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Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमत‘चिप’ उत्पादन की वैश्विक होड़ में भारत भी शामिल, क्या उसे अकेले ही दौड़ लगानी चाहिए

‘चिप’ उत्पादन की वैश्विक होड़ में भारत भी शामिल, क्या उसे अकेले ही दौड़ लगानी चाहिए

चिप उत्पादन के लिए चाहिए जटिल व्यवस्था क्योंकि उसके लिए सामग्री रूस और यूक्रेन सप्लाइ करते हैं, उसके यंत्र जापान से आते हैं, फोटोलिथोग्राफी का यंत्र बनाने में डचों को महारत हासिल है.

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भारत ने चिप उत्पादन की होड़ में शामिल होने का फैसला करके ‘औद्योगिक नीति’ के क्षेत्र में लंबे समय बाद बड़ा दांव खेला है. सरकार के निर्देश पर इस तरह का नीतिगत हस्तक्षेप दशकों पहले तभी फैशन से बाहर हो गया था जब मुक्त बाज़ार का मंत्र गूंजने लगा था. लेकिन कोविड-यूक्रेन की वजह से सप्लाई में अड़ंगा लगने लगा और बड़ी अर्थव्यवस्थाएं जब रणनीतिक खतरों के प्रति सजग हुईं तब इस तरह के हस्तक्षेप फिर से शुरू हो गए. आशंका यह है कि दुनिया में चिप की सप्लाई में 50 फीसदी से ज्यादा की हिस्सेदारी करने वाले ताइवान पर चीन ने अगर हमला कर दिया तब भयावह परिस्थिति यह बन सकती है.

सिलिकन के पत्तों पर खुदी चिप्स यानी ‘इंटीग्रेटेड सर्किट’ वाहन से लेकर टेलिकॉम गियर, रक्षा उपकरणों से लेकर सौर ऊर्जा पैनल तक हर तरह के मैन्युफैक्चरिंग उद्योग की कुंजी हैं. कृत्रिम खुफियागीरी और इलेक्ट्रिक कारों, जिनमें पेट्रोल वाली कारों के मुक़ाबले ज्यादा चिप्स लगती हैं, के दौर में वे और अहम हो जाएंगी.

लेकिन जबर्दस्त प्रतिस्पर्द्धी शोध और बेहद महंगी उत्पादन व्यवस्था के लिए जितनी भारी रकम चाहिए कि चिप निर्माण कारोबार आधा दर्जन कंपनियों में ही सिमट गया है और दुनिया में उनका वर्चस्व कायम है. आज तमाम सरकारें चिप्स के निर्माण पर अरबों डॉलर कुर्बान कर रही हैं ताकि उसके बाजार में उनकी हिस्सेदारी बढ़े. अमेरिका ने इसके लिए कुल 52 अरब डॉलर की सहायता की पेशकश की है. यूरोपीय संघ ने पहले 30 अरब डॉलर की जो पेशकश थी उसे बढ़ाने जा रहा है. चीन चिप्स के उत्पादन पर हर वर्ष करीब 15 अरब डॉलर की सब्सिडी दे रहा है. सैमसंग नयी चिप फैक्टरियों के निर्माण पर 220 अरब डॉलर निवेश करने की योजना बना रही है.


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अगले एक दशक में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और चिप्स आधारित उत्पादों का दुनिया के सबसे बड़े बाजारों में शुमार होने जा रहा भारत क्या अपने भरोसे रह सकता है? उसने पूंजीगत सब्सिडी के रूप में अभूतपूर्व 10 अरब डॉलर की पेशकश की है. क्या यह काफी होगी? इस तरह के बड़े खेल में आत्मनिर्भरता पर जोर देना ठीक होगा या नेटवर्क का हिस्सा बनना?

चिप उत्पादन के लिए चाहिए जटिल व्यवस्था क्योंकि उसके लिए ऐसे ‘टूल्स चाहिए जो उसकी फैक्टरियों को चला सकें (जिसमें जापान नेतृत्व कर रहा है), सिलिकन ‘वेफर्स’ पर सर्किट्स को फोटोप्रिंट करने वाले फोटोलिथोग्राफी यंत्र बनाने में डचों को महारत हासिल है, और सामग्री रूस और यूक्रेन सप्लाई करते हैं, जैसे नियोन गैस और पाल्लाडियम. चीन ने अमेरिका का मुक़ाबला करने के लिए पहली ही कुछ खनिज तथा ‘रेयर अर्थ’ हासिल कर लिये थे. अमेरिका ने 10 दूसरे देशों को घेरकर खनिज सुरक्षा सहयोग संधि कर ली है, जिससे भारत को अलग रखा गया है.

