खुद को बदलने की कोशिश में भारतीय सेना ने 26-27 अगस्त को तीनों सेनाओं के एक सेमिनार ‘रण संवाद 2025’ का आयोजन करके एक महत्वपूर्ण कदम उठाया. इस सेमिनार में ‘युद्ध शैली पर टेक्नोलॉजी के प्रभाव’ के सवाल पर विचार किया गया. इसके साथ इन दो सहायक विषयों पर भी विचार किया गया: ‘उभरती टेक्नोलॉजी और भविष्य की युद्ध शैली पर उनका प्रभाव’ और ‘टेक्नोलॉजी के मामले में क्षमता को बढ़ाने के लिए संस्थागत प्रशिक्षण में सुधार’. मऊ के आर्मी वार कॉलेज में आयोजित इस सेमिनार के प्रारूप ने एक ताजा हवा के झोंके के समान था. लीक से हट कर, इसमें ज़्यादातर वक्ता मझोले दर्जे के सेना अधिकारी थे, जो युद्ध में सीधे भाग लेते हैं. उन सबने बड़ी साफ़गोई से अपनी बात रखी, और श्रोताओं के साथ सवाल-जवाब के लिए पर्याप्त समय रखा गया था.
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान, वायुसेना अध्यक्ष एयर चीफ मार्शल अमरप्रीत सिंह, नौसेना अध्यक्ष एडमिरल दिनेश कुमार त्रिपाठी ने भी सेमिनार को संबोधित किया. रक्षा सचिव, डीआरडीओ सचिव, तीनों सेनाओं तथा केंद्रीय सशस्त्र बलों के सेवानिवृत्त तथा सेवारत अधिकारी, रक्षा विशेषज्ञ, शैक्षणिक शोधकर्ता, और उद्योग जगत के प्रतिनिधि भी सेमिनार में उपस्थित थे. पूरी कार्यवाही मीडिया के लिए खुली हुई थी और दूसरे देशों के 18 रक्षा सलाहकार भी इसमें शरीक हुए.
टेक्नोलॉजी और युद्ध शैली पर व्यापक विचार-विमर्श किया गया, लेकिन अहम सवाल यह है कि इन विचारों को असल में अमली जामा पहनाने का ढांचा क्या हमारे पास है?
चर्चा के मुद्दे
सीडीएस जनरल अनिल चौहान ने यह कहकर चर्चा की शुरुआत की कि विकसित भारत के लिए न केवल टेक्नोलॉजी के मामले में बल्कि विचारों और व्यवहारों के मामले में भी सशक्त, सुरक्षित और आत्मनिर्भर भारत चाहिए. आज के समय में, युद्ध पर टेक्नोलॉजी का बहुआयामी प्रभाव पड़ रहा है बल्कि वह सोचने-समझने तथा अनुमान लगाने की मानव क्षमता को भी पीछे छोड़ रही है.
युद्ध की भावी दिशा के बारे में बताते हुए सीडीएस ने इस बात पर ज़ोर दिया कि तमाम देशों में ताकत के प्रयोग की प्रवृत्ति बढ़ रही है क्योंकि राजनीतिक मकसद कम अवधि की लड़ाइयों से हासिल हो जाते हैं, जिनमें अत्याधुनिक सैन्य टेक्नोलॉजी का प्रयोग किया जाता है. युद्ध और शांति में अब साफ फर्क नहीं रह गया है, और घोषित युद्ध का युग अब समाप्त हो गया है. युद्ध में जीत को इस पैमाने से नहीं नापा जाता कि आपने दुश्मन की कितनी जमीन पर कब्जा कर लिया या कितने सैनिकों को मार डाला या कितनी संपत्ति नष्ट की, बल्कि इस पैमाने से नापा जाता है कि अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से और प्रचार के बूते कितनी गहरी मनोवैज्ञानिक शिकस्त दी.

सभी दर्जे के अधिकारियों ने पहले विषय ‘उभरती टेक्नोलॉजी और भविष्य की युद्ध शैली पर उनका प्रभाव’ के तहत डिटेल प्रेजेंटेशन पेश किए. निम्नलिखित विषयों को समेटा गया:
- हाल की लड़ाइयों/टक्करों और युद्धशैली उनके प्रभावों का अध्ययन.
- युद्ध की प्रक्रिया पर उभरती टेक्नोलॉजी का प्रभाव.
- सूचना युद्ध और प्रचार प्रबंधन के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल.
- सैन्य साजोसामान की अवधारणा से लेकर उत्पादन तक में तेजी लाने की जरूरत.
