राजनीतिक उठापटक में समाजशास्त्रीय नजरिया कई बार ओझल हो जाता है. इसलिए मुमकिन है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि की प्राण प्रतिष्ठा या उद्घाटन समारोह की ये बारीक चीज कई लोगों को नजर न आई हो. समारोह में जो धार्मिक कार्यक्रम हुआ, उसमें कुल 15 जजमान शामिल हुए और उनमें से 10 अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग और घुमंतू जातियों के यानी परंपरागत रूप से वंचित समूहों से थे. ये जानकारी मुझे खुद आरएसएस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने दी, जिसकी पुष्टि भी मैंने की है.
ये समारोह ऐसे तो राममंदिर ट्रस्ट द्वारा आयोजित किया गया था, पर इसकी कार्ययोजना और उसका संचालन बीजेपी, आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के शीर्ष नेताओं ने किया. इसलिए ये माना जाना चाहिए कि जजमानों के चयन में सामाजिक विविधता अचानक नहीं आई होगी, बल्कि ये काम योजना के तहत किया गया होगा. इस चयन से बीजेपी की राजनीति को भी समझा जा सकता है और ये अंदाजा भी लगाया जा सकता है कि आरएसएस के हिंदुत्व का क्या मतलब है.
ये दिलचस्प है कि इसका विरोध खुद हिंदुओं के अंदर से आ रहा है. कोई भी शंकराचार्य इस आयोजन में नहीं आए. कई और धर्माचार्यों ने भी प्राण प्रतिष्ठा समारोह की विधि पर आपत्ति जताई. पुरी के शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती ने कहा कि प्राण प्रतिष्ठा समारोह शास्त्रोक्त विधि से नहीं हो रहा है. उन्होंने ये भी कहा कि नरेंद्र मोदी मूर्ति को छुएंगे तो क्या हम वहां ताली बजाएंगे. इस बात पर भी आपत्ति जताई गई कि मंदिर का निर्माण अभी पूर्ण नहीं हुआ है तो प्राण प्रतिष्ठा समारोह अभी क्यों हो रहा है.
बीजेपी-आरएसएस-विहिप जो कर रहा है, उसे लेकर शंकराचार्य तथा कुछ धर्माचार्यों द्वारा किया जा रहा विरोध लगभग अकारण है. हिंदुत्व न तो सनातन धर्म की व्यवस्थाओं के खिलाफ है न ही वर्ण व्यवस्था आधारित ब्राह्मणवाद के. हिंदुत्व एक राजनीतिक विचार है जो हिंदुओं को एकजुट करके उनको सत्तासीन बनाने का माध्यम है. इसके लिए आवश्यक समाज सुधार और धर्म का परिमार्जन यानी परिष्कार करने का हिंदुत्व पक्षधर है. इस व्यवस्था में जातियों का विलोप नहीं होना है. जातियां और ऊंच नीच बनी रहेगी पर भेदभाव और कटुता की जगह समरसता होगी. ये समानता और समता नहीं है. कुछ ऐसे मामले होंगे, जिसमें सभी साथ साथ रहेंगे और चलेंगे.
इस लेख में मेरा उद्देश्य प्राण प्रतिष्ठा से जुड़ी सामाजिक विविधता को सामाजिक या धार्मिक नजरिए से देखना नहीं है. मेरी कोशिश इस मामले की राजनीति को देखने और समझने की होगी. मेरी मान्यता है कि समावेशी हिंदुत्व या समरसता बीजेपी के लिए च्वाइस नहीं है, बल्कि ये बीजेपी की राजनीति का अनिवार्य तत्व और उसकी मजबूरी है. समरसता के बिना हिंदुत्व की शक्तियां शासन में नहीं आ सकतीं. ये विचार मूल रूप से विनायक दामोदर सावरकर का है, जिसे उन्होंने अपनी किताब हिंदुत्व में परिभाषित किया है. बीजेपी का वर्तमान रास्ता यही सावरकरवादी हिंदुत्व है.
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गांधी का राम राज्य बनाम सावरकर का हिंदू राष्ट्र
ये बात बहुतों को चौंका सकती है और वे इस पर एतराज भी जता सकते हैं कि हिंदू धर्म को समावेशी बनाने, उसमें सुधार लाने, सबको मंदिर प्रवेश देने और छुआछूत का निषेध करने के मामले में सावरकर, गांधी से बहुत आगे थे. लेकिन सावरकर का सुधारवादी हिंदुत्व उनकी उदारता नहीं थी. यह हिंदुत्व की राजनीतिक मजबूरी थी.
