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Tuesday, 3 December, 2024
होममत-विमतINDIA गठबंधन ने पत्रकारिता से पीठ नहीं मोड़ी, बस मदारी के मजमे में जुड़ने से इनकार किया है

INDIA गठबंधन ने पत्रकारिता से पीठ नहीं मोड़ी, बस मदारी के मजमे में जुड़ने से इनकार किया है

जो पत्रकारिता दंगे और भीड़-हत्या करवाये और नफरत फैलाये उसकी सरेआम लानत-मलामत होनी चाहिए. अगला दम ये हो कि जो ऐसे नफरती पत्रकारों के नाम पे-चेक काटते हैं उनकी नाम ले-लेकर लानत-मलानत की जाये

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मैं शेखर गुप्ता, राजदीप सरदेसाई, करण थापर और रूबेन बनर्जी को पत्रकारिता के बारे में क्या सिखा सकता हूं भला ? कुछ भी नहीं. ये सभी देश के प्रतिष्ठित पत्रकारों में गिने जाते हैं. इनमें से हरेक के आलोचक भी हैं. लेकिन, ये आलोचक भी इनकी पत्रकारिता को गंभीरता से लेते हैं. जाहिर है, फिर मीडिया इंडस्ट्री से जुड़ी किसी बात पर अगर इन पत्रकारों की प्रतिक्रिया एक जैसी रहती है तो मैं आम तौर पर उसपर टीका-टिप्पणी करना जरूरी नहीं समझता लेकिन जब ये प्रतिष्ठित पत्रकार राजनीति और नैतिकता की बड़े सिद्धांतों के हवाले से कोई बात कहते हैं तो मुझे लगता है इनके दावों को परख लेना ठीक होगा.

INDIA गठबंधन ने टीवी के 14 पत्रकारों के बहिष्कार का ऐलान किया तो इन सभी ने और बाकी बहुत से पत्रकारों ने इसका विरोध किया. इंडियन एक्सप्रेस में यह कहते हुए एक धारदार संपादकीय छपा कि 28 पार्टियों का गठबंधन पत्रकारों की इस सूची को वापस ले. ऐसे में इन पत्रकारों के तर्कों पर गंभीरता पूर्वक सोच-विचार करना बनता है क्योंकि चाहे किसी भी रूप में देखें, ये नामी-गिरामी पत्रकार ना तो मौजूदा सत्ता-तंत्र के पिट्ठू हैं और ना ही `बहिष्कृत` करार दिये गये पत्रकारों के समर्थक.

इन पत्रकारों को खूब ख्याल है कि टेलीविजन के उन 14 एंकर्स की `पत्रकारिता` की तरफदारी नहीं की जा सकती. इस बात का ध्यान रखते हुए उन्होंने ‘बहिष्कार’ के विरोध में तर्क दिये हैं. जाहिर है, इन पत्रकारों की प्रतिक्रिया आज-कल के उन पत्रकारों से एकदम अलग है जिन्होंने ‘बहिष्कार’ के विरोध में सुर तो मिलाया है लेकिन अपने विरोध को जायज ठहराने का कोई तर्क नहीं दिया. तर्कहीन ऐसी प्रतिक्रियाओं में न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन का वह दिल दहलाऊ बयान भी शामिल है जिसमें विपक्ष के बहिष्कार के कदम की तुलना आपातकाल के दिनों से की गई है.

बहिष्कार के कदम पर उठा विवाद हाल-फिलहाल थमता हुआ दिख रहा है. रवीश कुमार सरीखे कई अन्य पत्रकारों ने दमदार कारण गिनाते हुए बताया है कि बहिष्कार के कदम का विरोध क्यों गलत है. याद रहे INDIA गठबंधन ने स्पष्ट किया है कि ‘बहिष्कार’ का कदम स्थायी नहीं बल्कि वक्ती तौर पर असहयोग में उठाया गया कदम है. अब वक्त आ गया है जब बहिष्कार के कदम को गलत ठहराने के पक्ष में दिये गये तर्कों की गांठ-गिरह खोली जाये और उनकी परीक्षा कर ली जाये क्योंकि इन तर्कों में कुछ के निहितार्थ दूरगामी हो सकते हैं.

