मोहम्मद सिराज का भारत-इंग्लैंड टेस्ट सीरीज़ में प्रदर्शन, खासकर द ओवल में हुए आखिरी मैच में लगभग हर तरफ से सराहा गया, लेकिन आपको पता है कि आप सच में छा गए हैं, जब आपकी तारीफ खुद सचिन तेंदुलकर करें.
तेंदुलकर ने कहा, “अविश्वसनीय. बेहतरीन अप्रोच. मुझे उनका एटीट्यूड पसंद है. उनके पैरों में जो स्प्रिंग है, वो लाजवाब है. कोई बल्लेबाज़ ऐसे तेज़ गेंदबाज़ को पसंद नहीं करता जो लगातार आपके सामने डटा रहे…उनकी आखिरी कुछ गेंदों की स्पीड 90 मील प्रति घंटा थी, ये दिखाता है कि उनके पास जिगर है—मतलब बहुत बड़ा दिल है.”
सीरीज़ में कुल 23 विकेट लेने वाले सिराज भारत की आखिरी टेस्ट में 6 रन से मिली रोमांचक जीत के केंद्र में थे. इस जीत से सीरीज़ 2–2 से बराबर हुई और उनके प्रदर्शन को एकमत और दुर्लभ प्रशंसा मिली.
मोहम्मद सिराज एक बेहतरीन भारतीय क्रिकेटर हैं और सिद्धांततः कहानी यहीं खत्म हो सकती थी, लेकिन आज के भारत में, पहचान अकेले नहीं चलती. पासमांदा मुस्लिम होने के नाते, सिराज को एक प्रतीकात्मक भूमिका में भी देखा जा रहा है.
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पासमांदा शान
साधारण शुरुआत से ऊपर उठने के लिए मशहूर 31 साल के मोहम्मद सिराज भारतीय क्रिकेट के सबसे भरोसेमंद तेज़ गेंदबाज़ों में से एक बन गए हैं — हर फॉर्मेट, हर परिस्थिति और दबाव में. वे कई बार अपने क्रिकेटिंग प्रदर्शन से ‘मैन ऑफ द ऑवर’ बने हैं, लेकिन अब वो पासमांदा मुसलमानों के लिए एक तरह के आइडल भी बन चुके हैं.
एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने उनकी तारीफ करते हुए उन्हें “पाशा” कहा — एक शब्द जिसमें सांस्कृतिक और जातिगत मायने छिपे हैं.
Always a winner @mdsirajofficial! As we say in Hyderabadi, poora khol diye Pasha! pic.twitter.com/BJFqkBzIl7
— Asaduddin Owaisi (@asadowaisi) August 4, 2025
कई पासमांदा मुसलमानों के लिए सिराज का उभार एक शांत चुनौती है उस राष्ट्रीय सोच के लिए, जो अपने नायकों को बिना संदर्भ के देखना पसंद करती है.
एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर, एक यूज़र ने सिराज के आईसीसी वनडे गेंदबाज़ी रैंकिंग में नंबर 1 बनने पर उनकी उप-जाति का ज़िक्र करते हुए लिखा, “ये पासमांदा मुस्लिम समाज के मंसूरी/धुनिया (कपास साफ करने वाले) से हैं. जय पासमांदा!” ओवैसी की पोस्ट पर किसी ने मज़ाकिया अंदाज़ में लिखा: “पाशा ने पंक्चर बना दिया” — ये उस स्टीरियोटाइप पर कटाक्ष था जिसमें मुसलमानों को टायर रिपेयर जैसे कामों में सीमित दिखाया जाता है.
यह भाव क्रिकेट से ज़्यादा उस सूक्ष्म बदलाव के बारे में था जिसमें ‘सिराज’ जैसा नाम राष्ट्रीय गर्व के साथ लिया जा रहा है. सोशल मीडिया पर, उनकी सफलता को इस सबूत के रूप में देखा जा रहा है कि कामकाजी वर्ग के पासमांदा पृष्ठभूमि से आने वाला कोई व्यक्ति भी भारत के गर्व का केंद्र बन सकता है.
एक पासमांदा मुसलमान होने के नाते, मुझे सच में खुशी होती है जब मैं देखती हूं कि मेरे समाज के लोग मोहम्मद सिराज में एक सकारात्मक आदर्श पाते हैं — कोई ऐसा, जो उन्हें यह यकीन दिलाता है कि वे भी राष्ट्रीय मुख्यधारा का हिस्सा बन सकते हैं.
