राजनीतिक दायरे में अक्सर कही जाने वाली यह उक्ति कि ‘दिल्ली की राह लखनऊ से गुज़रती है’ कई बार सही साबित हो चुकी है. अकेला उत्तर प्रदेश (यूपी) 2014 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के शानदार प्रदर्शन के लिए ज़िम्मेदार था – यहीं से पार्टी को लोकसभा में बहुमत मिला. इसलिए आश्चर्य नहीं कि 2019 में भाजपा को पराजित करने की हसरत रखने वाली हर पार्टी यूपी में गठबंधन बनाने में व्यस्त है.
बड़े ही उत्साह के साथ, दो कट्टर प्रतिद्वंद्वियों – समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) – ने 2019 लोकसभा चुनावों के लिए अपने चुनावपूर्व गठबंधन की घोषणा की. दोनों ही दल राज्य की 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. उन्होंने मात्र दो सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ी हैं. कांग्रेस पार्टी को, जिसके अध्यक्ष राहुल गांधी राज्य की अमेठी सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं, इस तरह खारिज़ किया जाना पूरे देश में मोदी-विरोधी गठबंधन तैयार करने के पार्टी के प्रयासों के लिए एक बड़ा झटका है.
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बसपा नेता मायावती ने कांग्रेस को खारिज करने के फैसले को सही ठहराते हुए देश की सबसे पुरानी पार्टी पर तीखा हमला किया. उन्होंने कहा कि कांग्रेस का सत्ता में आना भाजपा की वापसी जैसा ही होगा.
सपा प्रमुख अखिलेश यादव के साथ संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में मायावती ने कहा: ‘हमने यह जानते हुए भी कांग्रेस को शामिल नहीं किया कि आज़ादी के बाद से सिर्फ कांग्रेस ने लंबे समय तक राज किया है. उसके शासन में किसानों और समाज के विभिन्न वर्गों को कष्ट उठाना पड़ा, और भ्रष्टाचार चरम पर था. कांग्रेस की सत्ता में वापसी और भाजपा की सत्ता में वापसी एक जैसी ही बात है… कांग्रेस के साथ तालमेल करने पर वोट उसे स्थानांतरित नहीं होते, बल्कि भाजपा को चले जाते हैं, इसलिए हमने उसे अपने गठबंधन में शामिल नहीं किया है.’
यह बयान महत्वपूर्ण है क्योंकि बसपा किसानों और पारंपरिक पिछड़ा वर्गों को लक्षित करेगी, जबकि सपा अपने खुद के वोट बैंक पर ध्यान केंद्रित करेगी. इन दो वोट बैंकों के निकलने के बाद, कांग्रेस के पास ज़्यादा विकल्प नहीं रह गए हैं. भ्रष्टाचार के आरोपों से मायावती को नुक़सान नहीं पहुंचेगा – जैसा कि ऐसे आरोप कांग्रेस के लिए नुक़सानदेह साबित होते हैं – क्योंकि उनके समर्थक भ्रष्टाचार में ‘दलित की बेटी’ के शामिल होने पर सवाल नहीं करेंगे.
जहां तक सपा की बात है, कांग्रेस से 2017 के विधानसभा चुनावों में इसका गठबंधन फ्लॉप साबित हुआ था. 2012 में सपा (224 सीटें) और बसपा (80 सीटें) को मिली कुल सीटें (324) मानो 2017 में भाजपा के खाते में आ गई थीं – जब पार्टी ने 325 सीटें जीतीं.
यूपी में कांग्रेस की सीटें 2012 से ही लगातार कम हो रही हैं. इसलिए, आश्चर्य नहीं कि सपा और बसपा दोनों के कांग्रेस से किनारा करने के ठोस कारण होंगे.
यदि 2018 के विधानसभा चुनावों की बात करें तो भाजपा के खिलाफ़ अकेले लड़ी कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में प्रभावशाली जीत दर्ज़ की. मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसकी जीत ज़्यादा संतोषप्रद नहीं रही, क्योंकि इन दो राज्यों में उसे कहीं अधिक संख्या में सीटें जीतने की उम्मीद थी.