बहिष्कार के आलोचको ने तीन तरह के तर्क दिये हैं. इनमें पहला है नैतिकता के आधार पर दिया गया ये तर्क कि: चुनिन्दा एंकर्स के सार्वजनिक बहिष्कार के कृत्य में कुछ ना कुछ अंदरूनी तौर पर ही गलत है. दूसरा है भावी नतीजों की हिदायत देता तर्क कि: बहिष्कार के इस कदम से एक सिलसिला सा चल निकलेगा जिससे अच्छाई से ज्यादा बुराई होने की आशंका है. तीसरा है रणनीतिक जमीन से दिया हुआ तर्क कि: मीडिया से निपटने का यह कोई स्मार्ट तरीका नहीं है.


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नैतिकता का तर्क जायज नहीं

पहले तर्क का सार ये है कि सार्वजनिक बहिष्कार सरीखा कदम उठाना उदारवाद और लोकतंत्र के जज्बे के खिलाफ है जबकि विपक्ष इन्हीं की दुहाई देता है. इंडियन एक्सप्रेस ने इसी आधार पर बहिष्कार के विपक्ष के कदम पर कड़ी चोट करते हुए लिखा है: ‘नफरत की दुकानदारी को नजायज ठहराने की तमाम नेकनीयत बयानबाजियों, नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोलने के ऊंचे ख्याल और देश की घायल सेक्युलर तथा लोकतांत्रिक साख को बहाल करने के दावों के बावजूद इस फैसले के भीतर बड़े गहरे में पैठी असहिष्णुता को छिपाया नहीं जा सकता’. ‘लगाम कसने’ और ‘खग-भाषा’ की राजनीति करने का आरोप लगाते हुए इंडियन एक्सप्रेस ने बहिष्कार के फैसले को ‘वाद-विवाद-संवाद’ की संभावनाओं की राह का रोड़ा बताया है. दिप्रिन्ट के शेखर गुप्ता ने भी बहुत कुछ इसी भाव-संवेदना से लबरेज तर्क दिये हैं.

अगर बारीकी से देखें तो नैतिकता के आधार पर बहिष्कार को नाजायज ठहराने वाला यह तर्क अभिव्यक्ति की आजादी के तर्क का दुरुपयोग जान पड़ता है. अपने आप में ये कहना बड़ा विचित्र है कि कोई उदारपंथी है तो उसे किसी चीज का चाहे वह कट्टरता, नफरत या फिर जन-संहार ही क्यों ना हो, बहिष्कार करना ही नहीं चाहिए या फिर ये कि उदारपंथी को ऐसी बातों के होने बावजूद इनके बहिष्कार का आह्वान नहीं करना चाहिए.

अभिव्यक्ति की आजादी के सबसे अव्वल पैरोकार ब्रिटिश दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल (सबसे अव्वल इसलिए कि मिल के मुताबिक अभिव्यक्ति की आजादी के भीतर असत्य-भाषण और आघातजनक बातें कहने का भी अधिकार शामिल है) ने भी स्वैच्छिक बहिष्कार को अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला नहीं माना होता. अपने होठों को सिल लेने और दूसरे की जुबान पर ताला लटकाने के बीच, दूसरों को बोलने से रोकने और दूसरे के बोलने में सहयोग ना करने के बीच एक महीन फर्क होता है. यह भी याद रहे कि जोर-जबर्दस्ती करने की ताकत रखने वाले और इस ताकत के आगे खुद को लाचार महसूस करने वाले के कृत्य के बीच अन्तर होता है.

बहिष्कार के कदम को नाजायज करार देना उचित होता अगर INDIA गठबंधन ने राजसत्ता की ताकत के इस्तेमाल से इन एंकर्स को टीवी पर कुछ बोलने से रोका होता या फिर विपक्षी गठबंधन ने इन एकर्स या फिर इनके दफ्तरों पर धावा बोला होता. किसी सार्वजनिक आयोजन से समाचार बटोर लाने के इन एकर्स के काम में विपक्ष ने अड़ंगा लगाया होता तो भी एक हद तक ऐसा कदम से असहमत हुआ जा सकता है. लेकिन, मामला ऐसा तो हरगिज़ नहीं.

