कूटनीतिक सफलता के अभाव में भारतीय सेना और पीएलए अपने क्षेत्रों की रक्षा करने तथा क्रमश: नई दिल्ली और बीजिंग के राजनीतिक एवं सैन्य उद्देश्यों के अनुरूप भावी अभियान संचालित करने के लिए मोर्चे पर तैनात हैं. पूर्वी लद्दाख में सैनिक अभियानों के लिए आदर्श स्थिति मई के आरंभ से नवंबर के अंत तक होती है. चीन के ज़ोर देकर अपनी 1959 की क्लेम लाइन को वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) बताने और भारत द्वारा उसके दावे को सिरे से खारिज किए जाने को देखते हुए अगले दो महीने में एक सीमित युद्ध की आशंका प्रबल है. सर्दियां शुरू होने के बाद ये आशंका कम नहीं होने वाली, हालांकि तब सैन्य अभियानों का दायरा ज़रूर कम हो जाएगा.
लद्दाख में ठंड के कठोर मौसम तथा वहां तैनात सैनिकों के लिए लॉजिस्टिक्स संबंधी ज़रूरतों के बारे में काफी कुछ कहा जा चुका है. मीडिया में इस बारे में भी तमाम मिथक फैलाए जा रहे हैं कि कड़ाके की ठंड का सैनिकों और सैन्य अभियानों पर क्या असर होता है. मैं इनमें से कुछ मिथकों को दूर करने और सर्दियों में संचालित सैन्य अभियानों पर मौसमी और भौगोलिक दशाओं के असर का विश्लेषण करने का प्रयास करता हूं.
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सर्दियों में संचालित सैन्य अभियान
स्थानीय दशाओं के लिए 14 दिनों की अनुकूलन प्रक्रिया के बाद, शारीरिक रूप से स्वस्थ सैनिक 4,600 मीटर या 15,000 फीट से अधिक ऊंचाई वाले इलाकों में, ऑक्सीजन की कमी के कारण, 35-40 प्रतिशत कम दक्षता के साथ काम कर सकते हैं. इसके अलावा सर्दियों में अत्यंत कम तापमान– दिन में -5 से -15 डिग्री सेल्सियस और रात में -20 से -35 डिग्री सेल्सियस– के कारण भी शारीरिक कार्य क्षमता में 15-20 प्रतिशत की गिरावट आती है. इस प्रकार, सैनिक ऊंचाई वाले इलाकों की सर्वाधिक प्रतिकूल दशाओं में 50-60 प्रतिशत कम दक्षता के साथ काम कर सकते हैं. यह आकलन मेरे खुद के अनुभव पर आधारित है. ये बात हमारी सेना के साथ-साथ दुश्मन सेना पर भी समान रूप से लागू होती है.
सैनिकों का प्रदर्शन शारीरिक फिटनेस, स्थानीय दशाओं के अनुकूलन और अपनी क्षमताओं को निरंतर बरकरार रखने पर निर्भर करता है. पूर्वी लद्दाख की समुद्र तल से ऊंचाई और भौगोलिक दशाएं दक्षिण पश्चिम शिनजियांग और उत्तर पश्चिम तिब्बत के समान ही हैं, जहां पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के सैनिकों को प्रशिक्षित किया जाता है. इस प्रकार, भौगोलिक परिस्थितियां और मौसमी दशाएं दोनों पक्षों के लिए एक समान हैं.
एक और मिथक बर्फ की मौजूदगी के बारे में है. पूर्वी लद्दाख में स्नोलाइन 5,000 मीटर या 16,500 फीट की ऊंचाई पर है, यानि इससे नीचे के इलाकों में बर्फ की स्थाई उपस्थिति नहीं रहती है. यहां तक कि 5,500 मीटर की ऊंचाई पर भी आमतौर पर बर्फ कुछेक दिनों से ज़्यादा नहीं टिकता है. सिर्फ दौलत बेग ओल्डी (डीबीओ) सेक्टर और उत्तरी ढलानों पर इसकी मौजूदगी अधिक दिनों तक रहती है. ऐसा ग्रेट हिमालयन रेंज के पूर्व और उत्तर में वर्षण के अभाव के कारण है. इसलिए जहां ज़ोजी ला दर्रा (3,500 मीटर/11,483 फीट) और रोहतांग दर्रा (3,980 मीटर/13,060 फीट) नवंबर से अप्रैल तक बंद रहता है, वहीं 5,500 मीटर/18,000 फीट की ऊंचाई वाले लद्दाख स्थित दर्रे पूरी सर्दियों में दो-तीन बार ही, करीब एक हफ्ते के लिए बंद रखने पड़ते हैं.
शिनजियांग, अक्साई चीन और तिब्बत से पूर्वी लद्दाख की ओर आने वाली सड़कें सर्दियों में कुछेक दिनों के लिए ही अस्थाई रूप से बंद की जाती हैं. रोहतांग सुरंग मार्ग तैयार होने के कारण हम भी अब मनाली-लेह राजमार्ग को निरंतर खुला रख सकते हैं, हालांकि इसके लिए सीमा सड़क संगठन को बारालाचा ला (5,030 मीटर/16,500 फीट), नाकी ला (4,739 मीटर/15,547 फीट), लाचुंग ला (5,065 मीटर/16,616 फीट) और तांगलांग ला (5,328 मीटर/17,480 फीट) को हिममुक्त रखने के लिए सतत प्रयास करने होंगे.