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इसका अर्थ है कि एक-दूसरे पर निर्भरता अनिवार्य है. अमेरिका ‘लॉजिक चिप डिजाइन’ में अग्रणी है, दक्षिण कोरिया ‘मेमरी चिप’ में आगे है. इंटेल और दूसरी कंपनियां ‘वेफर्स’ ताइवान से तैयार कराकर मंगाती हैं. जापान का चिप्स उद्योग अभी भी पुरानी तकनीक पर आधारित है (इसका बाजार अभी भी कायम है). अमेरिका में इंटेल ने 10 ‘एनएम’ (एक मिलीमीटर का एक लाखवां भाग) की सीमा अभी नहीं पार की है, जबकि ताइवान की सेमीकंडक्टर उत्पादन कंपनी और सैमसंग 3 ‘एनएम’ के चिप्स बनाती हैं. चीन ने अभी 7 ‘एनएम’ की सीमा तोड़ी है जबकि जापान और अमेरिका मिलकर 2 ‘एनएम’ की तकनीक तैयार करने में जुटे हैं.

भारत क्या कर रहा है? चिप उत्पादन में इसका दांव व्यापक, प्रोत्साहन केंद्रित इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन का एक हिस्सा है. मोबाइल फोन के उत्पादन में शुरुआती सफलता ने उसके जोश को बढ़ाया है. यह देखना बाकी है कि वह लैपटॉप, हैंडसेट आदि ‘डिस्प्ले यूनिटों’ के उत्पादन के क्षेत्र में भी सफल होता है या नहीं. भारत में उत्पादन शुरू करने वाले चिप उत्पादक मझोले स्तर के चिप्स (28 एनएम) के उत्पादन पर ज़ोर दे सकते हैं जिनका उपयोग ऑटोमोबाइल उद्योग और कुछ स्मार्ट फोनों में होता है.

जाहिर है, फुल स्पेक्ट्रम बनाम स्पेशलाइजेशन वाली बहस जारी है. चिप डिजाइन के मामले में देश मजबूत स्थिति में है और चिप निर्माण के श्रम आधारित पहलुओं (एसेंब्लिंग, टेस्टिंग और पैकेजिंग) के मामले में उसे स्वाभाविक बढ़त हासिल है. जैसा कि उसने मोबाइल सेटों के मामले में किया है उसी तरह इस मामले में भी ‘डाउनस्ट्रीम प्रोडक्ट एसेंबली’ का उपयोग कर सकता है. पुर्जे बनाने वाले या सब-एसेंबली मेकर्स एसेंबली लाइंस की मांग पूरी करने के लिए निवेश कर सकते हैं. समय के साथ वैश्विक संपर्कों के बूते पूरी व्यवस्था विकसित हो सकती है.

सरकार को फुल-स्पेक्ट्रम वाला रास्ता पसंद है. इसका जोर चिप्स और ‘डाउनस्ट्रीम प्रोडक्ट्स’ की आयात को खत्म करने पर है. लेकिन सामग्री और उत्पादन उपकरणों के लिए ‘अपस्ट्रीम’ आयात पर निर्भरता बनी रहेगी. और चूंकि वेफर फैब्रिकेशन प्रक्रिया के लिए पूंजी की बहुत जरूरत होती है, और तकनीक में निरंतर बदलाव के बीच उत्पादन प्रक्रिया भी महंगी है इसलिए आपको अरबों की रकम हमेशा तैयार रखनी पड़ेगी.

फिर भी, सरकार को लगता है कि वह इस खेल से अलग रहने की छूट नहीं ले सकती. कुछ ही वर्षों में हमें पता चल जाएगा कि यह अपनी पहुंच से ऊपर छलांग लगाने वाली महत्वाकांक्षा है या एक नयी राह बनाने की रणनीति.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(बिजनेस स्टैंडर्ड के विशेष व्यवस्था से)


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