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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतविदेश नीति के हितों को ध्यान में रखते हुए AMU में मुसलमानों को लेकर मोदी का रवैया भाजपा की राजनीति से अलग दिखा

विदेश नीति के हितों को ध्यान में रखते हुए AMU में मुसलमानों को लेकर मोदी का रवैया भाजपा की राजनीति से अलग दिखा

नागरिकता कानून पर अमित शाह के बयान के बाद एएमयू में मोदी के भाषण से यही संकेत मिलता है कि मुसलमानों को अलग-थलग करने की उग्र राजनीति के कारण अंतरराष्ट्रीय संबंधों और आंतरिक सुरक्षा पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों का सरकार को एहसास होने लगा है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2020 के अंतिम पूरे सप्ताह का इस्तेमाल दो नाराज तबकों- मुसलमानों और किसानों की तरफ हाथ बढ़ाने की महत्वपूर्ण पहल करने में किया.

हमारी ज्यादा दिलचस्पी इस बात में है कि मोदी ने खुद को अलग-थलग महसूस कर रहे भारतीय मुसलमान अल्पसंख्यकों की ओर पहली बार हाथ बढ़ाया है. दिलचस्पी की पहली वजह यह है कि 2019 की तरह उन्होंने 2020 का समापन भारतीय मुसलमानों को आवाज़ देते हुए किया.

दूसरी वजह यह है कि ऐसा करने के लिए उन्होंने कुछ अकस्मात रूप से 22 दिसंबर का दिन चुना. आपको शायद याद हो कि पिछले साल मोदी ने रामलीला मैदान में दिए अपने भाषण में इसी तरह की बातें की थी, जब नागरिकता कानून (सीएए) के खिलाफ आंदोलन अपने शिखर पर था.

तीसरी वजह यह है कि मुसलमानों के लिए उनका लहजा और राजनीतिक संदेश उनकी अपनी पार्टी की राजनीति और गतिविधियों के उलट दिखा. और चौथी वजह यह है कि यह संदेश उनके गृह मंत्री और उनके नंबर दो माने जाने वाले अमित शाह द्वारा पश्चिम बंगाल दौरे में दिए इस महत्वपूर्ण बयान के बाद दिया गया कि ‘सीएए’ को फिलहाल लागू नहीं किया जाएगा.

इस नये कानून के तहत नियम बनाने की समय सीमा काफी पहले ही खत्म हो चुकी है और अब सरकार को इसे तीसरी बार आगे बढ़ाने के लिए संसदीय कमिटी के पास जाना पड़ेगा. शाह ने कहा कि जब एक महामारी फैली हुई है तब हम इस कानून को कैसे लागू कर सकते हैं, इसलिए टीकाकरण की प्रक्रिया शुरू होने तक इंतजार करना ही बेहतर होगा.

इस सबसे हम यह निष्कर्ष निकालने का जोखिम उठा सकते हैं कि सरकार को यह एहसास हो गया है कि इस तरह की राजनीति और रणनीति पर बहुत ज्यादा ज़ोर देने का अंतरराष्ट्रीय संबंधों और आंतरिक सुरक्षा पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है. इसकी वजह यह है कि पक्ष-विपक्ष में चाहे जो तर्क दिए जाएं, विदेश में और अपने देश में भी आबादी का अहम हिस्सा इसे मुसलमानों को दरकिनार करने की नीति के रूप में देखता है.

प्रधानमंत्री ने इस तरह का संदेश देने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के वर्षगांठ-दिवस को चुना, यह अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है. इस साल के शुरू में इस विश्वविद्यालय में पुलिस ज़्यादतियों और लांछनों के विरोध में तूफान मचा हुआ था. आज, मोदी इसे ‘मिनी इंडिया’ बता रहे हैं और इसके छात्रों तथा अध्यापकों से दुनिया के सामने देश की अच्छी तस्वीर पेश करने की अपील कर रहे हैं. जाहिर है, उनका इशारा उन विदेशी छात्रों की तरफ था, जो वहां पढ़ाई करने के लिए आते हैं.

दिप्रिंट की रिपोर्टर फातिमा खान ने मुझे बताया कि फिलहाल कुल 22,000 छात्रों में अप्रवासी भारतीय छात्रों के अलावा अफगानिस्तान के 42, बांग्लादेश के 68, इंडोनेशिया के 66, जॉर्डन के 49, नेपाल के 20, फिलस्तीन के 13, ईरान के 15, थाईलैंड के 117, तुर्कमेनिस्तान के 21, यमन के 151 और इराक के 29 छात्र पढ़ रहे हैं.