संक्षेप में कहें तो सर्दियों में सैन्य अभियानों का दायरा कम हो जाता है और ये अभियान आमतौर पर 5,500 मीटर की ऊंचाई तक ही सीमित रहते हैं. दिसंबर और अप्रैल के संक्रमणकालिक महीनों का सर्दियों के मुख्य महीनों जनवरी, फरवरी और मार्च के मुकाबले अधिक लाभ उठाए जाने की संभावना रहेगी. डीबीओ सेक्टर में अपेक्षाकृत अधिक कठिनाइयों के कारण सैन्य अभियानों का फोकस हॉट स्प्रिंग-कुगरांग नदी-गोगरा, पैंगोंग त्सो के उत्तर के इलाके, चुशुल, सिंधु घाटी, डेमचोक और चुमार सेक्टरों पर रहने की संभावना है.
हमारी सेना को ऊंचे पर्वतीय इलाकों में युद्ध करने का काफी अनुभव है: करगिल और लेह (1947-48), करगिल (1965, 1971 और 1999), नाथू ला (1967), तुर्तोक (1971) और सियाचिन ग्लेशियर (1999). कर्नल रहने के दौरान 1988-90 में मुझे पूर्वी लद्दाख में पूरे साल भर एक सैन्य दल को युद्ध के लिए पूर्णतया तैयार रखने का अनुभव है. जबकि ब्रिगेडियर रहते हुए अप्रैल 2001 में मैंने चोर्बट ला सेक्टर में एलएसी के पार 5,310 मीटर/17,422 फीट ऊंची पहाड़ी पर कब्जे के अभियान की देखरेख की थी जिसे मेरे ब्रिगेड की एक बटालियन– 14 सिख ने अंजाम दिया था.
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लॉजिस्टिक्स
लद्दाख में सेना की तैनाती के लिए ज़रूरी रसद और समर्थन के तंत्र (लॉजिस्टिक्स) में बीते वर्षों में काफी सुधार हुआ है. युद्ध के दौरान अतिरिक्त बलों की ज़रूरत के अनुरूप भी इंतजाम किए गए हैं. वैसे भी, इस बार हमें संभावित स्थिति की पर्याप्त जानकारी मई के अंत तक मिल चुकी थी. मुझे रसद और गोला-बारूद की आपूर्ति को लेकर किसी तरह की कठिनाई की आशंका नहीं दिखती है.
नए रक्षात्मक मोर्चे पर तैनात सैनिकों के लिए सर्दियों के अनुरूप रिहाईश का इंतजाम एक बड़ी चुनौती होती है. इस चुनौती से फाइबर ग्लास के हटों की मदद से और अग्रिम रक्षात्मक पंक्ति के पीछे की ढलानों पर आर्कटिक टेंट लगाकर निपटा जा सकता है. आधार शिविर में बड़े आकार के पूर्वसंयोजित शेल्टर खड़े किए जा सकते हैं. सैन्य अभियानों के लिए पूर्वी लद्दाख में 5,500 मीटर की ऊंचाई तक नए रास्ते आसानी से तैयार किए जा सकते हैं. इसकी एक अच्छी मिसाल है कैलाश रेंज में रेचिन ला तक जाने वाला 1962 में तैयार एक ट्रैक. इसे आज भी इस्तेमाल किया जा सकता है. चूंकि इस इलाके में बारिश नहीं होती है और हिमपात भी सीमित मात्रा में ही होता है, इसलिए यहां बनी कच्ची सड़कें भी बरसों तक मौजूद रहती हैं. मुझे कोई संदेह नहीं है कि हमारी सेना ने तमाम नए रक्षात्मक मोर्चों तक ऑपरेशनल ट्रैक बना रखे होंगे.
आज हमारे सैनिक पर्वतीय इलाकों के लिए निर्मित दुनिया के सर्वोत्कृष्ट लिबासों और उपकरणों से सुसज्जित हैं. लेकिन खासकर सर्दियों में, ऊंचे पर्वतीय इलाकों में निरंतर तैनाती और युद्ध के लिए लिबास और साजो-सामान ही काफी नहीं होते. यहां सतत शारीरिक फिटनेस, स्थानीय दशाओं के अनुकूलन, ऊंचे पर्वतीय इलाकों में सुरक्षित रखने वाले तौर-तरीकों के अनुपालन और उससे भी अधिक चुनौतियों से पार पाने की इच्छाशक्ति की दरकार होती है.
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अस्पष्ट राजनीतिक उद्देश्य
अस्थिर शुरुआत के बाद अब हमारे सशस्त्र बल सैन्य अभियान के अनुकूल शेष दो महीनों और सर्दियों के दौरान, मौसमी बाध्यताओं के दायरे में सरकार के राजनीतिक निर्देशों के पूर्ण कार्यान्वयन के लिए हर तरह से तैयार हैं. हालांकि हमारे राजनीतिक उद्देश्यों को लेकर अस्पष्टता की स्थिति है. सरकार को इसे स्पष्ट करना चाहिए.
सरकार ने दो टूक शब्दों में कहा है कि वह 1959 की क्लेम लाइन को मान्यता नहीं देती है. इसका मतलब यथास्थिति का अर्थ होगा 1993 के एलएसी तक हमारे नियंत्रण/गश्त के अधिकारों की पुनर्बहाली. तो क्या हम अन्य स्थानों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्रवाई करके अपने इलाके से पीएलए को भगाएंगे? या हमने चीनी घुसपैठ को एक निर्विवादित तथ्य के रूप में स्वीकार कर लिया है और हमारी सेना केवल भावी घुसपैठों को रोकने का प्रयास कर रही है? मोर्चे पर मौजूद सैनिकों और जनता को ये पता होना चाहिए कि हमारी युद्धक तैनाती किन उद्देश्यों के लिए है.
(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रि.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की है. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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