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Sunday, 28 April, 2024
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शराबबंदी के मामले में गांधीवादी विचार पर चलना नुकसानदेह, योगी आदित्यनाथ राज्य के हित में सही कर रहे हैं

उत्तर प्रदेश में जब योगी आदित्यनाथ 2017 में सत्ता में आए थे तब शराब से राज्य को हर साल मिलने वाला एक्साइज रेवेन्यू 14,000 करोड़ रुपए था जो अब यानी 2022-23 में लगभग तीन गुना बढ़कर 42,250 करोड़ रुपए हो गया है.

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मोहनदास करमचंद गांधी ने, शराबबंदी हर कीमत पर, पेज 9 में लिखा था, “अगर मुझे पूरे भारत का एक दिन के लिए तानाशाह बना दिया जाए तो जो एक चीज मैं करूंगा वो ये कि देश की तमाम शराब दुकानों को बिना कोई मुआवजा दिए बंद कर दूंगा और ताड़ के तमाम पेड़ नष्ट कर दूंगा.”

वहीं 1956 में बौद्ध धम्म ग्रह्ण करते समय बाबा साहब आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं में से एक था- “मैं शपथ लेता हूं कि शराब और नशा का सेवन नहीं करूंगा.”

शराब के निषेध के बारे में ये न सिर्फ बेहद अलग विचार हैं, बल्कि ये दो अलग-अलग लोग और उनकी सोच के अंतर को भी दिखाते हैं. लेकिन उस पर इस लेख में आगे चर्चा करेंगे.

सबसे पहले उस ग्राउंड रिपोर्ट की चर्चा करते हैं जिसे सागरिका किस्सू ने दिप्रिंट के लिए लिखा है. ये रिपोर्ट इस बारे में है कि किस तरह उत्तर प्रदेश में नई और बेहतर शराब संस्कृति आई है और लोगों का शराब खरीदने का तरीका और उसे लेकर नजरिया बदला है. इसमें एक दिलचस्प आंकड़ा है कि उत्तर प्रदेश में जब योगी आदित्यनाथ 2017 में सत्ता में आए थे तब शराब से राज्य को हर साल मिलने वाला एक्साइज रेवेन्यू 14,000 करोड़ रुपए था जो अब यानी 2022-23 में लगभग तीन गुना बढ़कर 42,250 करोड़ रुपए हो गया है. उत्तर प्रदेश ने शराब से मिलने वाले सरकारी राजस्व के मामले में परंपरागत शिखर राज्य कर्नाटक को भी पीछे छोड़ दिया है. इसके कई कारण हैं, एक प्रमुख कारण ये है कि यूपी सरकार ने अपनी एक्साइज नीति बदली है जो विक्रेताओं के अनुकूल हैं.

जीएसटी लागू होने के बाद तमाम राज्यों के आर्थिक स्रोत कमजोर हुए हैं. शराब और पेट्रोलियम पदार्थों की बिक्री से मिलने वाला राजस्व राज्य सरकारों की आमदनी का बड़ा स्रोत बन गया है. ऐसे समय में शराब से मिलने वाले राजस्व को गंवाने वाले दो ही राज्य हैं- गुजरात और बिहार. ये कहना मुश्किल है कि शराबबंदी इन राज्यों में कितनी सफल रही है क्योंकि अवैध शराब के धंधे में लगे लोग लगातार पकड़े जा रहे हैं और जहरीली शराब पीने से लोग मर भी रहे हैं. ये मुमकिन है कि यहां शराब का वैध यानी कानूनी कारोबार बंद हो और अवैध कारोबार चल रहा हो.

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दोनों राज्य शिक्षा और ग्रामीण स्वास्थ्य के मामले में फिसड्डी हैं और शराब बिक्री से राजस्व हासिल करके अगर वे इस दिशा में काम करते तो दोनों राज्यों की जनता का भला होता. पर इन राज्यों के लिए ये लोक कल्याण से ज्यादा, विचारधारा में जकड़ जाने का मामला बन चुका है. ये भारतीय राजनीति पर गांधी और लोहिया के बहुत सारे दुष्प्रभावों में से एक है.