अमेरिका, मॉरीशस, न्यूज़ीलैंड और नाइजीरिया से भी छोटी संख्या में छात्र मौजूद हैं. इनमें से हरेक देश के साथ हमारा दोस्ताना रिश्ता है और इनसे हमारे अहम रणनीतिक हित भी जुड़े हैं.

और, रिकॉर्ड के लिए, एएमयू में एक पाकिस्तानी छात्रा भी पढ़ रही है, दंत चिकित्सा कॉलेज में. ये सारे छात्र भारत की जो छवि अपने मन में लेकर जाते हैं वह प्रायः एएमयू के कैंपस में ही बनती है.

पिछले एक साल से तो नकारात्मक छवि ही बन रही है. इसके छात्रों और अध्यापकों में ज्यादा संख्या युवा और जागरूक भारतीय मुसलमानों की ही है, जो अगर नाराज हैं और खुद को अलग-थलग किया गया मानते हैं तो इसकी वजह भी है.


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परंतु, इससे मोदी क्यों परेशान हों? मुसलमान उन्हें वोट तो देते नहीं. वैसे भी, पश्चिम बंगाल और असम के आसन्न चुनावों में ध्रुवीकरण की राजनीति का, जो कि भाजपा के लिए चुनावी समर का ब्रह्मास्त्र है, सहारा लेने की जरूरत पड़ेगी ही.

उनके और शाह के नेतृत्व में भाजपा ने अल्पसंख्यकों को छोड़कर संकरे जनाधारों में वोट बटोरने का चुनावी करिश्मा कर दिखाया है. बड़े परिप्रेक्ष्य में देखें तो इन वोटों ने मुस्लिम वोट को उसके लिए बेमानी कर दिया है. तो अब इन दोनों को उनकी ओर हाथ बढ़ाने की जहमत उठाने की क्या जरूरत है? नाराज, हताश, अलग-थलग, उपेक्षित मुसलमान वास्तव में उनके आधार को मजबूत कर सकते हैं.

इसकी वजह जानने के लिए हमें एक साल पीछे 22 दिसंबर 2019 को रामलीला मैदान में मोदी के भाषण को देखना होगा. उस भाषण में उन्होंने इस तथ्य की तारीफ की थी कि मुस्लिम प्रदर्शनकारी तिरंगा झंडा और भारतीय संविधान को हाथ में लेकर विरोध कर रहे हैं. मोदी ने उन्हें सलाह दी थी कि वे इसके साथ ही आतंकवाद के खिलाफ भी अपनी आवाज़ बुलंद करें. भारत के अल्पसंख्यकों की राष्ट्रभक्ति के लिए भाजपा/आरएसएस ने यही ‘टेबिट टेस्ट’ जैसी कसौटी तय कर रखी है. नयी पीढ़ी वालों और क्रिकेट में रुचि न रखने वालों को बता दूं कि ब्रिटेन के बीते दौर के कंजर्वेटिव नेता नॉर्मन टेबिट ने क्रिकेट खेलने वाले, ब्रिटेन के पूर्व उपनिवेशों के ब्रिटिश नागरिकों की यह जांच के लिए एक कसौटी तय की थी कि वे टेस्ट मैच में इंगलैंड का समर्थन करते हैं या अपने मूल देश का.

लेकिन मोदी ने इस सुर को तुरंत छोड़ दोस्ताना और उदारवादी लहजा अपनाते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि उनकी किसी कल्याणकारी योजना में अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव नहीं किया गया है. निष्पक्ष होकर देखें तो यह सही लगेगा. सोने के ऊपर सुहागा जड़ते हुए मोदी ने उन अहम मुस्लिम देशों के नाम गिनाए जिन्होंने उन्हें अपने प्रतिष्ठित राष्ट्रीय सम्मानों और पुरस्कारों से नवाजा है. यह सब मोदी के संभावित सोच में झांकने के सूत्र थमाते हैं.

सम्मान, पुरस्कार, प्रशंसा हर किसी को पसंद है. मोदी के लिए निजी तौर पर इनका चाहे जो भी अर्थ हो, ज्यादा अहम बात यह है कि यह मुस्लिम, खासकर अरब देशों की ओर हाथ बढ़ाने के उनके अहम प्रयासों का ही हिस्सा था. यह पाकिस्तान को अपने पश्चिम में स्थित मुल्कों में बड़ी सफाई से मात देने की भी चाल थी. हालांकि पाकिस्तान के पूरब में, शी जिनपिंग के मामले में मोदी नाकाम रहे.