गांधी बहुत बाद में 1932 में जाकर हरिजन सेवक संघ बनाकर अछूतोद्धार का कार्यक्रम चलाते हैं. इससे काफी पहले 1927 में सावरकर ने छुआछूत को समाप्त करने की वकालत की थी. उन्होंने कहा था कि जानवर को छूने में दिक्कत न होना और किसी इंसान को जाति के आधार पर छूने से इनकार करना, मानवता के विरुद्ध गंभीर अपराध है. छुआछूत को उन्होंने नैतिकता, न्याय और मनुष्यता के विरुद्ध बताया. 1931 में सावरकर ने रत्नागिरी में पतितपावन मंदिर बनवाया, जिसके दरवाजे सबके लिए खुले थे. गांधी इस समय तक यही कह रहे थे कि मंदिरों के दरवाजे सबके लिए खुले होने चाहिए, लेकिन ये तभी हो जब वहां के हिंदू इसके लिए तैयार हों.
जब सावरकर से पूछा गया कि छुआछूत के हिंदुओं को क्या फायदा होगा तो उन्होंने कहा कि “लाभ की बात आपद्धर्म है जो विशिष्ट स्थितियों में की जाती है. छुआछूत का निषेध तो सबसे बड़ा और सार्वभौमिक धर्म है.”
1931 में ही लिखे अपने बहुचर्चित लेख समाज के सात बंधन में उन्होंने हिंदू धर्म की उन बड़ी समस्याओं का उल्लेख किया, जिनसे छुटकारा पा लेना चाहिए. यहां सावरकर गांधी की तुलना में बेहद क्रांतिकारी नजर आते हैं. सात बंधन ये हैं:
वेदोक्तबंदी – वेदों से कुछ समुदायों को दूर रखना
व्यवसायबंदी – मजबूरी में जाति निर्धारित व्यवसाय या कार्य को करना
स्पर्शबंदी – छुआछूत का पालन
समुद्रबंदी – विदेश यात्रा का निषेध
शुद्धिबंदी – हिंदू धर्म में दोबारा लौटने का निषेध
रोटिबंदी – जातिवाद के तहत अंतरजातीय भोजन का निषेध
बेटीबंदी – अंतरजातीय विवाह का निषेध
लेकिन ये करते हुए भी सावरकर वर्ण व्यवस्था और एक हद तक मनुस्मृति के समर्थक बने रहे. वे सचमुच एक जटिल व्यक्तित्व थे.
बीजेपी और आरएसएस के हिंदू समाज संबधी कार्यों को सावरकरवादी हिंदुत्व के नजरिए से समझा जा सकता है. सावरकर की मान्यता थी कि भारत हिंदुओं का होना चाहिए क्योंकि ये उनकी पुण्यभूमि और पितृभूमि दोनों है. यानी हिंदुओं के पुरखे भी यहीं के थे और यहां उनके धर्म स्थल भी है. ये बात हिंदुओं को मुसलमानों और ईसाइयों से अलग करती है.
सावरकर मानते थे कि भारत में हिंदू और मुसलमान अनवरत संघर्ष की स्थिति में हैं. हिंदू राष्ट्र की स्थापना का अर्थ हिंदुत्व की स्थापना है और इसके लिए आवश्यक है कि तमाम हिंदुओं को जोड़कर उन्हें विराट हिंदू बनाया जाए. सावरकर के विराट हिंदू में हिंदुओं की तमाम जातियां ही नहीं, भारत में जन्में सभी धर्म जैसे सिख, बौद्ध और जैन भी हैं. सावरकर की दृष्टि में विभाजित हिंदू पराजित हिंदू है. इसलिए हिंदुओं को अपने धर्म के विभाजनकारी तत्वों से मुक्ति पा लेनी चाहिए. सावरकर मुसलमान विरोध में हिंदुओं में विराट एकता बना रहे थे और छुआछूत जैसी प्रथाएं इसमें बाधक थीं.
दूसरी ओर गांधी राम राज्य का सपना देख रहे थे, जिसे समग्र एककीकृत भारत पर लागू होना था. इसमें वे मुसलमानों को साझीदार मान रहे थे, क्योंकि उनके हिसाब से मुसलमानों को साथ लिए बगैर अंग्रेजों से मुक्ति संभव नहीं थी. मुस्लिम संगठन इस बात को समझ रहे थे कि गांधी के सर्वधर्म समभाव में हिंदू वर्चस्व निहित है क्योंकि उनकी संख्या ज्यादा है. इसलिए मुस्लिम लीग ने पहले तो प्रांतीय और केंद्रीय विधायिका में सेपरेट एलोक्टोरेट मांगा यानी मुसलमान प्रतिनिधियों का चुनाव मुसलमान ही करेंगे और बाद में उसने मुसलमानों के लिए अलग देश ही मांग लिया. गांधी का योजना सफल नहीं हो पाई और सावरकर भी एकीकृत भारत को हिंदू राष्ट्र नहीं बना पाए. आखिरकार भारत विभाजन हुआ, जो दोनों ही अलग अलग कारणों से नहीं चाहते थे.
