जैसे-जैसे भारत में राष्ट्र के नाम को लेकर बहस तेज़ होती जा रही है, सीमा पार पाकिस्तान में भी इसे स्वीकार करने वाले मिल गए हैं, जहां अगर नाम बदलकर भारत कर दिया जाए तो बहुत खुशी होगी.
सीमा के दोनों ओर सड़कों और शहरों के नाम बदलते रहते हैं, लेकिन यह भारत के लिए दुनिया भर में अपनी प्राथमिक पहचान से दूर जाने का एक बड़ा कदम होगा.
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार के पास बदलाव को आगे बढ़ाने के अपने कारण हो सकते हैं, लेकिन 1947 से पाकिस्तान चाहता है कि ‘इंडिया’ का नाम ‘भारत’ रखा जाए. कथित तौर पर, पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा देश का नाम ‘हिंदुस्तान या भारत’ नहीं रखे जाने से नाराज़ थे. जिन्ना की व्याख्या यह थी कि ‘इंडिया’ न केवल औपनिवेशिक विरासत को दर्शाता है बल्कि यह भी दर्शाता है कि उपमहाद्वीप के बड़े देश को नवनिर्मित पाकिस्तान के बजाय ऐतिहासिक विरासत में मिली है. जिन्ना के लिए यह नई दिल्ली की एकतरफा शक्ति का प्रतिनिधित्व करता था. जिन्ना के डर को बाद की सरकारों तक पहुंचाया गया, जिन्होंने देखा कि कैसे ‘इंडिया’ नाम अपने दुश्मन के लिए और पाकिस्तान के हितों के खिलाफ काम करता है.
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‘इंडिया’ पर विवाद
आज़ादी के बाद के शुरुआती वर्षों में पाकिस्तान को यह नुकसान हुआ कि इंडोनेशिया, मलेशिया और मिस्र जैसे कई मुस्लिम राज्यों ने इसे भारत को तोड़ने के लिए ब्रिटिश औपनिवेशिक चाल के हिस्से के रूप में देखा.
जबकि जिन्ना सहित पाकिस्तान के पूर्व नेतृत्व ने मुसलमानों के लिए एक राज्य स्थापित करने और अपनी मुस्लिमता पेश करने के लिए संघर्ष किया, वहीं भारत को धर्मनिरपेक्ष नहीं बल्कि उपमहाद्वीप के हिंदुओं के लिए एक राज्य के रूप में चित्रित करने का एक समानांतर प्रयास किया गया. दरअसल, यह उस फॉर्मूले का हिस्सा था जिसके आधार पर उपमहाद्वीप का विभाजन किया गया था. हालांकि, राजनीतिक विभाजन एक अलग पहचान बनाने में सफल नहीं हुआ जो स्वाभाविक रूप से पाकिस्तान के अस्तित्व का कारण स्थापित कर सके — एक ऐसा राज्य जिसका गठन इसलिए हुआ क्योंकि उपमहाद्वीप में मुसलमान हिंदू राज्य में नहीं रह सकते थे. तथ्य यह है कि सांप्रदायिक हिंसा की लगातार घटनाओं के बावजूद, लाखों मुसलमान भारत में ही रुके रहे और इसे अपना मानते रहे, इसने लगातार सामाजिक-राजनीतिक चुनौती पेश की.
भारत के लिए यह सांप्रदायिक संबंधों को प्रबंधित करने और खुद को एक सफल धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में प्रस्तुत करने के बारे में था. पाकिस्तान के लिए, इसका मतलब था कि भारत विफल नहीं हो रहा था, जिससे यह संकेत मिलता है कि पाकिस्तान को मुस्लिम आबादी के लिए हिंदू बहुसंख्यकवाद के विकल्प के रूप में नहीं देखा गया था. कुछ मायनों में दोनों देशों के बीच ‘इंडिया’ को लेकर लड़ाई एक-दूसरे को खत्म होते देखने की चाहत से जुड़ी है.