चीन के मामले में मोदी अगर विफल रहे— आखिर, दोनों देशों की सेनाएं एक-दूसरे के सामने डटी हैं और पाकिस्तान कुल मिलकर चीन का ग्राहक या मातहत मुल्क बन गया है तो इसकी वजह यह है कि जिनपिंग को इसी में फायदा नज़र आता है. लेकिन अरब संसार के मामले में मोदी की चाल कामयाब रही है. पाकिस्तान के करीबी दोस्त, संरक्षक, महाजन सऊदी अरब और यूएई उससे दूर खिसक गए हैं. सऊदी अरब कर्ज में दिए अपने पैसे वापस मांग रहा है तो चीन उसका तारणहार बन रहा है. उधर, यूएई ने पाकिस्तानी कामगारों को वीसा देना बंद कर दिया है.


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मोदी इन उपलब्धियों को गंवाना नहीं चाहते, खासकर इसलिए कि दुनिया का माहौल तेजी से बदल रहा है. इस मामले में, दोस्ताना इस्लामी संसार की तरफ से दबाव काफी बढ़ा है. अगर भाजपा की राजनीति ध्रुवीकरण की धुरी पर घूमती रही, तो वे पाकिस्तान के खिलाफ भारत को कब तक समर्थन देते रहेंगे? उन्हें उम्मा के अंदर की टूटन और चुनौतियों से भी निपटना है. उधर ईरान और तुर्की अपना प्रभाव बढ़ाने की होड़ कर रहे हैं और अमेरिका इजरायल से संबंध सामान्य बनाने के लिए ‘दबाव’ डाल रहा है. और, जब मलेशिया तथा पाकिस्तान भी इजरायल के प्रति गर्मजोशी दिखा रहे हैं, तब भारत अपने अरब दोस्तों को परेशानी में डालने की शायद ही सोच सकता है.

दुनिया भी बदल गई है क्योंकि व्हाइट हाउस से ट्रंप विदा हो रहे हैं और तीन हफ्ते में बाइडेन वहां होंगे. वे ईरान से फिर रिश्ते बनाने की बात कर चुके हैं जिसके चलते इस्लामी संसार और फारस की खाड़ी से पूरब में कई तरह की संभावनाओं के द्वार खुल सकते हैं. ईरान के खुमैनी, एर्दोगन या महाथिर जैसे बुरे तो नहीं हैं लेकिन भारत में मुसलमानों के साथ हो रहे बरतावों की हाल में उन्होंने आलोचना की है. ईरान एक दोस्त मुल्क है जिसके आर्थिक और रणनीतिक हित बहुआयामी हैं.

इधर, अपने पड़ोस में है बांग्लादेश. मोदी के एएमयू वाले भाषण से पहले उनकी और शेख हसीना के साथ शिखर वार्ता थी. पड़ोस के साथ सबसे अहम रणनीतिक संबंध पर सीएए-एनआरसी विवाद— ‘दीमकों’ को बंगाल की खाड़ी में फेंक देने जैसी बातों— के कारण जो आंच आई उसे दुरुस्त करना जरूरी था. अब भारत उसे प्याज से लेकर वैक्सीन तक तमाम चीजों की पेशकश कर रहा है. पाकिस्तान और चीन, दोनों भारत में बांग्लादेशी मुसलमानों के खिलाफ बनाए जा रहे माहौल का फायदा उठाने की फिराक में लग गए हैं.

जाहिर है, यह हृदय परिवर्तन से ज्यादा एक ऐसे समय में अपनी चाल बदलने की कोशिश जैसी लगती है, जब कि दुनिया की तस्वीर बदल रही है और भारत की आर्थिक रफ्तार के साथ उसका अपना मोल भी कम हुआ है. घरेलू राजनीति को व्यापक रणनीतिक हितों तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों के साथ खिलवाड़ करने की छूट देने के नतीजे उभरकर सामने आ रहे हैं. यह तब हो रहा है जब चीन के सीधे मुकाबले में खड़े देश के तौर पर भारत की कमजोरियां बढ़ गई हैं और पांच दशक पहले के मुकाबले आज उसे दोस्तों की ज्यादा जरूरत है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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