शराबबंदी दरअसल एक कानूनी व्यवस्था है जिसके तहत शराब बनाने, बेचने, रखने, उसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाने और पीने पर रोक होती है और ये सब दंडनीय अपराध हैं. शराबबंदी कानून का मकसद लोगों को शराब पीने से पूरी तरह रोक देना है. आधुनिक दौर में शराबबंदी विवादित विषय रही है. इसके समर्थकों और विरोधियों के अपने अपने तर्क हैं. शराबबंदी के सबसे प्रचंड समर्थक गांधीवादी, लोहियावादी, पश्चिमी देशों में ईसाई शुद्धतावादी और कई और धर्म और पंथ के लोग हैं. लेकिन समय के साथ शराबबंदी को कानूनी तरीके से लागू करने का विचार खासकर पश्चिम में कमजोर पड़ चुका है.

पश्चिमी देशों में शराबबंदी आंदोलन 18वीं सदी में सबसे प्रखर था, जब अमेरिका से लेकर आयरलैंड तक में चर्च की पहल पर शराबबंदी लागू करने की कोशिश की गई. शराबबंदी आंदोलन के समर्थक सरकार पर कानून बनाने के लिए दबाव डालते थे, इसके अलावा शराब की दुकानों और पीने वालों को रोकने की कोशिश भी करते थे. चर्च के साथ महिला समूहों की भी हिस्सेदारी इन आंदोलनों में रही. लेकिन अब ये सब लगभग बंद हो चुका है और शराबबंदी को कानूनी तरीके से लागू करने की जगह शराब की लत छुड़ाने और उपचार तथा मनोवैज्ञानिक सलाह आदि पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है.

भारत में भी शराबबंदी कोई लोकप्रिय विचार नहीं है. पूरे देश के स्तर पर इसे लागू करने की बात गांधी ने बेशक की थी, पर इस दिशा में कभी कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई.

मिसाल के तौर पर, नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री बनने पर गुजरात में शराबबंदी विरासत में मिली. इसलिए उन्होंने तत्कालीन नीति को चलने दिया. वहां अभी भी यह संवेदनशील मुद्दा है. हालांकि गुजरात की जनता से किसी ने पूछा नहीं है कि उसकी राय इस बारे में क्या है. जब मोदी 2014 में देश के प्रधानमंत्री बने तो शराबबंदी को देश भर में लागू करने जैसी कोई चर्चा भी उन्होंने नहीं की. जाहिर है कि ये बात उनके या बीजेपी के एजेंडे में नहीं है.

मेरी राय है कि शराब कानूनी तरीके से बिके और शराब के नुकसान के बारे में जनता को शिक्षित भी किया जाए. साथ ही जो नशे की लत में हैं, उनके लिए नशा मुक्ति के बंदोबस्त भी हों.


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शराबबंदी के नुकसान कुछ इस प्रकार हैं:

  • वैध रास्ता बंद होने से अवैध यानी गैरकानूनी रास्ता खुल जाता है. वैध तरीके से बिकने वाली शराब पर सरकार और एजेंसियों को काफी हद तक नियंत्रण रहता है. एक हद तक क्वालिटी कंट्रोल संभव है. अवैध शराब चूंकि स्थानीय स्तर पर और छोटे लेवल पर बनती है, इसलिए इसमें तमाम तरह की गड़बड़ियां हो सकती हैं. शराब चूंकि परंपरा से लेकर आदत की चीज है तो लोग अक्सर इन अवैध शराब विक्रेताओं के चक्कर में पड़ जाते हैं जो कि जानलेवा भी हो सकता है. हमने हाल के वर्षों में ये देखा है कि गुजरात और बिहार में शराबबंदी के बावजूद बड़ी संख्या में लोग अवैध शराब पीकर मर गए.
  • सरकारी राजस्व का नुकसान. कानूनी तरीके से शराब की बिक्री रोकने से सरकार को एक्साइज शुल्क के रूप में होने वाली आमदनी से वंचित होना पड़ता है. अवैध शराब से सरकार को कोई राजस्व नहीं मिल सकता. एक्साइज से मिले राजस्व का इस्तेमाल लोक कल्याण के कार्यों, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य या बुनियादी ढांचे के निर्माण में हो सकता है.
  • टूरिज्म, मनोरंजन, बार और होटल उद्योग पर बुरा असर. शराबबंदी से अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्र पुरी तरह से प्रभावित होते हैं. कई टूरिस्ट ऐसी जगहों पर जाना पसंद नहीं करते, जहां शराब पीने की इजाजत नहीं हो. पश्चिम के देशों के कई समाजों में शराब परंपरा की चीज है. तो जाहिर है कि टूरिस्ट डेस्टिनेशन ढूंढते समय वे इस बात को भी देखेंगे कि जहां वे जा रहे हैं, वहां उन्हें शराब मिलेगी या नहीं. इस तरह होने वाला नुकसान सिर्फ अर्थव्यवस्था नहीं, रोजगार के क्षेत्र में भी होता है. ऐसा भी देखा गया है कि शराबबंदी वाले राज्यों के कुछ लोग सिर्फ शराब पीने के लिए पड़ोसी राज्य में चले जाते हैं. यानी नुकसान शराबबंदी करने वाले राज्य का है.
  • छिपकर शराब पीने या अवैध शराब के कारण कई तरह की आपराधिक गतिविधियों जैसे स्मगलिंग, संगठित अपराध और गुंडागर्दी को बढ़ावा मिलता है. अवैध बिजनेस पर कंट्रोल के लिए कई बार गैंगवार होता देखा गया है.
  • शराबबंदी अपने लिए बेहतर चुनने की नागरिकों की आजादी को बाधित करती है और ये अधिकार राज्य के पास चला जाता है कि कोई क्या पीना चाहता है. ये व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन है और नागरिकों के ये नहीं तय करने देती कि उनके स्वास्थ्य के लिए क्या बेहतर है.
  • शराबबंदी कानून के तहत ज्यादातर गरीब और वंचित समुदायों के लोग ही फंसते हैं. समृद्ध लोगों के पास पड़ोसी राज्य में जाकर पीने से लेकर गेटेड सोसायटी की सुरक्षा में पीने के रास्ते होते हैं, जहां पुलिस आम तौर पर नहीं जाती. वहीं स्लम कॉलोनियों में रहने वाले इन केस में अक्सर फंस जाते हैं. खासकर ताड़ी पर रोक का तो लगभग पूरा असर परंपरागत रूप से इस काम में रही अनुसूचित जाति पर होता है. गरीब लोगों के साथ ये भी समस्या है कि वे न तो वकील कर पाते हैं और कई बार तो जमानत के लिए देने के जरूरी रुपए भी उनके पास नहीं होते.
  • शराबबंदी के कारण भ्रष्टाचार और घूसखोरी भी बढ़ती है क्योंकि जिनको भी शराब पीनी है, वह गलत रास्ते से ऐसा करते हैं और उनका प्रयास होता है कि कानून उन तक न पहुंचे. ये पूरा तंत्र भ्रष्टाचार को जन्म देता है.

कानून के रास्ते से शराबबंदी की जगह लोगों के बीच जन जागरण और शराब छुड़ाने वाले केंद्रों को बनाकर शराब की लत की समस्या को कंट्रोल किया जा सकता है. ये अपेक्षाकृत बेहतर तरीका हो सकता है.

अब बात शराब के विषय पर डॉ आंबेडकर और गांधी के विचारों की. हम यहां स्पष्ट देख सकते हैं कि जहां डॉ आंबेडकर इस मामले में बेहद लोकतांत्रिक स्वरूप में सामने आते हैं जो शराब को निजी च्वाइस का विषय मानते हैं और इसे लेकर वे किसी अतिरेक में भी नहीं हैं. वे व्यवहारवादी तरीके से इस विषय पर सोचते हैं, वहीं गांधी एक तानाशाही प्रवृत्ति के व्यक्ति नजर आते हैं जो अपनी राय को सबके लिए बेहतर मानते हुए, सब पर वह राय थोपना चाहते हैं. गांधी शराब बेचने वालों की दुकानें बंद करने के बाद उन्हें मुआवजा तक नहीं देना चाहते. दरअसल गांधी शराब को लेकर धार्मिक हद तक कट्टरता का प्रदर्शन करते हैं. एक जगह वे कहते हैं कि भी शराब शैतानी चीज है.

डॉ आंबेडकर इस मामले में बुद्धिस्ट मध्यम मार्ग अपनाते हैं. वे आत्म नियंत्रण और प्रज्ञा पर जोर देते हैं, जिसकी वजह से लोग खुद ही शराब या अन्य नशे से दूरी बना लेंगे. वे भरोसा करते हैं कि मनुष्य में प्रज्ञा और चेतना जग सकती हैं. वे अप्प दीपो भव यानी अपना प्रकाश खुद बनो पर भरोसा करते हैं.

मुझे आंबेडकर का रास्ता सही लगता है. गुजरात और बिहार की सरकारों को शराब की लत से लोगों को बचाने और नशा मुक्ति के लिए उपाय करने चाहिए. लेकिन इसका तरीका शराबबंदी नहीं है. योगी आदित्यनाथ इस मामले में गुजरात और बिहार की सरकारों से बेहतर सोच से काम कर रहे हैं.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका एक्स हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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