- बहुपक्षीय ऑपरेशनों में एआई संचालित स्वायत्त ड्रोन.
- उभरती टेक्नोलॉजी को भारतीय सेनाओं शामिल करना.
दूसरे विषय ‘टेक्नोलॉजी के मामले में क्षमता को बढ़ाने के लिए संस्थागत प्रशिक्षण में सुधार’ के संदर्भ में निम्नलिखित प्रेजेंटेशन पेश किए गए:
- उभरती टेक्नोलॉजी को प्रशिक्षण की पहल के जरिए समाहित करना.
- जमीनी युद्ध में मानव रहित स्वायत्त सिस्टम्स को समाहित करना.
- भविष्य के लिए तैयार परमाणु अस्त्र की टेक्नोलॉजी को समाहित करना.
- आज की लड़ाइयों और भारतीय वायुसेना के अभ्यासों से सीखे गए सबक को समाहित करना.
- विध्वंसक टेक्नोलॉजी और भावी लॉजिस्टिक्स सप्लाई चेन युद्धशैली.
- आधुनिक C4ISR (कमांड, कंट्रोल, संचार, कंप्यूटर, खुफियागीरी, निगरानी, और टोही कार्रवाई) के लिए अंतरिक्ष आधारित निगरानी तथा संचार व्यवस्था को समाहित करना.
- सेना के थिएटराइजेशन की प्रक्रिया में प्रशिक्षण की पहल के साथ टेक्नोलॉजी की जरूरतों को जोड़ना.
तीनों सेनाओं के अध्यक्ष भी आगे आए
वायुसेना अध्यक्ष का संदेश सरल था: भविष्य की लड़ाइयों को स्वरूप देने, तेज करने और समाप्त करने की भारत की क्षमता में उसकी हवाई शक्ति की केंद्रीय भूमिका रहेगी. ऑपरेशन सिंदूर का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इस लड़ाई को तेज करने, चलाने और समाप्त करने में हवाई शक्ति ने प्रमुख भूमिका निभाई. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि रफ्तार, विस्तार और सटीकता का मेल राजनीतिक नेतृत्व को युद्ध और सीमित युद्ध में भी विश्वसनीय विकल्प उपलब्ध कराता है.
सेमिनार की चर्चाओं में ड्रोन छाया रहा, एयर चीफ मार्शल ने कहा: “केवल ड्रोन काफी नहीं होंगे.“ उन्होंने ज़ोर दिया कि अगली पीढ़ी के वेपंस, जैमर्स, इलेक्ट्रॉनिक्स युद्ध के सिस्टम्स और सटीक हमले करने की क्षमता की भी जरूरत होगी. उन्होंने इस बात को खारिज कर दिया कि निकट भविष्य में पूरी तरह स्वायत्त एरियल सिस्टम्स मानव संचालित विमान की जगह ले लेंगी. लेकिन उन्होंने उम्मीद की कि मानव रहित और मानव सहित सिस्टम्स मिलकर लड़ेंगी. उन्होंने ज़ोर दिया कि सेंसर से लेकर शूटर तक पूरे इलेक्ट्रोनिक युद्ध (ईडब्लू) साइकिल में आत्मनिर्भरता बेहद जरूरी है.
वायुसेना अध्यक्ष ने थिएटर कमांड के गठन में विदेशी मॉडल की नकल करने के खिलाफ सावधान किया. उन्होंने कहा कि ऑपरेशन सिंदूर में सीडीएस की अध्यक्षता में चीफ़्स ऑफ स्टाफ कमिटी ने जिस सहजता और कुशल तालमेल से उच्चस्तरीय फैसले किए वे उनकी बात की पुष्टि करते हैं. उन्होंने कहा कि वर्तमान व्यवस्था को हेडक्वार्टर्स इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ (HQ IDS) में ‘प्लानिंग ऐंड को-ओर्डिनेशन सेंटर’ की स्थापना करके और बेहतर बनाया जा सकता है.
नौसेना अध्यक्ष ने बताया कि आत्मनिर्भरता और देसीकरण के मामले में भारतीय नौसेना अग्रणी रही है और उसने डिफेंस पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग्स (डीपीएसयू) और नौसैनिक शिपयार्डों के साथ लंबा सहयोग करके एक मानदंड स्थापित किया है. उन्होंने ज़ोर दिया कि नौसेना अपने सैनिकों को ट्रेनिंग देने के साथ-साथ नयी टेक्नोलॉजी को निरंतर अपनाती रही है. उन्होंने कहा कि भारतीय नौसेना तीनों सेनाओं के एकीकरण और थिएटर कमांडों के गठन के प्रति प्रतिबद्ध है.