पासमांदा समाज पीढ़ियों से उपेक्षा झेलता आया है, अक्सर मुस्लिम समाज के भीतर भी पीछे रह जाता है. मुझे पता है कि हर कोई सिराज जितना भाग्यशाली नहीं होगा और यह व्यवस्था बिल्कुल आसान नहीं है, लेकिन सिर्फ उम्मीद होना — यह विश्वास कि आपकी पहचान अकेले ही आपके रास्ते में रुकावट नहीं बनेगी — एक ताकतवर संदेश है. मोहम्मद सिराज, सिर्फ अपने मुकाम से ही, यह संदेश देते हैं और एक ऐसे समाज के लिए, जिसे बार-बार यह महसूस कराया गया कि उसका कोई महत्व नहीं है, यह बात ज़्यादातर लोगों के अंदाज़े से कहीं ज़्यादा मायने रखती है.
अपनेपन की जगह
आदर्श रूप से, मोहम्मद सिराज की धार्मिक पहचान मायने नहीं रखनी चाहिए, लेकिन हम अभी उस आदर्श दुनिया में नहीं रहते.
क्रिकेट, जिसे अक्सर भारत का अनौपचारिक धर्म कहा जाता है, हमेशा से ऐसा मंच रहा है जहां मान्यताओं की सीमाएं धुंधली हो जाती हैं और राष्ट्रीय गर्व हावी हो जाता है. खिलाड़ी राम, अल्लाह, गुरु नानक या यीशु में से किसी को भी मानें, उनकी प्रतिभा को हर सीमा से परे सराहा गया है. आज भी, ज़्यादातर मामलों में, यह सच है. सिराज कई लोगों के हीरो हैं — अलग-अलग पृष्ठभूमियों से.
लेकिन सोशल मीडिया के दौर में, हाशिये पर रहने वालों के पास भी माइक है. वो आवाज़ें, जिन्हें पहले गंभीरता से नहीं लिया जाता था, अब दूर तक पहुंच रही हैं और सिराज इससे अछूते नहीं रहे. उन्हें सिर्फ जीत के बाद अल्लाह का शुक्रिया अदा करने या उमराह यात्रा की तस्वीर साझा करने पर भी निशाना बनाया गया.
इसके बावजूद, उनकी सफलता उस खामोश बहुमत की याद दिलाती है — वह भारत जो अब भी मैदान पर खिलाड़ी के खेल को इस बात से ऊपर रखता है कि वो मैदान के बाहर किससे दुआ मांगते हैं. इस मायने में, सिराज एक और संभावना का प्रतीक हैं: कि पहचान रुकावट नहीं होनी चाहिए और अब भी, चाहे नाज़ुक ही सही, अपनापन पाने की जगह मौजूद है.
हीरो बनाम बड़ी सच्चाइयां
मैंने एक बात गहराई से समझी है — खासकर सिराज के मामले में कि जब प्रतिभाशाली लोगों को मौका मिलता है, तो वे अपनी पहचान या पृष्ठभूमि से परे असाधारण उपलब्धियां हासिल कर सकते हैं. मैं हमेशा से मानता हूं कि ऐसी कहानियों को समुदाय के भीतर आदर्श के रूप में देखना चाहिए. ये एक ताकतवर संदेश देती हैं: कि हम खुद को बना सकते हैं, सार्थक योगदान दे सकते हैं और देश के लिए एक सकारात्मक ताक़त बन सकते हैं.
लेकिन समय के साथ मैंने यह भी समझा है कि किसी एक व्यक्ति की सफलता — चाहे वह सिराज जैसी प्रेरणादायक ही क्यों न हो, आसानी से पूरी बिरादरी की तरक्की में नहीं बदल जाती. ऐसी कहानियां हमें दिखाती हैं कि क्या संभव है, लेकिन केवल संभावना से बदलाव नहीं आता.
वास्तव में, किसी पीढ़ियों से हाशिये पर रहे समुदाय को बदलने के लिए और भी बहुत कुछ चाहिए: सोच में बदलाव, संसाधनों तक समान पहुंच, सोच-समझकर बनाई गई नीतियां और लगातार चलने वाले सामाजिक कार्यक्रम. तभी हम कुछ गिने-चुने हीरो का जश्न मनाने से आगे बढ़कर असली बदलाव गिनना शुरू कर सकते हैं.
हीरो होना अच्छी बात है, लेकिन रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बदलाव देखना उससे भी बेहतर है.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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