब, यहां-वहां के सिद्धांतों के कैदी हैं. फिर, यकीनन एनएसएस को देश की राजनैतिक दिशा को तय करने रामवाण नहीं माना जा सकता. लेकिन उसके बिना राष्ट्रीय रणनीति की योजना प्रक्रिया के विभिन्न पहलू, खासकर मिलिट्री रणनीति बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाती है. एनएसएस तय करने के लिए भारत की राजनैतिक ईच्छा को मजबूत करने की दरकार है. एनएसएबी की मौजूदा कमजोरियों को फौरन दूर किया जाना चाहिए. यह प्रतिभा के उपलब्ध प्रचूर खजाने से आसानी से किया जा सकता है, बशर्ते चयन संवैधानिक प्रतिबद्धता के आधार पर किया जाए, न कि व्यक्तिगत वफादारी के आधार पर.
वैश्विक भू-राजनैतिक खतरे भारत के विकास और प्रगति में बाधक हो सकते हैं. गंवाया वक्त कभी वापस नहीं पाया जा सकता. अब वक्त है कि वैश्विक राजनीति में भारत की भूमिका मजबूत करने के लिए जाग उठा जाए.
(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज के डायरेक्टर हैं; वे नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटेरिएट के पूर्व सैन्य सलाहकार भी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी है)
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