रक्षा मंत्री ने सुझाए रास्ते
रक्षा मंत्री ने युद्ध लड़ने की संयुक्त काशमता बनाने पर ज़ोर दिया और कहा कि यह ऑपरेशन सिंदूर की सफलता की एक मुख्य वजह रही. हाल की लड़ाइयों के अनुभवों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि युद्धशैली तेजी से बदल रही है, ऐसा युद्ध के बीच भी होता है इसलिए भारत को दो महीने से लेकर पांच साल तक लड़ने के लिए तैयार रहना होगा. उन्होंने कहा कि टेक्नोलॉजी को तेजी से अपनाना पड़ेगा.

भविष्य की लड़ाइयों के बारे में उन्होंने कहा: “सैनिकों की विशाल संख्या और हथियारों की विशाल भंडार ही काफी नहीं है. साइबर युद्ध, एआई, मानव रहित हवाई वाहन (अननेम्ड एरियल व्हीकल) और सैटेलाइट आधारित निगरानी व्यवस्था भविष्य के युद्ध को स्वरूप दे रही है. सटीक मार करने वाले वेपन्स, मौके पर खुफियागीरी और डेटा आधारित सूचना अब किसी भी युद्ध में कामयाबी के आधार हैं.
सीडीएस ने उपसंहार किया
सीडीएस ने ठीक ही कहा कि अधिकतर विचार महत्वाकांक्षी किस्म के हैं, और चुनौती हमारे पास जो है और जो हम चाहते हैं उसके बीच के फर्क को पाटने की है. उन्होंने कहा कि भावी युद्ध का दौर शुरू हो गया है और एक ‘भावी ऑपरेशंस विश्लेषण समूह’ की कल्पना की जा रही है ताकि युद्ध शैली पर सैन्य टेक्नोलॉजी के उभार तथा उसके प्रभाव के साथ कदम से कदम मिलाकर चला जा सके. जनरल चौहान ने ‘हाइब्रिड स्कॉलर-वॉरियर्स’ की अवधारणा भी प्रस्तुत की, जो भविष्य में टेक्नोलॉजी आधारित युद्ध को जीत सके. उन्होंने ऐसी क्षमता हासिल करने की जरूरत पर भी ज़ोर दिया जो जमीन, हवा, समुद्र, अंतरिक्ष, इलेक्ट्रोमैग्नेटिक और साइबर डोमेन आदि बहुआयामी डोमेन में ऑपरेशन चला सके. उन्होंने कहा कि इन सभी मुद्दे फरवरी 2026 में होने वाले अगले ‘रण संवाद’ के विषय होंगे.
सीडीएस ने ‘रण संवाद’ से उभरे सात सबक के साथ आयोजन का समापन किया:
पहला: हिंसा के साधनों का लोकतांत्रीकरण, या अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी का सर्वसुलभ होना और इसके कारण पैदा हुआ ‘एट्रीशन’ (दुश्मन को कमजोर करने वाली रणनीति), जो शक्ति संतुलन में समानता ला रही है. दूसरा: सामूहिक विध्वंस की जगह सटीकता पर ज़ोर. तीसरा: युद्ध का नेतृत्व अब मनुष्य की जगह मशीन करेगी. चौथा: ऑपरेशन के दौरान प्रचार उतना ही महत्वपूर्ण है जितना युद्ध जीतना. पांचवां: सक्रिय युद्ध के साथ सूचना युद्ध को भी जोड़ना जरूरी है. छठा: एक ‘यूएएस’ और ‘जवाबी यूएएस’ फ्रेमवर्क तैयार करना जरूरी है. सातवां: ‘लेगेसी टेक्नोलॉजी’ का महत्व कायम है और दोहरे इस्तेमाल वाली तथा विध्वंसक टेक्नोलॉजी के साथ उनका विकास भी जरूर किया जाना चाहिए.
सीडीएस ने स्पष्ट किया कि तीनों सेनाओं की संयुक्तता और उनके एकीकरण के मॉडल को लेकर विवाद के बावजूद सेनाओं ने आम सहमति वाला रास्ता अपनाने का निश्चय कर रखा है. यानी परोक्ष रूप से उन्होंने कबूल किया ऐसे मसलों का समाधान एक दशक पहले ही कर दिया जाना चाहिए था.
रण संवाद में अछूते सवाल
जहां तक ‘युद्ध पर टेक्नोलॉजी के प्रभाव’ को लेकर अकादमिक तथा महत्वाकांक्षी किस्म की चर्चाओं का सवाल है, ‘रण संवाद’ ने उनके हर पहलू को छुआ. लेकिन कुछ बेहद जरूरी सवाल अछूते रहे.