हाल के प्रदर्शन को देखते हुए, कांग्रेस पार्टी का सत्ता में वापसी की उम्मीद करना लाज़िमी है. राहुल गांधी ने गठबंधन की राजनीति में ‘अछूत’ की तरह देखे जाने के अपमान को छुपाने की भरसक कोशिश की, और कहा कि उनके मन में ‘मायावती जी, मुलायम सिंह यादव जी और अखिलेश जी के प्रति अगाध सम्मान है, और वे जो चाहें करने के लिए स्वतंत्र हैं.’
भाजपा से लड़ाई को ‘वैचारिक’ बताते हुए उनके पास यह कहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था कि ‘ज़ाहिर है हम यूपी में चुनाव लड़ेंगे, हम अपने दम पर चुनाव लड़ेंगे.’
यूपी में ‘गठबंधन’ राजनीति की हवा का बनना, भाजपा के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है. कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही सीधे मुक़ाबले में चुनावी लाभ मिल चुके हैं. सपा-बसपा का मज़बूत गठबंधन बनने के साथ ही, भाजपा का सामना बस ‘एक दल’ से रह गया है और पार्टी सभी 80 सीटों पर बहुकोणीय मुक़ाबले से बच सकती है.
भाजपा ने 2017 में यूपी में बुंदेलखंड की सभी 19 सीटों पर, और पश्चिमी यूपी की 76 में से 66 सीटों पर जीत हासिल की थी. पिछले विधानसभा चुनावों के प्रदर्शन के आधार पर देखें तो भाजपा के लिए सपा-बसपा गठबंधन का मुक़ाबला करना आसान होगा, क्योंकि मध्य और पूर्वी यूपी में कांग्रेस भी गठबंधन के वोट काटेगी.
साथ ही, इस बात पर भी संदेह है कि इन दोनों दलों के सामाजिक रूप से जागरुक जातिगत मतदाता प्रतिद्वंद्वी रही पार्टी के स्थानीय नेताओं और उम्मीदवारों को स्वीकार करेंगे, भले ही प्रदेश स्तर के नेता सार्वजनिक रूप से परस्पर भाईचारे का प्रदर्शन कर रहे हों.
आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण जातियों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन विधेयक से गैर एससी-एसटी वोट बैंक के बीच एक प्रभावी संदेश गया है कि मोदी सरकार समाज के अन्य वर्गों (यानि ब्राह्मणों और अन्य सवर्ण जातियों) के गरीबों के हित की भी सोचती है, साथ ही इस विधेयक को जाति आधारित आरक्षण से वर्ग आधारित आरक्षण की ओर कदम बढ़ाने वाले एक मास्टरस्ट्रोक के रूप में प्रचारित किया जा रहा है.
हालांकि कांग्रेस ने विधेयक का समर्थन किया है, पर इस वोट बैंक का समर्थन जुटाना उसके लिए कठिन होगा – जो कि विगत दो दशकों में भाजपा की ओर खिसक चुका है.
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद और अन्य मंदिर-समर्थक समूहों के दबाव में, और मंदिर मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के अनिर्णय और बारंबार सुनवाई टाले जाने की स्थिति के मद्देनज़र, मोदी आम चुनाव से पूर्व संसद के अंतिम सत्र में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का विधेयक लाने की कोशिश कर सकते हैं.
ज़ोरदार ढंग से विकास के मुद्दे उठाने, नए 10 प्रतिशत आरक्षण और मंदिर निर्माण के आश्वासन के कारण भाजपा के पक्ष में अभूतपूर्व वोट स्विंग संभव है – जो पार्टी की सीटों की संख्या को 2014 के आंकड़ों से आगे ले जाते हुए ‘अबकी बार, तीन सौ पार’ के नारे को सही साबित कर सकती है.
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