वर्तमान राजनीति में विराट हिंदुत्व और बीजेपी
अगर ये सारी बातें आपको इतिहास की खुदाई करने वाली या किताबी लगती है तो वर्तमान राजनीति में आइए. मिसाल के तौर पर, उत्तर प्रदेश में लगभग 20 प्रतिशत वोटर मुसलमान हैं. यानी बीजेपी जब यहां चुनाव लड़ने के लिए उतरती है तो उसकी रेस 20 प्रतिशत पीछे से शुरू होती है. यहां अगर वह हिंदुओं की बड़ी आबादी को गोलबंद न कर पाए और ज्यादा से ज्यादा जातियों को न जोड़ पाए तो उसका कोई राजनीतिक भविष्य नहीं है. बीजेपी यहां 40 से लगभग 50 प्रतिशत तक वोट ले जा रही है, इसका यही मतलब है कि वह हिंदुओं की ज्यादातर जातियों के वोट ले पा रही है.
यही सावरकर का वह विराट हिंदुत्व है जो बीजेपी को सत्ता तक पहुंचा रहा है. इस वजह से नरेंद्र मोदी जब केंद्र में मंत्रि परिषद का गठन करते हैं तो 27 ओबीसी मंत्री बनाते हैं. नरेंद्र मोदी यूं ही बार बार नहीं कहते हैं कि मैं पिछड़ी जाति का हूं या पिछड़ी मां का बेटा हूं. ऐसा करके वे उन जातियों को बीजेपी में जोड़ते हैं जो पारंपरिक रूप से बीजेपी से साथ नहीं थीं. बीजेपी अपने पुराने अवतार जनसंघ के दिनों में ब्राह्मण-बनिया पार्टी के रूप में जानी जाती थी और उस समय वह राजनीति के हाशिए पर होती थी. बीजेपी का सत्ता तक पहुंचना उसके सावरकरवादी हिंदुत्व पर चलने से ही संभव हुआ है. अभी हाल में जननायक दिवंगत कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने के दौरान भी नरेंद्र मोदी ने अपनी पिछड़ी जाति वाली पहचान का जिक्र किया.
वहीं दूसरी ओर सेक्युलर दल अपने ही चक्रव्यूह में फंस गए हैं. चूंकि अब राजनीति के केंद्र में बीजेपी आ गई है तो बीजेपी के खिलाफ सबसे पक्का और बड़ा वोटिंग ब्लॉक मुसलमान बन गए हैं. ऐसा माना जाता है कि मुसलमान किसी भी ऐसे दल या कैंडिडेट को वोट डालने के लिए तैयार हो जाते हैं, जो बीजेपी को हराने में सबसे सक्षम हो. इस वजह से प्रमुख सेक्युलर पार्टी को ढेर सारा वोट बिना कुछ किए मिल जाता है, जो उसे आलसी बनाता है. मुसलमानों के जुड़ जाने से पार्टी बड़ी तो हो जाती है पर सिर्फ मुसलमान देश में सिर्फ 15 से 20 लोकसभा सीटें ही जिता सकते हैं. हिंदू वोट लिए बिना बीजेपी को हराना नामुमकिन है.
ये फुटबॉल के खेल की तरह है, जिसमें मुसलमान बीजेपी के खिलाफ गोल तो कर सकते हैं, पर तभी जब बाकी लोग गेंद को गोलपोस्ट तक पहुंचा दें. ये संभव नहीं है कि मुसलमान मिड फील्ड से बॉल ले और उसे गोलपोस्ट के पास ले आए और गोल भी दागे.
ये कितना अजीब है कि 2019 लोकसभा चुनाव के पहले जब नरेंद्र मोदी मीटिंगों में खुद को पिछड़ा बता रहे थे तब कांग्रेस राहुल गांधी को “जनेऊधारी श्रेष्ठ हिंदू” बता रही थी. भारत की सेक्युलर राजनीति सचमुच वैचारिक गतिरोध की शिकार है.
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व प्रबंध संपादक हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका एक्स हैंडल @Profdilip है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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