संक्षेप में कहें तो: पत्रकारिता नहीं बल्कि पक्ष-कारिता का जो खुला खेल हो रहा है उसमें विपक्ष अगर भागीदार नहीं है और उसने इन भांडों के नाच में शामिल होने से इनकार किया है तो यही मानना संगत है कि विपक्ष ने ऐसा कानूनी, राजनीतिक तथा नैतिक मर्यादाओं के भीतर रहते हुए किया है. दरअसल, हर नागरिक का कर्तव्य बनता है कि वह नफरत बांटने और बेचने वालों की जमात में शामिल ना हो. किन्हीं विशेष स्थितियों में बहिष्कार बिल्कुल जायज कदम है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि महात्मा गांधी ने सांप्रदायिकता फैलाने वाले अखबारों के खिलाफ बिल्कुल ऐसे ही संदर्भ में बहिष्कार का आह्वान किया था. हां, बहिष्कार के नैतिक कृत्य को अत्यंत सावधानीपूर्वक अपने लक्ष्य की पहचान करनी होती है. साथ ही, ऐसा कृत्य खुला एवं पारदर्शी भी होना चाहिए.

यहां मुद्दे की बात बस एक ही है : क्या जिस कृत्य के बारे में यहां जिक्र हो रहा है वह बहिष्कार के काबिल है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि कहीं पत्ता भर खड़का हो और आपने इसकी प्रतिक्रिया में तलवार निकाल ली है ? इसके बारे में तो खैर, कुछ कहने की जरूरत ही नहीं. अच्छा होगा कि यहां सवाल के जवाब में फिर से इंडियन एक्सप्रेस का ही यह कहा उद्धृत कर दिया जाय कि `टीवी के घुटनाटेक एंकर्स की जुबान जहर भरी है. सूची (बहिष्कार वाली) में शामिल कई (एंकर) ऐसी शीर्षासनी पत्रकारिता करते हैं या फिर इस ढर्रे की पत्रकारिता के लिए उन्हें बढ़ावा दिया जाता है जिसमें सरकार की जी-हजूरी हो और विपक्ष की लानत-मलामत. रट्टू तोते की भांति ये एकर्स घड़ी-क्षण नफरत के बोल बरसाते हैं’. मुझे लगता है शेखर गुप्ता भी इंडियन एक्सप्रेस के इस मूल्यांकन से असहमत नहीं होंगे भले ही वे बातों की कविताई की ओट करके इन एकर्स का नाम लेने से खुद को बचा ले गये हों.

अगर इंडियन एक्सप्रेस का यह आकलन सही है तो फिर बहिष्कार के विरोध का कोई नैतिक आधार नहीं बचता. हां, विपक्षी दलों के शासन वाले राज्यों में मीडिया पर किसी तरह का हमला होता या प्रतिबंध लगता है तो बेशक मुखालिफों को इसकी आलोचना का हक है. लेकिन बहिष्कार के विपक्ष के फैसले पर तो ये बात लागू नहीं होती.


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दंगा करवाने वाली पत्रकारिता के खिलाफ

दूसरे तर्क को सबसे ज्यादा धारदार तरीके से शेखर गुप्ता ने शब्दों में बांधा है. उनके तर्क के मुताबिक बहिष्कार का ऐलान करते हुए पत्रकारों की सूची सार्वजनिक करना नैतिक रूप से गलत है क्योंकि उसके कई बुरे परिणाम सामने आ सकते हैं. एक तो इससे एक खराब नजीर कायम होती है. दूसरा पक्ष प्रतिक्रिया में ऐसी ही सूची जारी कर सकता है और इस तरह क्रिया-प्रतिक्रिया का एक सिलसिला चल निकल सकता है. दूसरे, सूची में दर्ज पत्रकारों को हमले का निशाना बनाया जा सकता है. तीसरा ये कि मीडिया में ध्रुवीकरण होगा और बहस तथा संवाद की जगह कम होती जायेगी.

खराब नजीर कायम होने की बात तो खैर सीधे-सीधे गलत है. बीजेपी पहले ही एनडीटीवी यानी एक पूरे के पूरे चैनल का जब वह स्वतंत्र हुआ करता था, बहिष्कार करके ऐसी नजीर कायम कर चुकी है. अभी हाल-हाल तक बीजेपी ने तमिल न्यूज चैनलों का बहिष्कार कर रखा था. शेखर गुप्ता की हिदायत कि `जानते-बूझते खराब नजीर नहीं कायम करनी चाहिए` किसी और के लिए होती तो अच्छा था.