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भारतीय उपमहाद्वीप की विरासत
पिछले 76 वर्षों से पाकिस्तान भारत के साथ अस्तित्व की लड़ाई में लगा हुआ है जो सैन्य सुरक्षा से परे तक फैली हुई है. यह पड़ोसी देश के रूप में लगातार अपनी उपयोगिता साबित करने के बारे में है. मुझे वर्षों पहले लंदन में पाकिस्तान के रक्षा अताशे के साथ हुई बातचीत की याद आ रही है, जो बाद में इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस में महानिदेशक (विश्लेषण) बने. मुझे ब्रिगेडियर जावेद आलम का फोन आया और पूछा गया कि मैं क्या कर रही हूं. मैंने जवाब दिया कि मैं अपनी डॉक्टरेट थीसिस, ‘threat perception in the Indian Subcontinent’ शीर्षक वाले चैप्टर पर काम कर रही थी. उनकी आवाज़ में हैरानी थी क्योंकि उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं सोचती हूं कि उपमहाद्वीप भारतीय है. मेरा जवाब था कि यह हिंद महासागर की तरह ही भारतीय है और मैंने इसे भारतीय उपमहाद्वीप कहा था, भारत का उपमहाद्वीप नहीं.
हालांकि, तब मैंने इस बातचीत को नज़रअंदाज कर दिया था, बाद में मुझे एहसास हुआ कि यह कोई आकस्मिक टिप्पणी नहीं थी जो रक्षा अताशे ने की थी, बल्कि कुछ ऐसा था जो लगातार प्रतिष्ठान को परेशान कर रहा था. भारत को पूरी तरह से एक ऐतिहासिक विरासत का प्रतिनिधित्व करने की अनुमति कैसे दी जा सकती है, खासकर जब पाकिस्तान उसकी जगह ले सकता है.
1997 में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता और वकील एतज़ाज़ अहसन ने अपनी किताब ‘द इंडस सागा एंड द मेकिंग ऑफ पाकिस्तान’ लिखकर इसका जवाब दिया. उनकी किताब का तर्क यह था कि यह पाकिस्तान ही था जो सिंधु सभ्यता का प्रतिनिधित्व करता था जिसे भारत ने अपने नाम के साथ दावा किया था और इतिहास का एक निश्चित संस्करण पेश किया था. यह पूरी तरह से झूठ नहीं था क्योंकि ‘सभी नदियों का जनक’ या ‘अबसीन’, जैसा कि पश्तून और अफगान सिंधु नदी कहते हैं, पाकिस्तान से होकर बहती है.
बेशक, इस दावे में बहुत बड़ा अंतर है, क्योंकि राज्य के इतिहासकारों के पास सिंधु सभ्यता और इसकी संस्कृति के किसी भी पहलू का स्वामित्व नहीं है. राज्य की कथा में केवल अरब आक्रमण या मध्य एशियाई आक्रमण का ही स्वामित्व है. सिंधु के अभिन्न अंग बौद्ध और हिंदू कभी भी बातचीत का हिस्सा नहीं थे. हालांकि, पाकिस्तान में बड़े पड़ोसी से अधिक की पेशकश करने की चाहत हमेशा से रही है.
इंडिया में ‘भारत’ पर बहस एक समान रूप से विशिष्ट पहचान की कल्पना करती है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस विचार को पाकिस्तान में समर्थन मिलता है क्योंकि यह समावेशी और बड़ी सिंधु सभ्यता का प्रतिनिधि होने के बजाय बहुसंख्यक समुदाय की विशिष्ट पहचान का प्रतीक है.
अगर देश का नाम बदला जाता है, तो यह पाकिस्तान के लिए एक इच्छा पूरी होने जैसा होगा — एक संकेत कि ‘भारत’ सभी का प्रतिनिधित्व नहीं करता है. अफसोस की बात है कि यह उपमहाद्वीप में इतिहास और स्मृति को कमज़ोर करने वाली बहुसंख्यकवादी राजनीति के बारे में है, जिसके गहरे परिणाम होंगे.
(आयशा सिद्दीका किंग्स कॉलेज, लंदन के डिपार्टमेंट ऑफ वार स्टडीज में सीनियर फेलो हैं. वे मिलिट्री इंक की लेखिका हैं. उनका एक्स हैंडल @iamthedrifter है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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