सबसे पहले तो उभरती टेक्नोलॉजी जिस बदलाव का अभिन्न अंग बनने वाली है उस बदलाव को लागू करने वाली वह फ्रेमवर्क या योजना कहां है जिसे सरकार ने मंजूर किया था? और उसके लिए क्या समय सीमा तय की गई है?
ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह भी है कि वह ‘नेशनल सिक्यूरिटी स्ट्रेटेजी’ और उसके साथ जुड़ी ‘नेशनल डिफेंस पॉलिसी’ कहां है जिसमें से बदलाव की योजना उभरनी चाहिए? और यह भी कम महत्वपूर्ण बात नहीं है कि इस बदलाव के लिए सरकारी बजट का वादा कहां है? इन बुनियादी बातों पर न तो रक्षा मंत्री ने कुछ कहा, न सीडीएस ने और न किसी और वक्ता ने.
इन सभी सवालों का जवाब यही है कि बदलाव के जरूरी पहली शर्तों में किसी का कहीं कोई औपचारिक अता-पता नहीं है.
तीनों सेनाओं के एकीकरण और थिएटर कमांड के गठन के मुद्दे तो रण संवाद में उभरे लेकिन उनकी दिशा में मामूली या शून्य प्रगति इस बात का प्रमाण है कि इन बुनियादी शर्तों को पूरा किए बिना समग्र बदलाव कैसे नहीं आ सकता. मौजूदा स्थिति जो है उसमें रक्षा बजट पिछले 11 वर्षों से जीडीपी के 2 प्रतिशत के बराबर के आंकड़े पर स्थिर है, जो कि 1962 के बाद का न्यूनतम आंकड़ा है. ऐसे में केवल टुकड़ों में और मामूली बदलाव ही संभाव है. इसका परिणाम यह है कि अधिकांश सेना बीते दौर का युद्ध लड़ने के लिए ही तैयार है, जिसके पास आज का युद्ध लड़ने की सीमित क्षमता, और भविष्य का युद्ध लड़ने की कोई औपचारिक योजना नहीं है.
बदलाव के चीनी मॉडल से सीख ली जा सकती है. इस सदी की शुरुआत में वह भी भारत वाली स्थिति में था. 2005 तक दोनों ने ‘एयर लैंड बैटल’ वाले विचार को अपना रखा था, जिसे अमेरिका ने 1991 के खाड़ी युद्ध-1 में अपना रखा था. अमेरिकी सेना में अगला बदलाव खाड़ी युद्ध-2 के बाद ही तेजी शुरू हो गया और इसके मद्देनजर चीन ने अपनी सेना में स्पष्ट समयसीमा के साथ बदलाव की तैयारी 2015 से शुरू कर दी. इसके विपरीत भारत में पिछले दो दशकों में आई सरकारों और सेना में राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में अजीब तरह का ठहराव दिखा और वह भविष्य के युद्ध के लिए तैयारी करने में विफल रही.
‘रण संवाद’ में रक्षा मंत्री और सीडीएस समेत कई वक्ताओं ने भारतीय सेना के प्राचीन ज्ञान का उल्लेख किया. लेकिन वे सब भूल गए कि भारत की विशाल सामंती सेनाओं को बेहतर हथियारों से लैस छोटी आक्रमणकारी सेनाओं के हाथों बार-बार हार का सामना करना पड़ा, जिनमें वे व्यापारी समूह भी शामिल थे जिन्होंने भारतीयों को ही बेहतर हथियार और प्रशिक्षण देकर भारत पर कब्जा कर लिया था.
दुश्मन दरवाजे पर खड़ा है. उसका सीधा मुक़ाबला करने का समय आ गया है. 2035 तक सेना में समयबद्ध बदलाव लाने के लिए ‘नेशनल सिक्यूरिटी स्ट्रेटेजी’ तथा ‘नेशनल डिफेंस पॉलिसी’ तैयार करें और रक्षा बजट को जीडीपी के 4 प्रतिशत के बराबर के आंकड़े पर ले जाने की प्रतिबद्धता पर अमल करें.
लेफ्टिनेंट जनरल एच. एस. पनाग (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, एवीएसएम, ने 40 साल तक भारतीय सेना में सेवा की. वे उत्तरी कमान और केंद्रीय कमान के कमांडर रहे. रिटायरमेंट के बाद, उन्होंने सशस्त्र बल न्यायाधिकरण में सदस्य के रूप में काम किया. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.
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