किसी का नाम लेकर उस पर उंगली उठाना और धिक्कारना नैतिक लड़ाई का ही हथियार है लेकिन इसका इस्तेमाल कभी-कभार ही होना चाहिए और जब भी ऐसा हो तो पूरी जिम्मेदारी के साथ हो. लेकिन नाम लेकर अंगुली उठाने और धिक्कारने को हर मामले में खराब नहीं कहा जा सकता क्योंकि समाज की मर्यादा की रक्षा ऐसे ही बरताव से की जाती है. बड़ा साफ है कि कुछ चैनल और एंकर्स जिस दर्जे की कट्टरता और नफरत को हवा दे रहे हैं उसे `अति` का आचारण माना जायेगा. इस ढर्रे की `पत्रकारिता` दंगे और भीड़-हत्या करवा चुकी और आपसी नफरत भड़का चुकी है. बुराई की राह लगे इन लोगों के नाम ले-लेकर सार्वजनिक तौर पर इनकी लानत-मलामत होनी चाहिए. दरअसल, हमें इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए उन लोगों के भी नाम लेकर लानत-मलामत करनी चाहिए जो नफरत फैलाने में लगे इन एकर्स के नाम पे-चेक काटते हैं.

ध्रुवीकरण की चिंता ठीक है. लेकिन इस मामले में भी आलोचक एक बात लक्ष्य करने से चूक गये कि: भारत में मीडिया पहले ही एकध्रुवीय हो चुका है. भारतीय मीडिया गैर-पक्षपाती होता तो ये एक आदर्श स्थिति होती लेकिन एक ध्रुवीय होने से कहीं अच्छा है भारतीय मीडिया का दो-ध्रुवीय होना. आज की तारीख में रिपब्लिक टीवी के अर्णव गोस्वामी से बहस करने की बात किसी मजाक से कमतर नहीं है. हां, ये बात जरूर है कि आदर्श को कभी भूलना नहीं चाहिए. आदर्श की स्थिति तक पहुंचने की संभावना आज की एकध्रुवीयता की तुलना में दो-ध्रुवीयता से कहीं ज्यादा है.


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बहिष्कारः नफरत को नकारने का रास्ताआखिर को बहिष्कार के खिलाफ उस रणनीतिक तर्क को भी परख लें जो करण थापर ने दिया है. उन्हें लगता है कि पत्रकारों की सूची सार्वजनिक करना बहुत बड़ी गलती है. अगर बहिष्कार चुप्पे ढंग से होता तो कहीं ज्यादा कारगर होता. इस तर्क के साथ दो दिक्कतें हैं.

पहली ये कि अगर बहिष्कार नैतिक कृत्य है (INDIA गठबंधन ने इसे सत्याग्रह कहा है) तो फिर दो-मुंहपन या कि गुपचुप कारगुजारी जैसी किसी चीज के लिए यहां गुंजाइश नहीं. अगर कोई कृत्य नैतिक है तो उसे पारदर्शी होना चाहिए और अपने को वाजिब ठहराने के कारण सार्वजनिक करने चाहिए. दूसरे, इस बहिष्कार का कुल मकसद लोगों की नजरों में इन एंकर्स को गलत ठहराना है. अगर विपक्ष को लिए बगैर कोई बहस होती है तो दर्शक के लिए यह एक इशारा मात्र हुआ, संदेश पूरा तभी माना जायेगा जब सूची सार्वजनिक हो और बहिष्कार के कारण बताये जायें.

ये भी याद रखने की बात है कि INDIA कोई बीजेपी नहीं है. INDIA के लिए घन-गर्जन के स्वर में ऐसी घोषणा करना जरूरी है ताकि साथी-सहयोगी और हमदर्द बहिष्कार के आह्वान पर कारगर ढंग से अमल करें. हमें नहीं पता कि बहिष्कार से टीवी पर चलने वाले नफरती शो की टीआरपी नीचे आयेगी या नहीं लेकिन एक बात हुई है— भारत में टेलीविजन न्यूज की दुनिया की जो दुर्दशा हो रखी है, वह लोगों की नजरों में आ चुका है. और जो ऐसा हुआ है तो समझिए कि शुरुआत शुभ रही.

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से एक हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनका एक्स हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन : ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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